एस.एस. राजामौली की तेलुगु-तमिल द्विभाषी फिल्म बाहुबली: द बिगनिंग (2015) और उसकी सिक्वेल बाहुबली: द कनक्लूजन (2017) ने हर जगह बॉक्स ऑफिस के रिकॉर्ड तोड़ डाले। यह फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे हिट होकर उभरी। उसकी हिंदी डब फिल्म ने भी दुनिया भर में भारी कमाई की। अब वे जल्दी ही रिलीज होने वाली बहुभाषी आरआरआर लेकर आ हो रहे हैं, जिसमें तेलुगु सुपरस्टार एनटीआर जूनियर और रामचरण के साथ अजय देवगन और आलिया भट्ट जैसे बॉलीवुड सितारे भी हैं। गिरिधर झा ने इस 48 वर्षीय निर्देशक से बातचीत की, जिन्हें भारतीय सिनेमा में उत्तर-दक्षिण खाई को पाट देने का श्रेय सभी हलकों में दिया जाता है। संपादित अंश:
आरआरआर का ट्रेलर रिलीज होने के बाद से उसको लेकर चर्चाएं बेहद गरम हैं। अप्रत्याशित कामयाबी वाली बाहुबली शृंखला के बाद यह आपका पहला प्रोजेक्ट है। क्या इससे आप पर बेहिसाब बढ़ी उम्मीदों का अतिरिक्त बोझ है?
हां, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कर दिखाने का दबाव भारी है लेकिन हमें अपने प्रोजेक्ट पर भी पूरा भरोसा है। डर और भरोसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। बाहुबली से मैंने अपनी फिल्मों का ट्रेलर सीधे थिएटरों में रिलीज करने की आदत-सी पाल ली है। लोगों ने मुझे चेताया कि मैं अनेक ऑनलाइन व्यू खो बैठूंगा। आजकल व्यूज की संख्या बड़ी भारी चीज है। लेकिन मैंने कहा कि थिएटरों में देखने का रोमांच बहुत-बहुत ज्यादा है। मैंने कहा कि जो लोग ट्रेलर देखेंगे, वे इसे बार-बार ऑनलाइन देखेंगे। इसलिए हमने 360 स्क्रीन पर आरआरआर का ट्रेलर जारी किया। अगर आपने थिएटर में इसका ट्रेलर देखा होगा तो लोगों को रोमांच में चीखते-चिल्लाते देखा होगा। ट्रेलर ऑनलाइन रिलीज हुआ तो मैं मुंबई में एक मीटिंग में था। इसलिए 30-40 मिनट तक मैं इसका रिस्पांस नहीं जान पाया। फिर, मेरी टीम के लोग मीटिंग में दौड़े चले आए और कहा कि जरा देखो तो सही कि कैसी उत्तेजना चारों ओर फैली है। मैं इससे बहुत खुश हूं।
अपने पुराने रिकॉर्ड से यकीनन आप आरआरआर की सबसे बड़ी यूएसपी हैं, लेकिन आपकी राय में फिल्म की यूएसपी क्या है? यह आपके पहले की फिल्मों से कहां अलग है?
मेरी पहले की फिल्मों से कहानी एकदम अलग है, मगर भावनाएं वही हैं। मैं अपनी कहानी को दर्शकों के साथ कैसे जोड़ता हूं, वह तरीका भी वही है। मैं उम्मीद करता हूं कि वैसा ही कुछ आरआरआर के साथ भी होगा। इस फिल्म की यूएसपी दो महान स्वतंत्रता सेनानियों के बीच दोस्ती है, मगर यह पूरी तरह काल्पनिक है, इसमें ऐतिहासिक कुछ भी नहीं है।
आप अपने पूरे करिअर में महाकाव्य जैसी बड़ी फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं। लगता है कि आप छोटे बजट की कंटेंट प्रधान फिल्मों के मौजूदा दौर को उलटने की कोशिश कर रहे हैं। बड़ी फिल्मों के लिए आपकी पसंद की कोई खास वजह है?
