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“इतने बड़े संकट में भी केंद्र सरकार अपना एजेंडा चला रही है”

सरकार आपूर्ति बढ़ाने पर जोर दे रही है, लेकिन मांग बढ़ाने पर नहीं। सिर्फ आपूर्ति बढ़ाने से अमीर और अमीर होंगे, गरीब और गरीब हो जाएंगे
सीताराम येचुरी

लॉकडाउन से कोविड-19 महामारी को नियंत्रित करने में निश्चित रूप से मदद मिल रही है, लेकिन इस दौरान अनेक सामाजिक और आर्थिक समस्याएं भी उभरी हैं। प्रवासी मजदूर खाने और ठिकाने के लिए भटक रहे हैं, व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद हो रहे हैं, लाखों नौकरियां जा रही हैं। सरकार के अब तक के कदम कितने सही रहे, अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने के लिए क्या किया जाना चाहिए, इन सब मुद्दों पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के महासचिव सीताराम येचुरी से बात की आउटलुक के एस.के. सिंह ने। मुख्य अंश :

कोविड-19 के कारण बनी स्थिति से निपटने में सरकार के कदम को किस तरह देखते हैं?

जिस तरह की परिस्थिति पूरी दुनिया में है, उसे देखते हुए लॉकडाउन अनिवार्य था, लेकिन कई बातें गौर करने वाली हैं। भारत में पहला मामला 30 जनवरी को सामने आया, पर लॉकडाउन शुरू हुआ 24 मार्च को। इस दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की तरफ से जारी निर्देशों को देश में कहीं लागू नहीं किया गया। इसके विपरीत बड़े-बड़े आयोजन हुए। ‘नमस्ते ट्रंप’ हुआ, संसद चलती रही, (मध्य प्रदेश में) शपथ ग्रहण हुआ, तबलीगी जमात का आयोजन हुआ। सरकार की तरफ से देर से कदम उठाए गए। हमें जो लाभ मिलना चाहिए था, वह दुर्भाग्यवश इस देरी के चलते नहीं मिला।

लॉकडाउन से कोविड-19 से निपटने में कितनी मदद मिली?

लॉकडाउन के लिए भी तैयारी करनी चाहिए थी। लॉकडाउन से पहले केंद्र सरकार ने किसी भी राज्य से संपर्क नहीं किया। अचानक चार घंटे के नोटिस पर पूरे देश में लॉकडाउन कर दिया गया। लोगों को खाने-पीने या रहने का इंतजाम करने का समय ही नहीं मिल सका। इसी वजह से प्रवासी मजदूरों को लेकर समस्या हुई। उसके बाद केंद्र ने राज्यों से कह दिया कि आप इन मजदूरों को ठहराइए, उनके खाने का इंतजाम कीजिए। आपने पहले कोई सूचना नहीं दी, अगर पहले बताते तो राज्य सरकारें कुछ इंतजाम कर सकती थीं। इन मजदूरों के इंतजाम के लिए केंद्र ने राज्यों को कोई मदद भी नहीं दी।

लॉकडाउन में एक तो लोगों को काम नहीं मिल रहा, दूसरे उन्हें खाने-पीने की दिक्कत आ रही है। इससे कैसे निपटें?

हमने सरकार से कहा कि कहीं ऐसा न हो कि कोविड-19 से ज्यादा लोग भुखमरी के शिकार हो जाएं। इससे बचने के लिए सबको 7,500 रुपये का कैश ट्रांसफर दिया जाए। सरकार के पास 7.5 करोड़ टन गेहूं और चावल का भंडार है, इसे राज्यों को दिया जाना चाहिए ताकि वे उसे लोगों तक पहुंचाएं।

लॉकडाउन से कैसे निकला जाए?

आप मानें या न मानें, जिन देशों ने इस संकट का सफलतापूर्वक सामना किया है, वे समाजवादी देश हैं। चीन, वियतनाम और क्यूबा जैसे देश। इन देशों में लॉकडाउन के बाद टेस्टिंग करके यह पहचान की गई कि किन इलाकों में संक्रमण ज्यादा तेजी से फैल रहा है। उन इलाकों में लॉकडाउन जारी रखा गया और दूसरे इलाकों में इसे धीरे-धीरे हटाया गया। इस तरह वे इससे बाहर निकल रहे हैं।

केरल एक मॉडल बनकर उभरा है। वहां आपकी पार्टी की सरकार है। वहां राज्य सरकार ने कैसे काम किया?

