अब वॉशिंगटन नई दिल्ली से रूस से रियायती दर पर तेल खरीद पर अंकुश लगाने और उसके मुताबिक विदेश नीति तय करने की मांग कर रहा है। क्या भारत झुकेगा या अपने जांचे-परखे पुराने दोस्त रूस पर भरोसा जताएगा और प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी चीन के साथ संबंध सुधारेगा? क्या भारत-अमेरिका संबंध ट्रम्प के हमले से बच पाएंगे, खासकर तब जब ट्रम्प दुश्मन पाकिस्तान से हाथ मिला रहे हैं? क्या भारत असल में अमेरिका और रूस की लड़ाई में फंस गया है या फिर कुछ और? भारत ने टैरिफ को ‘‘अनुचित, अतार्किक और अव्यावहारिक’’ करार दिया था, क्योंकि यूरोपीय संघ और अमेरिका दोनों ही रूस से कुछ वस्तुएं खरीदना जारी रखे हुए हैं। और रूसी तेल के सबसे बड़े आयातक चीन का क्या? अमेरिका ने इसके लिए बीजिंग को निशाना नहीं बनाया है।
मजबूत, राष्ट्रवादी और निर्णायक नेता की छवि पेश करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुविधा का सामना कर रहे हैं। उनकी विदेश नीति और कूटनीति की बेहद निजी शैली पर सवाल उठ रहे हैं। वे झुके तो उनकी घरेलू राजनीति में भारी राजनैतिक प्रतिक्रिया का खतरा है, लेकिन मुंह मोड़ने से तनाव बढ़ सकता है। अमेरिका में ट्रम्प के आलोचक, नई दिल्ली और वॉशिंगटन में दोनों पक्षों के संबंधों के प्रति उनकी लापरवाही पर सवाल उठा रहे हैं। यह रिश्ता बिल क्लिंटन की 2000 की ऐतिहासिक यात्रा से शुरू हुआ और असैन्य परमाणु समझौते, रक्षा समझौतों, तकनीकी साझेदारियों और राजनैतिक सद्भावना के साथ आगे बढ़ा। लेकिन अब क्वाड पर भी सवालिया निशान लगा रहा है, जो अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान का समूह है और दक्षिण चीन सागर और वृहद हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की आक्रामक गतिविधियों का मुकाबला करने के लिए बनाया गया है। इस साल के अंत में होने वाले क्वाड शिखर सम्मेलन के लिए ट्रम्प भारत आएंगे या नहीं, इस पर अभी संदेह है। विडंबना यह है कि भारत की ओर अमेरिका का झुकाव एशिया में अमेरिकी शक्ति के लिए चीन की बढ़ती चुनौती के विरुद्ध भारत को संतुलित करने के लिए था।
ऑस्ट्रेलिया के ग्रिफिथ विश्वविद्यालय के इयान हॉल कहते हैं, ‘‘ट्रम्प ने निर्वासन, टैरिफ और पाकिस्तान के साथ साझेदारी पुनर्जीवित करके अमेरिका-भारत संबंधों को काफी नुकसान पहुंचाया है। लेकिन मुझे लगता है कि रूसी तेल के मामले में टैरिफ भारत पर व्यापार समझौते के लिए दबाव डालने की रणनीति भर है। ट्रम्प रूस को यूक्रेन पर समझौता करने के लिए मजबूर करने को लेकर गंभीर नहीं हैं या कम से कम वह करने को तैयार नहीं हैं, जो इसके लिए जरूरी होगा। और अगर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन युद्ध समाप्त भी कर देते हैं, तब भी ट्रम्प भारत के साथ अपने व्यापार घाटे को कम करने के लिए दबाव बनाए रखेंगे।’’
