पिछले दिनों बिहार से एक खबर आई। एक परिवार को राशन की दुकान से गेहूं-चावल तो मिल गया, लेकिन उसके पास तेल खरीदने के पैसे नहीं थे। परिवार के मुखिया ने कहा, “सरसों तेल इतना महंगा हो गया है, कहां से खरीदें। चावल और आलू उबाल कर खाएंगे।” यह हाल सिर्फ इस परिवार का नहीं, बल्कि देश का 94 फीसदी कामगार वर्ग कमोबेश ऐसी ही परिस्थिति से जूझ रहा है। एक तो महामारी का दौर, ऊपर से महंगाई। हालात दिनोंदिन विकट होते जा रहे हैं। कोविड-19 के चलते डेढ़ साल में लाखों छोटी-मझोली कंपनियां बंद हुईं तो करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए। निकट भविष्य में नए रोजगार की संभावना भी कम दिख रही है। वैसे तो महंगाई का असर हर वर्ग पर हो रहा है, लेकिन जिनकी कोई नियमित कमाई नहीं वे ज्यादा प्रभावित हुए हैं।
मई में खुदरा महंगाई 6.3 फीसदी पर पहुंच गई, जबकि सरकार ने रिजर्व बैंक को अधिकतम छह फीसदी का लक्ष्य दिया है। थोक महंगाई तो 12.94 फीसदी के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। 2014 में सत्ता में आने से पहले भारतीय जनता पार्टी के लिए महंगाई बहुत बड़ा मुद्दा थी, लेकिन अब उसके लिए शायद यह चिंता की बात नहीं। इसलिए पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन कहते हैं, “देश को अभूतपूर्व संकट का सामना करना पड़ रहा है। इसका असर अर्थव्यवस्था पर भी दिखा है। यह सकारात्मक भूमिका निभाने का समय है।” लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं का रवैया तो बड़ा ही असंवेदनशील है। छत्तीसगढ़ के भाजपा विधायक बृजमोहन अग्रवाल ने एक बयान में कहा, “महंगाई को राष्ट्रीय आपदा बताने वाले खाना बंद कर दें, पेट्रोल-डीजल खरीदना बंद कर दें तो दाम अपने आप नीचे आ जाएंगे।”
सत्तारूढ़ दल के इस रुख पर कांग्रेस सांसद और संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल कहते हैं, “सरकार की गलत नीतियों के कारण लोग 15 महीने से कोविड की मार से जूझ रहे हैं। उन्हें सही समय पर दवाइयां और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलीं। गिरती अर्थव्यवस्था और घटते रोजगार के बावजूद सरकार ने लोगों की कोई आर्थिक मदद नहीं की। उलटे उन पर महंगाई का बोझ बढ़ा दिया है।”
हाल के दिनों में खाने-पीने की महंगाई तेजी से बढ़ी है। तेल, अंडा, मांस, मछली जैसे प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों के दाम काफी बढ़े हैं। खाद्य तेल तो साल भर में 50 फीसदी से ज्यादा महंगा हो गया है। दाल और दूसरी चीजें भी महंगी हुई हैं (देखें टेबल)। जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार बताते हैं, महंगाई दर की बास्केट सबके लिए अलग-अलग होती है। जैसे औद्योगिक श्रमिकों के लिए अलग, कृषि श्रमिकों के लिए अलग, क्योंकि सबकी खपत का तरीका भिन्न होता है। वे कहते हैं, “जो जितना गरीब होता है, उसके बास्केट में खाद्य पदार्थों का हिस्सा उतना अधिक होता है। इसलिए जब खाद्य महंगाई बढ़ती है तो गरीब सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। हाल के दिनों में खाद्य पदार्थों की महंगाई बढ़ने का असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर बहुत बुरा असर पड़ा है।”
पिछले साल महामारी की पहली लहर के दौरान दुनियाभर में कमोडिटी के दाम कम होने के कारण थोक महंगाई में गिरावट आई थी। लेकिन उसके बाद लॉजिस्टिक्स, ट्रांसपोर्टेशन आदि का खर्च बढ़ने से उपभोक्ता के स्तर पर कीमतें बढ़ गई थीं। इस साल महंगाई की शुरुआत थोक स्तर से ही हो रही है। चाहे वह खाने-पीने की चीजें हों, ईंधन हो या दूसरे सामान। पर्सनल केयर, स्वास्थ्य, घरेलू सामान, कपड़े, शिक्षा सब महंगी हो गई हैं। लोगों के पास बचत के पैसे का इस्तेमाल करने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार पिछली तिमाही में 159 जिलों के लोगों ने फिक्स्ड डिपॉजिट तोड़ कर पैसे निकाले। इससे पहले यह औसत 30 से 40 जिलों के बीच रहता था।