भारत में पहला मामला 30 जनवरी को केरल में ही सामने आया था। राज्य सरकार ने दुनिया भर से मिल रहे संकेतों और डब्ल्यूएचओ के निर्देशों को देखते हुए 25 जनवरी से ही तैयारियां शुरू कर दी थीं। एक और बात, केरल ने कहा कि हम अपने यहां इस संकट को नियंत्रण में ले आए हैं और अब इससे बाहर निकलना चाहते हैं। तब केंद्र ने उसके खिलाफ सर्कुलर निकाल कर कहा कि आप ऐसा नहीं कर सकते, हमारे निर्देशों का पालन कीजिए।

स्वास्थ्यकर्मियों की तरफ से भी काफी शिकायतें आईं...।

कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ने की आशंका थी, इसलिए लॉकडाउन किया गया। जब आशंका थी, तो उससे लड़ने की तैयारी भी होनी चाहिए थी। डॉक्टर और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों के लिए पहले से पर्सनल प्रोटक्शन इक्विपमेंट (पीपीई) किट के बारे में क्यों नहीं सोचा गया? यहां तक कि मास्क की भी कमी हो गई। हमारे यहां टेस्टिंग किट की कमी है। चीन से जो किट आए, उनमें डिफेक्ट बताया जा रहा है। सवाल है कि जब किट आयात हो रहे थे, तब उनकी गुणवत्ता कौन जांच रहा था।

पीएम रिलीफ फंड था तो पीएम केयर्स फंड क्यों बनाया गया? सीएम रिलीफ फंड पर टैक्स छूट की सुविधा भी नहीं दी गई?

यह सवाल हमने भी किया कि जब पीएम रिलीफ फंड है तो यह नया फंड खोलने की क्या जरूरत पड़ी। सरकार कह रही है कि सीएसआर का पैसा पीएम केयर्स फंड में जा सकता है, लेकिन सीएम रिलीफ फंड में नहीं। हमने शुरू में ही इसका विरोध किया था। हमने कहा कि अध्यादेश के जरिए इस कानून में संशोधन कीजिए ताकि सीएसआर फंड का पैसा सीएम रिलीफ फंड में भी जाए। पीएम केयर्स फंड का पैसा भी राज्यों को नहीं दिया जा रहा है।

बात फैसले की हो या संसाधनों के वितरण की, संघीय ढांचे का कितना पालन हो रहा है?

मेरे विचार से तो संघीय ढांचे का पूरा उल्लंघन हो रहा है। जीएसटी के बाद राज्यों के पास राजस्व जुटाने के ज्यादा साधन नहीं रह गए हैं। जीएसटी की शेयरिंग का फॉर्मूला तय हुआ था और उसके हिसाब से जो बकाया बन रहा है, वह केंद्र सरकार राज्यों को नहीं दे रही है। स्वास्थ्य समवर्ती सूची में है। निर्णय केंद्र सरकार ले रही है लेकिन जिम्मेदारी राज्यों की बताई जा रही है। यह राज्य के अधिकार का एक तरह से उल्लंघन है। आज सबसे खराब स्थिति गुजरात और मध्य प्रदेश में है। महाराष्ट्र में संख्या सबसे ज्यादा है लेकिन वहां सरकार का कहना है कि गुजरात से काफी लोग आए हैं। सवाल है कि केंद्र की टीम सिर्फ दूसरी पार्टियों वाले राज्यों में क्यों जा रही है? इतने संकट में भी केंद्र सरकार अपना एजेंडा चला रही है।

अल्पसंख्यकों को लेकर अलग माहौल बन रहा है। ऐसी खबरें हैं कि लोग उनसे सामान नहीं खरीद रहे। इसके लिए किसे दोषी मानते हैं?

इस संकट में भी इस्लामोफोबिया शुरू हो गया है। खाड़ी के देशों में इसके खिलाफ बहुत ही कड़ी प्रतिक्रिया हो रही है। गुजरात के अस्पताल में हिंदुओं और मुसलमानों को अलग-अलग रखने की व्यवस्था कर दी गई। वहां कुछ अस्पतालों ने तो यहां तक कह दिया कि मुसलमानों का इलाज नहीं करेंगे। दूसरी तरफ उनके खिलाफ सीएए और अन्य मामलों में केस दर्ज किए जा रहे हैं। जामिया के छात्रों को गिरफ्तार किया गया। यहां भी सरकार अपना एजेंडा चला रही है। यह न व्यक्ति के हित में है, न देश हित में।

तबलीगी जमात को लेकर जो माहौल बना, उसके लिए किसे जिम्मेदार मानते हैं?

