बिदेसिया शब्द सुनते ही भोजपुरी लोक कवि और नाटककार भिखारी ठाकुर के मार्मिक गीत की धुन सुनाई देने लगती है, जो शाश्वत पीड़ा को स्वर देता है। ठाकुर ने अपना प्रसिद्ध नाटक बिदेसिया 1912 में लिखा था। 1917 में यह पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ था। यह वह दौर था जब 19वीं शताब्दी का अंत और 20वीं शताब्दी की शुरुआत हो रही थी, तब रोजगार के लिए भोजपुरी भाषी क्षेत्र से बड़ी संख्या में पुरुष कलकत्ता या कहीं और पलायन कर रहे थे। भिखारी ठाकुर के गीत, जैसे ‘गवना कराके सैयां’ (नवविवाहिता का पति उसे गौना के तुरंत बाद छोड़ परदेस चला जाता है) और ‘पिया मोरा गइले परदेस’ वियोग की इसी साझी पीड़ा को व्यक्त करते हैं। गीतों का मूल स्वर, आर्थिक मजबूरियों के कारण अपने घर-जमीन से दूर जाने और पीछे छूटे प्रियजनों की व्यथा है।
विडंबना देखिए, आज यही बिदेसिया शब्द ‘विदेशी घुसपैठिया’ रूप में ढल गया है। पिछले कई साल से यह मुद्दा राजनीति में उठाया जाता रहा है। हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘डेमोग्राफिक चेंज’ (जनसांख्यिकीय बदलाव) की बात उठाई। उसके बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दोहराया कि घुसपैठियों की ‘पहचान, निष्कासन और निर्वासन’ उनकी सरकार की प्राथमिकता है। बिहार चुनाव के दौरान या उससे पहले ही चुनाव आयोग के एसआइआर अभियान से यह मुद्दा फिर से राजनैतिक मंच पर है। सवाल यह है, क्या यह विमर्श भी पुराने ‘बिदेसिया’ की तरह एक वियोग-गाथा है, एक राजनैतिक वादा जो जमीन पर पूरा नहीं होता? क्या है इस मुद्दे के मायने और क्या है सरकारी दावों की सच्चाई? घुसपैठ देश के लिए खतरा है, तो उन्हें निकाला क्यों नहीं जा रहा?
‘डिपोर्टेशन’ की नाकामी
शाह के कठोर ऐलानों के बावजूद, निर्वासन के सरकारी आंकड़ों पर नजर डालें तो यह केवल आक्रामक राजनैतिक बयान बनकर रह गई है।
निर्वासन डेटा (केवल बांग्लादेशी)
गृह मंत्रालय द्वारा संसद में दिए गए आंकड़ों के अनुसार, 2014-2022 के दौरान कुल 14,346 विदेशी नागरिकों को भारत से निर्वासित किया गया है। इस संख्या में वीजा उल्लंघनकर्ता, ओवर-स्टे करने वाले और सभी देशों के नागरिक शामिल हैं। अवैध घुसपैठियों का विशिष्ट डेटा इससे कहीं कम है।
इन आंकड़ों के अनुसार निर्वासन के मामले में, केंद्र में एनडीए की सरकार पिछली सरकार के प्रदर्शन की तुलना में बहुत पीछे है, क्योंकि आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक 2005-2013 के दौरान 80,000 से ज्यादा निर्वासन हुआ। यह स्पष्ट करता है कि ‘डिपोर्ट’ (निर्वासन) की नीति राजनैतिक हथियार है, न कि जमीनी स्तर पर लागू की गई प्रभावी कार्रवाई।
यह दर्शाता है कि विशाल सरकारी प्रक्रिया सिर्फ राजनीतिक विभाजन पैदा करने का माध्यम बनी, जिसका मुख्य उद्देश्य (निर्वासन) पूरा नहीं हो सका। असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा का एनआरसी को अस्वीकार करना (देखें बॉक्स) यह भी दिखाता है कि पार्टी के लिए यह मुद्दा सिर्फ एक राजनीतिक हथियार है, न कि निश्चित दस्तावेज।
पश्चिम बंगाल के लिए बड़ी चुनौती
भारत-बांग्लादेश सीमा की कुल लंबाई 4,096.7 किलोमीटर है। पश्चिम बंगाल इस सीमा का सबसे बड़ा और संवेदनशील हिस्सा (2,216.7 किमी) साझा करता है, जबकि असम लगभग 263 किमी साझा करता है। यह महत्वपूर्ण है कि गृह मंत्रालय पश्चिम बंगाल सीमा पर बाड़ लगाने का काम पूरा नहीं कर पाई है। बाड़ की कमी के बावजूद, घुसपैठ को सीमा पर ही वापस धकेलने (एक प्रकार का ‘डिलिशन’) के मामले में तृणमूल कांग्रेस शासित पश्चिम बंगाल ने भाजपा-शासित राज्यों को पीछे छोड़ दिया है।
