2008 में चांद और 2014 में मंगल की कक्षाओं में अपनी पहुंच दर्ज कराने के बाद भारतीय वैज्ञानिक निकट भविष्य में शुक्र और सूर्य के गिर्द अपने उपग्रह भेजने की योजना पर काम कर रहे हैं। उससे पहले वे अगले महीने, 15 जुलाई की अल सुबह 2 बजकर 51 मिनट पर महत्वाकांक्षी उपग्रह ‘चंद्रयान-2’ प्रक्षेपित करेंगे जो सचमुच चुनौतीपूर्ण मिशन है। पर उससे भी अधिक चुनौती वाला काम होगा, अपने अंतरिक्ष यात्रियों को अपने ही यान और रॉकेट से अंतरिक्ष में भेजना और सुरक्षित वापस लाना। लक्ष्य तय किया गया है कि भारतवासी अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ यानी 15 अगस्त 2022 इस कामयाबी के साथ मनाएं। इसके लिए ‘गगनयान’ मिशन का 10 हजार करोड़ रुपये का बजट कुछ महीने पहले मंजूर किया जा चुका है। एक या दो महिला सहित, अंतरिक्ष यात्रियों का चयन जल्दी ही होगा और उनके प्रशिक्षण का प्रबंध, पहले देश में फिर विदेश में किया जाएगा। ‘गगनयान’ की पहली दो उड़ानें मानव-रहित होंगी। सब कुछ योजनानुसार चला तो पहली मानवरहित उड़ान अगले साल दिसंबर में हो जानी चाहिए।
गगनयान के कामयाब होने के बाद स्वाभाविक जरूरत बनती है एक ‘अंतरिक्ष स्टेशन’ की, जहां वैज्ञानिक अंतरिक्ष यात्री अपने परीक्षण, अन्वेंषण करने के लिए कुछ दिनों तक रह सकें। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की योजना है कि पृथ्वी की निचली कक्षा यानी पृथ्वी की सतह से 400 किलोमीटर की ऊंचाई पर परिक्रमा करने वाले इस स्टेशन में तीन अंतरिक्ष यात्री 15-20 दिन रह सकें। गगनयान की कामयाबी के बाद इस मिशन पर असली काम शुरू होगा, जिसे 5 से 7 साल में पूरा किया जाएगा। अभी इसकी योजना-निर्माण पर काम शुरू ही हुआ है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष के. सिवन के मुताबिक, यह स्टेशन छोटा होगा, महज 20 टन का। तुलना करें तो पाते हैं कि अमेरिका, रूस, जापान, कनाडा और 11 यूरोपीय देशों की मदद से चल रहा वर्तमान अकेला ‘अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन’ 420 टन वजन का है। सोवियत संघ का ‘मीर’ स्टेशन जो 2001 में रिटायर कर दिया गया था, 130 टन का था। चीन 2022 तक जो स्टेशन बनाना चाहता है, वह 65 टन के आसपास का बताया जाता है।
जहां तक टेक्नोलॉजी के विकास की बात है अंतरिक्ष स्टेशन का छोटा होना कोई कमजोरी की बात नहीं। अंततः वह योग्यता विकसित करना जरूरी है जिससे चांद या मंगल पर स्थायी अनुसंधान स्टेशन बनाए जा सकें। प्रतिस्पर्धा इसी को लेकर है। चीन और अमेरिका दोनों यही करना चाहते हैं। याद किया जा सकता है कि अमेरिका और यूरोप के आमंत्रण के बावजूद भारत आर्थिक कारणों से ‘अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन’ में भागीदार नहीं बना था। इसके अलावा, तब अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भारत की फौरी प्राथमिकताएं अलग थीं।
लेकिन चीन ने तीन साल पहले जब से अंतरिक्ष की महाशक्ति बनने का ऐलान किया है, तब से न केवल विकसित देशों की उससे अंतरिक्ष स्पर्धा तेज हुई है, बल्कि भारत के सामने भी अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को तेज करने की चुनौती खड़ी हुई है।
अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल मौसम की भविष्यवाणी, कृषि, दूरसंचार, दूरसंवेदन, नेविगेशन, प्राकृतिक आपदा से निपटने आदि में तो प्रयुक्त हो ही रही है, पर इसके सैनिक इस्तेमाल भी बढ़ रहे हैं। इसलिए पिछले कुछ सालों से अचानक जो चांद पर पहुंचने की वैश्विक प्रतिस्पर्धा तेज हो गई है, तो यूं ही नहीं। यहां तक कि अमेरिका जिसकी दिलचस्पी 1969 और 1972 के बीच छह बार चांद पर अपने रोबोटिक यान और इंसान उतार कर दिखाने के बाद बिलकुल खत्म हो गई थी, वह फिर से बेहद सक्रिय हो गया है। उसका घोषित लक्ष्य है, चांद पर स्थायी अनुसंधान स्टेशन बनाना और इस महत्वाकांक्षी काम में वह चीन से पिछड़ना नहीं चाहता।
चीन लंबे समय से अंतरिक्ष में महत्वाकांक्षी योजनाओं पर काम करता आ रहा है, पर जहां तक चांद पर पहुंचने की बात है, रूस, अमेरिका और यूरोप की बात तो जाने दें, भारत भी 2008 तक चीन से आगे था। भारत ने चीन से दो साल पहले 8 नवंबर 2008 को चांद की कक्षा में चंद्रयान-1 पहुंचाकर अपनी बढ़त सिद्ध कर दी थी जबकि चीन यह काम 9 अक्टूबर, 2010 को कर पाया। मंगल ग्रह की कक्षा में उपग्रह पहुंचाने के मामले में भी भारत ने चीन को पछाड़ा। भारत का मंगलयान 5 नवंबर 2013 को प्रक्षेपित किया गया और वह 24 सितंबर 2014 को मंगल ग्रह की कक्षा में परिक्रमा करने लगा। भारत दुनिया का पहला देश था जिसने पहले प्रयास में ही मंगल ग्रह की कक्षा में अपना उपग्रह पहुंचा कर दिखाया था। चीन ने भारत के मंगलयान प्रक्षेपण से दो साल पहले रूस के एक अभियान में भागीदार बनकर 120 किलोग्राम का एक लघु उपग्रह मंगल ग्रह की कक्षा में भेजने की कोशिश की थी लेकिन विफल रहा।
आज उसी चीन के महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों को लेकर दुनिया चिंतित है, क्योंकि वह आज अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर अमेरिका के बाद सबसे अधिक धन व्यय कर रहा है। पूछा जा सकता है कि क्या भारत चीन के बरक्स अंतरिक्षीय टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अपनी बढ़त बनाए रख पा रहा है? तुलना करते हैं तो पाते हैं कि चीन अब भारत से आगे निकल चुका है।
चांद के मामले में भारत और चीन के लक्ष्य एक समान थे। दोनों का लक्ष्य था, चांद पर पृथ्वी के दृष्टि-क्षेत्र के विपरीत ओर रोबोटिक रोवर को सहजता से उतारना (सॉफ्ट लैंडिंग कराना)। यह काम भारत को ‘चंद्रयान-2’ और चीन को ‘छांग-3’ के माध्यम से करना था। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) अपनी बढ़त बनाए रखने के क्रम में चीन से आठ महीने पहले अपना चंद्रयान-2 प्रक्षेपित करना चाहता था। इसरो ने घोषणा भी कर दी थी कि मार्च 2018 को प्रक्षेपण किया जाएगा लेकिन तब से एक नहीं, चार बार इसका प्रक्षेपण स्थगित किया गया। उधर, इसी साल जनवरी में चीन ने अपने रोबोटिक रोवर को चांद के दक्षिणी ध्रुव के निकट सहजता से उतार कर दिखा दिया और इस तरह वह पृथ्वी से न दिखाई देने वाले चांद के पिछले हिस्से में रोबोटिक रोवर उतारने वाला विश्व का पहला देश बन गया।
यह काम वह मंगल ग्रह पर भी करके दिखाना चाहता है और उसकी अगले वर्ष ही अगस्त में अपना उपग्रह प्रक्षेपित करने की योजना है। उल्लेखनीय है कि विश्व में अमेरिका ही अभी तक एक ऐसा देश है जो मंगल की सतह पर रोबोटिक रोवर उतार कर दिखा पाया है। मंगल पर रोबोटिक रोवर उतारने की योजना भारत की भी है, लेकिन इसके लिए वह अपना ‘मंगलयान-2’ 2022-2023 तक ही प्रक्षेपित करना चाहता है।