जब कोविड-19 फैल रहा था तब तबलीगी जमात को इस तरह का आयोजन नहीं करना चाहिए था। आयोजकों का फैसला गैर-जिम्मेदाराना था। लेकिन आयोजन की अनुमति किसने दी? सरकार को पता था कि इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देशों में कोविड-19 संक्रमण के मामले पाए गए, तब भी वहां के लोगों को वीजा दिया गया। उन्हें भारत में आने और देश में कहीं भी जाने की इजाजत दी गई। तबलीगी ने महाराष्ट्र में आयोजन के लिए आवेदन किया था लेकिन वहां की सरकार ने मना कर दिया। जब महाराष्ट्र सरकार ने अनुमति नहीं दी तो दिल्ली में कैसे अनुमति मिल गई। इस घटना का इस्तेमाल पूरी मुसलमान कौम को बदनाम करने में हो रहा है। इसका पूरी दुनिया में असर दिखेगा। दुनिया का सबसे बड़ा डायस्पोरा भारतीय मूल का ही है।

हेल्थ इमरजेंसी जैसी इस स्थिति में विपक्ष की भूमिका पर क्या कहेंगे?

विपक्ष के लिए ज्यादा गुंजाइश ही नहीं है। सोशल मीडिया या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए ही हम कुछ कह सकते हैं। हमने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी। पहले हम पत्र भेजते थे तो सरकार अगर अनदेखी करना चाहती थी तो भी एक-दो लाइन का पावती पत्र भेज देती थी। लेकिन अब वह भी बंद हो गया है। अभी विपक्ष के पास सुझाव देने के अलावा ज्यादा कुछ करने को नहीं है।

कोविड के कारण कई सेक्टर बंद पड़े हैं। जीडीपी का आकार घटने की आशंका है। रिवाइवल के लिए क्या किया जाना चाहिए?

अभी तक सरकार ने जो कदम उठाए हैं, वे विपरीत दिशा में हैं। सरकार आपूर्ति बढ़ाने पर जोर दे रही है, मांग बढ़ाने पर नहीं। लोगों के पास खरीदने की क्षमता नहीं है। जब तक लोग खरीदेंगे नहीं, तब तक मांग नहीं निकलेगी। जब मांग ही नहीं होगी, तो उत्पादन कौन करेगा। मांग बढ़ाने के लिए लोगों के हाथ में पैसे देने पड़ेंगे। सरकार अमीरों को टैक्स में छूट दे रही है, इस उम्मीद में कि उन पर टैक्स की देनदारी कम होगी तो वे ज्यादा निवेश करेंगे। वे उत्पादन बढ़ाएंगे तो उसे खरीदेगा कौन? सिर्फ आपूर्ति बढ़ाई जाएगी तो अमीर और अधिक अमीर होगा, गरीब और अधिक गरीब होगा। गरीबी बढ़ेगी तो मांग नहीं निकलेगी, और जब मांग नहीं होगी तो ग्रोथ भी नहीं होगी। कोविड-19 से पहले सरकार ने उद्योग को 2.15 लाख करोड़ रुपये की रियायतें दीं। सरकार अगर यह रकम सड़कें-नहरें बनवाने जैसे कामों में खर्च करती तो लाखों लोगों को काम मिलता। सरकार एसेट क्रिएशन पर निवेश करे और इसके जरिए लोगों के हाथ में पैसा दे। यही रिवाइवल का एकमात्र रास्ता है।

हर सेक्टर में लाखों में नौकरियां जाने की आशंका है। वेतन में भी कटौती हो रही है...।

सीएमआइई के अनुसार, बेरोजगारी दर 23.8 फीसदी पर पहुंच गई है। मई-जून में इसके 30 फीसदी तक जाने का अनुमान है। जब बेरोजगारी दर 30 फीसदी होगी तो मांग कैसे बढ़ेगी। कोविड के बहाने हर जगह छंटनी और वेतन में कटौती हो रही है। कंपनियों को इतने दिनों से मुनाफा हो रहा था, लेकिन अब एक महीने उन्हें नुकसान हुआ, तो वे छंटनी और वेतन में कटौती करने लगी हैं। कोविड-19 नहीं आता तो उन्हें यह मौका नहीं मिलता।

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