दरअसल पश्चिम बंगाल सीमा पर ‘डिटेक्शन’ और ‘डिलिशन’ (पुशबैक) का आंकड़ा, भाजपा-शासित असम और त्रिपुरा के संयुक्त प्रदर्शन से लगभग चार गुना अधिक है। यह सरकारी डेटा इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि केंद्र सरकार की आक्रामक बयानबाजी के विपरीत जमीनी कार्रवाई में विपक्षी ममता सरकार के सीमा क्षेत्र ने बेहतर परिचालन सफलता हासिल की है। यानी भाजपा ने इसे सिर्फ मुद्दा बनाए रखा और जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं किया।
घुसपैठ के मुद्दे पर भाजपा के दावों की विफलता केवल निर्वासन के आंकड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि उसके सहयोगी दलों की निष्क्रियता में भी स्पष्ट दिखती है।

भाजपा के नेताओं की ‘डिटेक्ट, डिलीट और डिपोर्ट’ की घोषणाएं तब खोखली लगती हैं, जब उनके अपने और सहयोगी दलों के शासन वाले राज्यों में कार्रवाई की स्थिति इतनी निराशाजनक हो। मसलन, बिहार में नीतीश कुमार सरकार की इस मुद्दे पर उपलब्धि लगभग शून्य है। बिहार के किशनगंज जैसे जिले पश्चिम बंगाल से सटे हैं। वहां घुसपैठियों की पहचान के लिए कोई महत्वपूर्ण कार्रवाई नहीं की। एनडीए कई वर्षों तक सत्ता में रही है लेकिन घुसपैठ पर सरकार चुप्पी साधे रही है।
दरअसल 75 साल पहले ‘बिदेसिया’ गीत ने जिन पतियों के प्रवास का दर्द दिखाया था, आज ‘विदेशी घुसपैठिया’ का राजनैतिक विमर्श उसी डर को धार्मिक आधार पर भुनाने का काम कर रहा है। ऐसा लगता है कि एनडीए सरकारों ने घुसपैठ की समस्या को हल करने के बजाय उसे राजनैतिक जुमलेबाजी में बदल दिया है।

यदि घुसपैठियों की संख्या वास्तव में लाखों में है, जैसा कि राजनैतिक रूप से दावा किया जाता है, तो निर्वासन का आंकड़ा भी लाखों में होना चाहिए। लेकिन सरकारी आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। दरअसल यह एक ऐसी रणनीति है, जो जनसांख्यिकीय बदलाव का मुद्दा उठाकर किसी समुदाय विशेष के बीच भय की भावना को बढ़ावा देती है, जबकि जमीनी कार्रवाई में हल्ला मचाने वाले दल की यानी सरकार की उपलब्धि शून्य है। इस मुद्दे को हमेशा चुनाव के वक्त ही थैले से बाहर निकाला जाता है, ताकि इससे वोट बटोरे जा सकें। इसके बाद सरकार को खुद पता नहीं होता कि इसका करना क्या है। इसके विपरीत विपक्षी दलों द्वारा बेहतर प्रदर्शन किया गया है। उन्होंने घुसपैठ पर ज्यादा काम किया है। स्पष्ट है कि यह मंत्र एक प्रभावी सुरक्षा नीति नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली चुनावी नैरेटिव है, जिसे भारत की राजनीतिक विडंबनाओं को दर्शाने के लिए हर चुनाव में पुनर्जीवित किया जाता है।
दावे-इरादे में जमीन-आसमान का फर्क
एनआरसी: पहचान का प्रयास न्यायिक उलझन में फंसा। असम एनआरसी के आंकड़े और हकीकत में फर्क दिखा
पहचान: अंतिम मसौदे से बाहर हुए 19.06 लाख लोग।
निष्कासन की स्थिति: शून्य। नाम बाहर होने के बावजूद, कानूनी पेचों और बांग्लादेश द्वारा नागरिकों को स्वीकार न करने के कारण अब तक एक भी व्यक्ति को आधिकारिक तौर पर निर्वासित नहीं किया गया है।
सरकारी अस्वीकृति: असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने स्वयं इस एनआरसी को ‘दोषपूर्ण’ बताया और इसे खारिज करने की मांग की।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)