इज्राएल और अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंध रखने वाली मोदी सरकार धीरे-धीरे पश्चिम की ओर झुक रही थी, हालांकि यूक्रेन युद्ध के दौरान वह रूस के समर्थन में खड़ी रही। लेकिन ट्रम्प के टैरिफ लगाए जाने के बाद से, भारत अपनी नीतियों में बदलाव कर रहा है।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की हालिया मॉस्को यात्रा और पुतिन के साथ उनकी बहुप्रचारित मुलाकात, मोदी और पुतिन के बीच हुई बातचीत के बाद हुई। विदेश मंत्री एस. जयशंकर पिछले हफ्ते मास्को हो आए हैं और चीन के वांग यी डोभाल के साथ सीमा पर चर्चा के लिए दिल्ली में थे। प्रधानमंत्री तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन के लिए चीन जा रहे हैं। 2020 की गर्मियों में हुए सैन्य टकराव के बाद यह उनकी पहली यात्रा होगी। भारत धीरे-धीरे चीन के साथ संबंधों को बहाल कर रहा है, जो गलवन घाटी के बाद ठंडे पड़ गए थे। लेकिन भारत और चीन के बीच अविश्वास तब तक दूर नहीं होगा जब तक सीमा का अंतिम समाधान नहीं हो जाता। इसलिए, रूस-चीन-ईरान गुट में भारत के शामिल होने को लेकर पश्चिमी देशों का डर कम होने की संभावना नहीं है।
भारत से गलती कहां हुई?
पिछले नवंबर में हुए राष्ट्रपति चुनावों में ट्रम्प ने जो बाइडन को हराया, तो दुनिया भर के कई देश आशंकित थे। अन्य सरकारों के विपरीत, भारत ट्रम्प के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने को लेकर चिंतित नहीं था। आखिरकार, मोदी और ट्रम्प ने ह्यूस्टन में अमेरिकी नेता की उपस्थिति में आयोजित ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम के साथ अपनी दोस्ती का जश्न मनाया। मोदी ने भी अपने गृह राज्य अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रम्प’ रैली आयोजित करके इस सम्मान का बदला चुकाया। जब ट्रम्प ने मोदी को दरकिनार कर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अपने दूसरे शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया, तब भी दिल्ली में माहौल उत्साहपूर्ण बना रहा।
जाहिर तौर पर भारत यह समझने में नाकाम रहा कि ट्रम्प का दूसरा कार्यकाल उनके पिछले कार्यकाल से बहुत अलग था। अब वे बेहद आत्मविश्वास से भरे हैं। इस बार उन्हें मालूम है कि व्यवस्था कैसे काम करती है। उन्होंने सिर्फ वफादारों को ही शामिल किया है, जो जरूरत पड़ने पर नियमों में बदलाव करने को तैयार हैं।
मोदी ट्रम्प से उनके दूसरे कार्यकाल में मिलने वाले पहले लोगों में थे। यात्रा के अंत में, दोनों देशों ने घोषणा की कि द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर बातचीत जल्द ही शुरू होगी और शरद ऋतु तक एक रूपरेखा की घोषणा की जा सकती है।
दोनों राजधानियों में पांच दौर की वार्ता शुरू हुई, लेकिन समझौता अटका रहा। ट्रम्प ने अमेरिका में प्रवेश करने वाले भारतीय सामान पर 25 प्रतिशत शुल्क लगाकर शुरुआत की और उसके बाद रूसी तेल खरीदने पर 25 प्रतिशत अतिरिक्त शुल्क लगा दिया।
ट्रम्प का हम ही जीतेंगे वाला रवैया बातचीत को मुश्किल बना देता है। अमेरिका की इस मांग पर बातचीत रुकी रही कि भारत अमेरिका से मक्का, चिकन, सोया और डेयरी उत्पाद ज्यादा खरीदे। मक्का और डेयरी किसान ट्रम्प के वफादार मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) समर्थकों का हिस्सा है, इसलिए वॉशिंगटन की तरफ से दबाव सबसे ज्यादा है। कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री बिना राजनैतिक कीमत चुकाए ऐसा करने की स्थिति में नहीं है।
