आज बेरोजगारी देश में सबसे बड़ा मुद्दा है, जिसके खिलाफ युवा प्रदर्शन कर रहे हैं। साठ प्रतिशत लोगों की आमदनी घट गई है। किसानों की भी आय घटी है। माइक्रो सेक्टर में समस्या है, वहां अनेक उद्यम बंद हुए हैं। अभी जरूरत इस बात की थी कि कैसे इन सबकी मदद की जाए। निचले तबके के हाथ में पैसा आएगा तो मांग बढ़ेगी, उससे कंपनियों का क्षमता इस्तेमाल बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेंगे और अंततः विकास दर बढ़ेगी। लेकिन सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रही है। महामारी से पहले ही विकास दर लगातार घटती हुई 3.7 फीसदी पर आ गई थी। इसके बावजूद आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने साफ कहा कि वह सप्लाई बढ़ाने पर ध्यान देगी, मांग बढ़ाने पर नहीं। बजट में सरकार ने लंबी अवधि में विकास की बात कही है। लेकिन लंबी अवधि में आप तभी सफल होंगे जब अभी मजबूत होंगे। आज आप परेशानी रहेंगे तो आगे भी लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएंगे।
सरकार ने बजट का आकार बढ़ाया है, लेकिन कितना। 2021-22 के संशोधित अनुमान की तुलना में 2022-23 का बजट सिर्फ 4.6 फीसदी ज्यादा है और महंगाई दर 5.5 फीसदी के आसपास। दुनिया में कमोडिटी के दाम बढ़ रहे हैं, सप्लाई की दिक्कतें हैं। इसलिए महंगाई घटने के आसार नहीं हैं। महंगाई एडजस्ट करें तो अगले साल का बजट इस साल के बजट से भी कम होगा। बजट का आकार 10 फीसदी बढ़ता तो वास्तविक वृद्धि पांच फीसदी होती और मांग बढ़ती।
बजट में पूंजीगत खर्च 5.54 लाख करोड़ से 35 फीसदी बढ़ाकर 7.5 लाख करोड़ रुपये किया गया है। लेकिन मौजूदा वित्त वर्ष में तो नवंबर तक आधा पैसा भी खर्च नहीं हुआ। जब 5.5 लाख करोड़ रुपये ही खर्च नहीं कर पा रहे हैं तो 7.5 लाख करोड़ रुपये कैसे खर्च करेंगे।
गति शक्ति योजना में ज्यादा पूंजी खर्च वाले प्रोजेक्ट हैं। इनमें ज्यादा रोजगार नहीं निकलेगा। फ्रेट कॉरिडोर या हाइवे प्रोजेक्ट में पहले सैकड़ों लोग काम करते थे। लेकिन भारी मशीनों के इस्तेमाल से लोगों की जरूरत कम हो गई है। यानी पैसा तो खर्च होगा, लेकिन रोजगार कम मिलेगा। वित्त मंत्री ने 400 वंदे भारत ट्रेन चलाने की बात कही है। लेकिन इसमें कम से कम 10 साल लगेंगे। पूंजी बहुल सेक्टर के लिए आवंटन बढ़ा है जबकि श्रम बहुल क्षेत्रों के लिए घटा है।
गांवों में रोजगार देने वाली स्कीम मनरेगा में आवंटन घटा दिया गया है (संशोधित अनुमान 98,000 करोड़ रुपये से 73,000 करोड़ रुपये)। गांवों में लोग काम न मिलने की शिकायत कर रहे हैं। प्रति व्यक्ति 100 दिन के बजाय 50 दिन या उससे भी कम काम मिल रहा है। मांग देखते हुए सरकार को इस स्कीम में आवंटन तीन-चार गुना बढ़ाना चाहिए था।
आत्मनिर्भर भारत पैकेज में पांच साल में 60 लाख नौकरियां सृजित करने की बात है। यानी हर साल 12 लाख। यह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। हर साल जॉब मार्केट में डेढ़ करोड़ नए युवा आते हैं। सरकार ने हर साल दो करोड़ नौकरियों का वादा किया था। इस तरह 10 करोड़ नौकरियों का पहले ही बैकलॉग है।
कृषि के लिए आवंटन पिछले साल के बराबर है। महंगाई एडजस्ट करें तो नए साल में इसकी रकम भी कम हो जाएगी। यही स्थिति हेल्थ सेक्टर की है, जिसमें बड़े पैमाने पर रोजगार की गुंजाइश ज्यादा होती है। शिक्षा क्षेत्र में भी काफी रोजगार सृजित किए जा सकते हैं। लेकिन सरकार 200 टीवी चैनल के जरिए पढ़ाना चाहती है। यानी शिक्षकों की जरूरत नहीं है। सरकार में बहुत सारे पद खाली पड़े हैं, उन्हें ही भर लिया जाए तो अनेक लोगों को नौकरी मिल जाएगी।
बजट से फायदा सिर्फ बिजनेस को है। उन्हें डर था कि वेल्थ टैक्स फिर से लगेगा, इनकम टैक्स बढ़ जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं, इसलिए शेयर बाजार में तेजी दिखी। पीएलआइ स्कीम के जरिए भी उन्हें सब्सिडी दी जा रही है। इन्फ्रास्ट्रक्चर पर पीपीपी मोड में काम होगा तो पैसा उन्हें भी मिलेगा। यह वर्ग परेशानी में नहीं है। पिछले दो साल में उनका मुनाफा 22 फीसदी बढ़ा है। शेयर बाजार में तेजी से उनकी वैलुएशन भी काफी बढ़ गई है। फायदे में होने के बावजूद वे निवेश नहीं कर रहे थे, बल्कि उन्होंने अपना कर्ज कम किया है।
आम आदमी के लिए महंगाई को कम करना जरूरी था, उसके लिए कोई प्रावधान नहीं है। बजट में जीएसटी नहीं घटा सकते, लेकिन सरकार यह तो कह सकती थी कि वह जीएसटी काउंसिल में आम लोगों के इस्तेमाल की चीजों पर टैक्स रेट घटाने का प्रस्ताव लेकर जाएगी। पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज कम किया जा सकता था। सबसे तेज बढ़ने वाली इकोनॉमी होने के दावे का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि पहले हम सबसे तेज गिरने वाली इकोनॉमी थे। कमजोर आधार के कारण ही अभी विकास दर तेज दिख रही है। अभी तक हमारी जीडीपी 2019 के स्तर पर नहीं आई है।
जरूरत रोजगार पैदा करने और ऐसे उपायों की थी जिससे लोगों के हाथ में पैसा जाए। लेकिन इन बातों को तवज्जो नहीं दी गई है। बजट प्रावधानों से न लोगों की समस्या खत्म होगी, न अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटेगी। फोकस रोजगार बढ़ाने पर नहीं है, इसलिए समस्या और बढ़ेगी। आम लोगों के लिए महंगाई ज्यादा रहेगी और आमदनी कम। यानी उनकी परेशानी, हताशा और निराशा बढ़ेगी।
(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मैलकम आदिशेषैया चेयर प्रोफेसर हैं, जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रह चुके हैं। लेख एस.के. सिंह से बातचीत पर आधारित)