मेरे पिता सुंदरलाल बहुगुणा का देहांत 94 वर्ष की आयु में 21 मई 2021 को ऐसी महामारी से हुआ, जो पर्यावरण की व्यापक उपेक्षा और जलवायु परिवर्तन का फलीतार्थ बताई जा रही है। यह भी अपने आप में एक संदेश है। हालांकि उन्हें और चिपको आंदोलन के चंडी प्रसाद भट्ट और उनके तमाम साथियों को ऐसे विनाश और तांडव का एहसास चार दशक पहले ही हो चला था, जब पर्वत और पेड़-पौधों की प्राकृतिक पवित्रता बचाने के लिए वे लोग सक्रिय हुए थे। तब जीवनदायिनी प्रकृति के संतुलन को कायम रखने की भावना इतनी तीव्र थी कि वह ऐसा जनांदोलन बना जिसकी चर्चा दुनिया भर में हुई। उस आंदोलन से पर्यावरण जागरूकता का नया संदेश मिला। काश! वह संदेश अगर बाद के दशकों, खासकर अपने देश में उदारीकरण के बाद तथाकथित विकास और बाजारवाद की अंधी दौड़ में याद रखा जाता, तो शायद दुनिया कुछ बेहतर होती।
वैसे, पिताजी की प्रवृत्ति के अनुरूप मैं इस राष्ट्रीय महाआपदा में उनके निधन को अस्वाभाविक नहीं मानता हूं। इसे भी प्राकृतिक संतुलन को बरकरार रखकर संवेदनशील और समता आधारित अहिंसक समाज निर्माण के उनके संघर्षों का एक हिस्सा माना जाना चाहिए। उनकी अनुपस्थिति सिर्फ भौतिक है, उनका संदेश तो अमर है। एक बार महामहिम दलाई लामा ने 1996 में पिताजी के सबसे लंबे 72 दिन के उपवास के समय उन्हें संदेश भिजवाया कि मृत्यु अवश्यंभावी है लेकिन देहांत स्वाभाविक होना चाहिए, ठीक वैसे, जैसे कोई पका फल टहनी से गिरता है।
पिताजी के जीवन के एक और वाकये से उन्हें समझा जा सकता है। वे एक बार बस से गांव आ रहे थे। संकरी सड़क पर एक तरफ का अगला पहिया सड़क से उतर गया और बस खाई में झूल गई। लोग खिड़कियों से कूदने लगे। जो नहीं कूद पाए, उनका रोना-धोना शुरू हो गया। किंकर्तव्यविमूढ़ ड्राइवर भी अपनी सीट पर बैठा बिसूरने लगा। तब पिताजी ने सबको ढांढस बंधाकर बाहर निकाला। ड्राइवर को बाहर निकालने के बाद ही वे बस से उतरे।
उत्तराखंड में टिहरी के पास मरोडा गांव में 9 जनवरी 1927 को सामान्य किसान परिवार में जन्मे पिताजी का पूरा जीवन कष्ट और संघर्षों में बीता। महज नौ साल की उम्र में पिता और 16 साल की उम्र में मां का साया उनके सिर से उठ गया। फिर भी स्वतंत्रता संग्राम में कैद से छूटने के बाद लाहौर पहुंचे। वहीं से ग्रेजुएशन की। स्वाधीनता संग्राम के दौरान 17 साल की उम्र में पहली बार और स्वाधीन भारत में 2001 में अंतिम बार जेल गए। इस बीच निरंतर उनकी रेल और जेल यात्रा लगी रही।
जिस प्राणवायु के लिए महामारी के इस दौर में देशभर में हाहाकार मचा है, उसकी कल्पना पिताजी ने 50 वर्ष पहले ही कर ली थी। पहाड़ पर हो रहे पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर रोक लगाने के लिए चिपको आंदोलन शुरू किया गया। हर गांव की महिलाएं पेड़ों से चिपककर उन्हें काटने आने वाले ठेकेदारों से अहिंसक लोहा लेती थीं। पिताजी ने इस आंदोलन में युवाओं को जोड़ने के लिए 120 दिनों में 1400 किमी. की यात्रा की। आंदोलन इतना तेज हुआ कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने खुद इसका संज्ञान लिया और पहाड़ पर पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी।
मेरेे पिता ने पूरा जीवन पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक समरसता के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने 1944 में राजशाही के खिलाफ श्रीदेव सुमन के साथ मिलकर जंग की। 1961 में दलित शिल्पकार डोला पालकी की धूमधाम से बारात निकाली। उस समाज की वह पहली शादी थी, जिसमें सवर्णों के साथ न झगड़ा हुआ, न मुकदमेबाजी। 1996 में पिताजी ने उस समय प्रस्तावित टिहरी बांध का विरोध किया और 72 दिन की ऐतिहासिक भूख हड़ताल भी की। दरअसल, थपेड़ों का यह मार्ग पिताजी से स्वयं अंगीकार किया था। अपने करियर की बुलंदी पर 1955 में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और एक दूरस्थ गांव में झोपड़ी बना कर रहने लगे। वे अक्सर कहा करते थे, ‘‘चलो मिलकर बदल देते हैं समाज को, मिटा दें सारे जमाने के बद रिवाज को।’’
उन्हें 1986 में रचनात्मक कार्य के लिए जमनालाल बजाज पुरस्कार, 1987 में चिपको आंदोलन के लिए लाइवलीहुड अवार्ड, 1989 में आइआइटी रुड़की से डॉक्टर की मानद उपाधि, 1998 में पहल सम्मान, 1999 में गांधी सेवा सम्मान दिया गया। 2009 में उन्हें पद्मम विभूषण से सम्मानित किया गया।
(पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा स्व. सुंदरलाल बहुगुणा के पुत्र हैं। अतुल बरतरिया से बातचीत पर आधारित)