टैरिफ कहानी का यह सिर्फ एक पहलू है। ट्रम्प के लिए एक और निराशाजनक बात यह थी कि भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच शांतिदूत के रूप में उनकी भूमिका को नकार दिया। मोदी सरकार ने ट्रम्प के शेखी बघारने के अधिकार को धक्का पहुंचाया। पाकिस्तान ने बड़ी चतुराई से ट्रम्प की भूमिका को स्वीकार किया और उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित करके उनके अहंकार को बढ़ावा दिया। ट्रम्प ने पाकिस्तान के प्रति अपनी गर्मजोशी दिखाई और प्रोटोकॉल तोड़कर फील्ड मार्शल आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया। तब से, अमेरिका और पाकिस्तान ने तेल खनन पर एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं और अमेरिका ने पाकिस्तान के तेल क्षेत्र में निवेश का वादा भी किया है।
मुनीर के साथ लंच से एक दिन पहले 17 जून को ट्रम्प चाहते थे कि मोदी कनाडा से लौटते समय वॉशिंगटन रुकें, जहां वे जी-7 शिखर सम्मेलन में भाग लेने गए थे। मोदी ने इनकार कर दिया, जिससे ट्रम्प की निराशा और बढ़ गई।
भारत के इनकार के बावजूद, ट्रम्प शांतिदूत होने का दावा करते रहे। यह सर्वविदित है कि ट्रम्प नोबेल पुरस्कार के दीवाने हैं और खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश करना पसंद करते हैं, जो युद्ध बंद करवा सकता है। 20 जनवरी को अपने उद्घाटन भाषण में उन्होंने कहा, ‘‘मेरी सबसे गौरवपूर्ण विरासत शांतिदूत और सबको एक करने की होगी।’’
अमेरिका ने पहले भी भारत-पाकिस्तान संघर्षों के दौरान हस्तक्षेप किया था। क्लिंटन ने नवाज शरीफ को करगिल युद्ध रोकने के लिए राजी किया था। 2019 में, जब भारतीय पायलट अभिनंदन को पाकिस्तान ने पकड़ लिया था, तब ट्रम्प प्रशासन ने ही इमरान खान को उन्हें वापस भेजने के लिए राजी किया था। इसलिए जब भारत को ट्रम्प की जीत का दावा करने की प्रवृत्ति के बारे में पता है, तो सरकार इसे नजरअंदाज कर सकती थी।
भारत के विकल्प
भारत मुश्किल स्थिति में है और उसके विकल्प सीमित हैं। एक रास्ता यह है कि भारत चुपचाप बैठा रहे और ट्रम्प का कार्यकाल खत्म होने का इंतजार करे। लेकिन अर्थव्यवस्था को इस कदम की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
ट्रम्प की बात न मानना भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भारी कीमत चुकाने वाली होगी, और व्यापारिक लॉबी पहले ही सरकार को गंभीर परिणामों की चेतावनी दे रही है। सरकार के भीतर व्यावहारिक लोगों का मानना है कि भारत को रूसी तेल खरीदना बंद करना होगा। रूस के साथ भारत के संबंध ऐसे हैं कि मास्को दिल्ली की मजबूरी को समझेगा और राजनीतिक संबंध जारी रहेंगे। 25 प्रतिशत टैरिफ पर बातचीत करना बहुत आसान है क्योंकि भारत अपने कृषि क्षेत्र का एक हिस्सा अमेरिकी मक्का और कुछ डेयरी उत्पादों के लिए खोल रहा है। ट्रम्प को खुश करने के लिए भारत को अमेरिका से और तेल और रक्षा उपकरण खरीदने होंगे।
भारत जरूरत के समय अमेरिका पर विश्वसनीय साझेदार के रूप में पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकता। दोनों देशों के बीच विश्वास की कमी है और रिश्ते 2000 के बाद से सबसे निचले स्तर पर हैं।