जो भी हो, फिलहाल सबसे जरूरी है चंद्रयान-2 की कामयाबी। चांद पर लैंडर मॉड्यूल को सहजता से उतारने के काम में पंद्रह मिनट ऐसे हैं, जिनको लेकर अभी भी इस मिशन में लगे लोगों के दिल की धड़कन बढ़ जाती है। यह ऐसा काम है जिसमें अभी इजराइयल विफल हो चुका है और भारत इस समय किसी भी सूरत में इस मामले में कोई असफलता नहीं झेल सकता। टेक्नोलॉजी की दृष्टि से यह काम अत्यंत जटिल है। लैंड रोवर को चांद की धरती के उस हिस्से पर उतारना है, जो चांद के दूसरी ओर, दक्षिण में है, जो हिस्सा पृथ्वी से दिखाई नहीं देता, इसलिए वहां से पृथ्वी तक सीधा संचार-संपर्क बनाना आसान नहीं। इस मुश्किल काम को करने का जिम्मा इसरो की ‘रॉकेट महिला’ चंद्रयान-2 की मिशन डायरेक्टर एयरो ऋतु करिधाल के पास है। वे मंगलयान-1 में भी यह काम डिप्टी डायरेक्टर के रूप में कर चुकी हैं।
एक जानने योग्य बात यह कि भारत अपने चंद्रयान-2 मिशन को पांच साल पहले भी अंजाम दे सकता था लेकिन चांद पर जो रोवर उतारना था, उसकी डिजाइनिंग रूस को करनी थी और फेब्रिकेशन भारत को। रूस ने अपने हिस्से का काम नहीं किया और अंततः भारत के इंजीनियरों ने अपने बलबूते ही रोवर बनाया।
छह पहियों वाला यह रोवर आकार में एक बक्से जैसा है जिसका वजन सिर्फ 27 किलो है। लेकिन यह बहुत ही उन्नत किस्म के दो वैज्ञानिक उपकरणों से युक्त है। मसलन उस पर लगा एक उपकरण यह बताएगा कि क्या चांद पर भी भूकंप जैसे कंपन होते हैं। इससे नई अंतर्दृष्टि मिलेगी कि आखिर चांद के गर्भ की संरचना कैसी है, एकदम ठोस या पृथ्वी की तरह केंद्र में पिघले लावे वाली? इसमें लगा स्पेक्ट्रोमीटर सतह की टोह लेगा, यह बताने के लिए कि सतह का निर्माण किन तत्वों से हुआ है।
चांद पर गुरुत्वाकर्षण बहुत कम है और निर्वात जैसी परिस्थिति है, इसलिए यह आश्वस्त होना जरूरी था कि यह हल्का-सा रोवर बिना लुढ़के ठीक से गतिमान रहे। वैसे इसकी गति बहुत धीमी होगी। यह एक घंटे में महज 36 मीटर की दूरी तय करेगा और अपने पूरे जीवनकाल में अधिकतम आधा किलोमीटर चलेगा। रोवर बहुत कुछ ‘सेल्फ-ड्राइविंग’ वाला है और इसे केवल कुछ ही निर्देश पृथ्वी से देने होंगे।
चंद्रयान-2 उपग्रह के दो खंड हैं: एक है ‘ऑर्बिटर’ जो एक साल तक चांद की परिक्रमा करता रहेगा और दूसरा है ‘लैंडर’ जिसका नाम भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान की आधारशिला रखने वाले वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के नाम पर ‘विक्रम’ रखा गया है। यह रोबोटिक रोवर ‘प्रज्ञान’ को चांद की सतह पर इस तरह उतारेगा कि उसे कोई झटका न लगे जिससे कोई उपकरण खराब न हो। प्रज्ञान 14-15 दिन सक्रिय रहेगा। चांद का एक दिन पृथ्वी के 14 दिन के बराबर होता है यानी यह चांद के केवल एक दिन तक ही काम कर पाएगा। एक-एक मिनट का इस्तेमाल हो इसलिए प्रज्ञान को सूर्योदय होते ही चांद पर उतार दिया जाएगा। रोमांच का यह दिन 6 सितंबर 2019 निर्धारित किया गया है।
विश्व भर में सभी अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का दूरगामी लक्ष्य है मंगल पर इंसान को भेजना और वहां उसके रह सकने लायक एक स्थायी स्टेशन बनाना। वस्तुतः मंगल ग्रह पर जाने के लिए चांद पर जाना, वहां स्थायी स्टेशन बनाना और उसमें अंतरिक्ष-अनुसंधानियों को रखना भावी मंगल अभियानों के लिए एक रिहर्सल के समान है। माना जाता है कि पृथ्वी से इतर कहीं अन्यत्र इंसान बसेगा, तो वह जगह चांद नहीं, पहले मंगल ग्रह होगा।
दूर की बातें जाने दें। फिलहाल, अंतरिक्ष विज्ञानियों की नज़रें ‘चंद्रयान-2’ पर लगी रहेंगी क्योंकि इसकी सफलता ही भारत के भावी महत्वाकांक्षी अभियानों की सफलता सुनिश्चित करेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, विज्ञान विषयों पर लिखते हैं)