मैं आदम कद से ऊंचे किरदारों और बड़े पैमाने की कहानियों से प्रेरित होता हूं। एक व्यक्ति के नाते मुझे उसी से प्रेरणा मिलती है। मैं वही कहानियां कह सकता हूं, जिससे मुझे कुछ एहसास होता है। मैं मार्केटिंग की स्थितियों पर गौर नहीं करता। मैं वही कहानियां लिखता हूं, जो मेरे मन में फिल्म बनाने का दबाव बनाती हैं। जब कहानी लिख ली जाती है, तब बात आती है कि मैं कैसी फिल्म बनाना चाहता हूं और उसका बजट क्या हो, वगैरह-वगैरह। क्या मैं कोई क्षेत्रीय फिल्म बनाऊं या ऐसी फिल्म जो सभी सीमाएं तोड़ दे, जहां भाषा का कोई महत्व न हो? मैं इन सभी पहलुओं पर बाद में गौर करता हूं। जब मुझे लगता है कि मेरे प्रोजेक्ट में सीमाओं के पार जाने की ताकत है तो मैं और मेरी टीम यह तय करते हैं कि उसे कैसे सीमाओं के पार ले जाया जाए। दरअसल कहानी ही हमें इस बात की प्रेरणा देती है कि हम न सिर्फ फिल्म बनाएं, बल्कि उसकी मार्केटिंग भी उसी ढंग से करें।
लॉकडाउन के दौरान अनेक लोग अपने मोबाइल फोन पर फिल्में देखने लगे और कहा गया कि सिर्फ बाहुबली जैसी फिल्में ही दर्शकों को थिएटर तक ला सकती हैं.. ..
बेशक, सामान्य जिंदगी से ऊंची फिल्में ही दर्शकों को थिएटर तक खींचकर ला सकती हैं, मगर उन्हें यथासंभव बेहतरीन तरीके से बनाया जाना चाहिए। फिर, दर्शकों के साथ उनका भावनात्मक लगाव भी होना चाहिए। भड़कीले और लकदक गीत और सेट पर पैसा बहाने से ही आप दर्शकों में दिलचस्पी और अपनी फिल्म के प्रति प्यार जगाने की उम्मीद नहीं कर सकते। ऐसा संभव नहीं है। कोई खूबसूरत छोटी-बजट की फिल्म भी दर्शकों को थिएटर में खींच ला सकती है, जिसमें खूब हंसी-ठहाका हो। सिर्फ बड़ी फिल्में ही नहीं। दरअसल आप फिल्म में जितना ही लोगों से जुड़ाव स्थापित करेंगे, लोग थिएटर में उतना उमड़ पड़ेंगे।
तो, विशाल पैमाने पर बड़ी तड़क-भड़क से बनाई गई फिल्में ही हमेशा थिएटरों में दर्शकों को खींचेंगी?
एक वक्त वह था जब सर्कस का आकर्षण दुनिया भर में था लेकिन धीरे-धीरे उसका आकर्षण जाता रहा। लोगों की रुचि बदली और सर्कस चमक खो बैठा। दुनिया भर में दर्शकों की घटती संख्या की भरपाई करने के लिए लोग अपना बजट घटाने लगे। फिर, अचानक एक दिन एक सर्कस कंपनी ने पहले से बड़ा करने का तय किया। उसने पूरी तरह सर्कस का कायाकल्प कर दिया। वे मंच पर स्वीमिंग पूल ले आए और कहानियां कहने लगे। अपनी तमाम भव्यता के साथ वह बड़ा हिट हुआ और सर्कस में ऐसे जान डाल दी, जिसकी कल्पना नहीं की गई थी।
महामारी आई तो लोग छोटे परदे पर कंटेंट देखने को आदी हो गए, इसका मतलब यह नहीं है कि आप थिएटरों के लिए फिल्में न बनाएं। यह पूरी तरह गलत सोच है। मैं इसमें यकीन नहीं करता। लेकिन हां, आपने कहा कि अनेक लोग छोटे बजट की ओर मुड़ गए। मैं बतौर फिल्मकार बड़े की ओर जाने में यकीन करता हूं।
आपने आरआरआर में बॉलीवुड के बड़े सितारे अजय देवगन के साथ काम किया है। उनके साथ काम करने का आपका अनुभव कैसा रहा?
अद्भुत था। अजय देवगन सर बहुत ही व्यावहारिक हैं। शूटिंग के दौरान वे अपनी वैन में नहीं जाते; वे मेरे कैमरे के आसपास ही बैठे रहते। वे एक पेड़ के नीचे कुर्सी डालकर बैठे रहते और शूट के लिए मेरे बुलाने का इंतजार करते। जब भी मैं उनकी ओर देखता, वे हाथ खड़े करके पूछते कि उनकी जरूरत तो नहीं है। मुझे उन्हें सेट पर लाने के लिए असिस्टेंट डायरेक्टर को भी भेजने की दरकार नहीं पड़ी। वे अक्सर किसी दृश्य का रिहर्सल करते और पूछते कि क्या मैं कुछ अलग ढंग से चाहता हूं। उनके साथ काम करना बेहद आसान था। मैंने कभी महसूस ही नहीं किया कि वे बॉलीवुड के स्टार हैं। मुझे लगा कि किसी आम एक्टर के साथ काम कर रहा हूं। कोई हूं-फां नहीं। ऐसा कुछ भी नहीं था।
आलिया भट्ट के बारे में क्या कहेंगे?