एसबीआइ रिसर्च के मुताबिक दूसरी लहर में अलग-अलग जगहों पर लॉकडाउन होने से ग्रामीण इलाकों में सप्लाई चेन प्रभावित हुई है। इससे जरूरी चीजें महंगी हो रही हैं। इसका कहना है कि कोर महंगाई (खाद्य और ईंधन को छोड़ बाकी चीजों की महंगाई) दर में निकट भविष्य में गिरावट के आसार कम हैं। इसलिए सरकार को आपूर्ति सुधारने पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह रिजर्व बैंक के नियंत्रण में नहीं है। महंगाई कम करने के लिए रिजर्व बैंक ने ब्याज दरें बढ़ाईं तो अर्थव्यवस्था की रिकवरी धीमी हो जाएगी। प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “हमें अर्थव्यवस्था को फिर से गतिशील बनाना है। लेकिन दाम बढ़ जाएंगे तो रिवाइवल तेज नहीं हो सकेगा। जब मांग तेजी से नहीं बढ़ेगी तो अर्थव्यवस्था की रफ्तार भी सुस्त होगी। सरकार अगर अप्रत्यक्ष करों में कटौती करे तो उससे दाम कम होंगे और मांग बढ़ेगी। तब इंडस्ट्री भी उत्पादन बढ़ा सकती है।”
खाद्य महंगाई तो सप्लाई की दिक्कतों के कारण बढ़ी है, लेकिन दाम बाकी चीजों के भी बढ़े हैं। बीते एक साल में विश्व बाजार में कमोडिटी के दाम 50 से 80 फीसदी तक बढ़ गए। इससे कंपनियों का मार्जिन कम हुआ है। इंडस्ट्री के विशेषज्ञों के अनुसार कंपनियों ने लागत बढ़ने का 60 फीसदी बोझ ही उपभोक्ताओं पर डाला है। आगे लॉकडाउन की सख्ती कम होने के साथ कंपनियां पुराने मार्जिन स्तर की ओर लौटते हुए उत्पादों के दाम बढ़ा सकती हैं। इससे आने वाले दिनों में महंगाई दर ऊंची रहने के आसार हैं। टीकाकरण बढ़ने के साथ सर्विस सेक्टर भी धीरे-धीरे सामान्य होगा तो सर्विसेज भी महंगी हो सकती हैं।
महंगाई को काबू में करने के लिए रिजर्व बैंक के पास भी सीमित उपाय हैं। उसके पास दो ऐसी जिम्मेदारियां हैं जो कई बार एक दूसरे के विपरीत हो जाती हैं। महंगाई को नियंत्रण में रखना और विकास दर बढ़ाना। अगर वह महंगाई नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरें बढ़ाता है तो उससे विकास दर प्रभावित हो सकती है। अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह जोखिम नहीं लिया जा सकता है।
पेट्रोल-डीजल का असर
कांग्रेस नेता वेणुगोपाल के अनुसार, भाजपा सरकार ने अब तक पेट्रोल पर 23.87 रुपये और डीजल पर 28.37 रुपये प्रति लीटर टैक्स बढ़ा दिया है। भारी-भरकम टैक्स के कारण ही देश के कई हिस्सों में पेट्रोल-डीजल 100 रुपये प्रति लीटर से भी ऊपर पहुंच गया। सब जानते हैं कि पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ने का असर सभी वस्तुओं पर पड़ता है। वेणुगोपाल कहते हैं, “सरकार की गलत प्राथमिकताओं और जन विरोधी नीतियों का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कोरोना महामारी के 13 महीने में पेट्रोल की कीमत में 25.97 रुपये और डीजल में 24.18 रुपये की अभूतपूर्व बढ़ोतरी की गई।” वे कहते हैं, रसोई गैस की कीमतों में निरंतर वृद्धि, बढ़ती बेरोजगारी और सभी जरूरी वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों से आम जनता परेशान है।
लेकिन महंगाई के सवाल पर भाजपा के शाहनवाज अर्थव्यवस्था में सुधार की बात बताते हैं। वे कहते हैं, “जिस तरह जीएसटी कलेक्शन बढ़ा है, उससे साफ है कि अर्थव्यवस्था सुधर रही है। मोदी सरकार की नीतियों का ही नतीजा है कि चीजें पटरी पर आ रही हैं। लोगों को पता है कि 100 साल के सबसे बड़े संकट से निपटने की अगर किसी में क्षमता है, तो वह प्रधानमंत्री मोदी में ही है। सरकार ने ठोस रणनीति के तहत दवा, ऑक्सीजन, वैक्सीन सभी जरूरी चीजों की व्यवस्था की। उसी का परिणाम है कि कोरोना की दूसर लहर धीमी पड़ रही है।”
महंगाई घटाने के लिए प्रो. अरुण कुमार अप्रत्यक्ष करों में कटौती का सुझाव देते हैं। लेकिन जब सरकार के संसाधन पहले ही कम हैं तो वह अप्रत्यक्ष करों में कैसे कटौती कर सकती है। इस पर प्रो. अरुण कहते हैं, “सरकार को प्रत्यक्ष कर बढ़ाना चाहिए, इसका महंगाई पर कोई असर नहीं होता है।” उनका कहना है कि अभी मांग कम है तो सरकार घाटा बढ़ा कर भी मांग पैदा कर सकती है, इसका भी महंगाई पर असर नहीं होगा। जब मांग अधिक हो तब राजकोषीय घाटा बढ़ने पर महंगाई भी बढ़ेगी। लेकिन अभी तो मांग है ही नहीं। बैंकों के पास चार लाख करोड़ रुपये की सरप्लस नकदी है। बैंक यह पैसा रिजर्व बैंक के पास जमा करते हैं। सरकार कोविड बांड जारी करके यह रकम ले सकती है। इन दिनों शेयर बाजार में निवेश बढ़ा है तो सरकार कैपिटल गेन्स टैक्स भी बढ़ा सकती है। प्रो. अरुण के अनुसार अप्रत्यक्ष कर घटाने और प्रत्यक्ष कर बढ़ाने से आम आदमी और बिजनेस दोनों को फायदा होगा। कोविड-19 ने दिखाया है कि हमें साथ मिलकर चलना होगा, एक दूसरे की मदद करनी पड़ेगी, नहीं तो महामारी नहीं जाएगी। अगर यह लगातार बनी रही तो अमीर भी इसकी चपेट में आने से नहीं बचेंगे। इसलिए साथ मिलकर चलना ही महामारी की सबसे बड़ी सीख है।