ऐसा ही कुछ आलिया भट्ट का रवैया भी था। वे तैयार होकर आतीं और तेलुगु की लाइनें भी खुद बोलना चाहतीं। शूटिंग के दौरान उन्होंने अभ्यास किया और कहा कि तेलुगु की लाइनें सिखाने के लिए कोई ट्यूटर मुहैया करा दें। उन्होंने करीब आठ-नौ महीने तक ऑनलाइन क्लास ली, अपनी लाइनों को याद कर लिया। उन्होंने अपनी सभी लाइनें तेलुगु में बोली। वह गजब था। मैंने उनका काम अपने मॉनिटर पर देखा तो काफी खुश हुआ।
काम के ढर्रे के मामले में वर्षों से बॉलीवुड और दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग दो ध्रुव जैसे रहे हैं। हिंदी सिनेमा के उलट, दक्षिण को ज्यादा अनुशासित माना जाता रहा है। क्या अब हालात बदले हैं?
बिलकुल। दोनों ही उद्योग अब ज्यादा अनुशासित हैं, बस अपवाद सिर्फ मुझ जैसे फिल्मकार हैं, जो फिल्म पूरा करने में वर्षों ले लेते हैं। लेकिन, हिंदी और दक्षिण भारतीय सिनेमा दोनों में गैर-अनुशासित प्रोडक्शन हाउस हैं। हां, सभी इंडस्ट्री में अच्छे वित्तीय अनुशासन वाले प्रोडक्शन हाउस भी हैं। सभी इंडस्ट्री में हर तरह के हालात हैं, चाहे उत्तर हो या दक्षिण।
दशकों से कई दक्षिण भारतीय हिट फिल्मों के हिंदी में रीमेक बने, लेकिन कुछ ही मूल फिल्म से न्याय कर पाए। इसकी वजहें क्या हैं?
दरअसल एक वक्त था जब काफी तेलुगु फिल्मों के रीमेक हिंदी में बने। एक इंडस्ट्री से दूसरी में हमेशा रीमेक बने, लेकिन ज्यादातर मूल फिल्मों के भाव नहीं पकड़ पाए, चाहे वह हिंदी में हो या तेलुगु में। अगर आप मूल काम की भावना समझे बगैर फ्रेम-दर-फ्रेम रीमेक करते हैं या आप महज नकल तैयार करते हैं। इससे दर्शक नहीं जुड़ पाएंगे। आपको समझना पड़ेगा कि क्यों मूल फिल्म कामयाब हुई। उसकी भावना को पकड़ने की कोशिश की जानी चाहिए। कई फिल्मकार यह समझते हैं और कई नहीं समझते।
बाहुबली बनाते वक्त आपको क्या एहसास था कि आप दुनिया भर के दर्शकों को अपील करने वाला प्रोजेक्ट बना रहे हैं या आप सिर्फ दक्षिण भारतीय दर्शकों के बारे में ही सोच रहे थे?
मैं फिल्म के सार्वभौमिक अपील को लेकर बेहद सजग था, क्योंकि यह फैसला पटकथा के स्तर पर ही ले लिया गया था। मैं तय कर चुका था कि किसी भी मायने में हम क्षेत्रीय नहीं होंगे क्योंकि सिर्फ एक ही लाइन हमारे लोगों को पसंद आती है। अगर वह दूसरों में भाव नहीं जगाती है तो मैं उसे कभी नहीं करता। मैं हर लाइन हर दर्शक वर्ग को लुभाने के लिए नहीं बदलता।
कमल हासन, रजनीकांत जैसे दक्षिणी इंडस्ट्री के कई सुपरस्टार बॉलीवुड में कामयाबी नहीं दोहरा पाए। लेकिन दक्षिण के कई फिल्मकारों को हिंदी सिनेमा में काफी कामयाबी मिली। आपका क्या कहना है?
यह मुश्किल सवाल है। कामयाब होना शायद फिल्मकारों के लिए आसान चीज हो सकती है, बशर्ते, जैसा कि मैंने पहले कहा, उनकी लिखी कहानियां सार्वभौमिक हों। ऐसा होने पर सभी जगह काम करेगी। यह बेहद आसान सा मामला है। लेकिन कमल हासन और चिरंजीवी की कुछ फिल्में तो राष्ट्रीय स्तर पर चलीं। हो सकता है उनकी बाद की फिल्में सार्वभौमिक अपील वाली न हों।
बॉलीवुड में इसे रमेश सिप्पी सिंड्रोम कहा जाता है। शोले (1975) के बाद हर कोई उनसे शोले जैसी दूसरी फिल्म बनाने की उम्मीद कर रहा था। लेकिन लगता है, आप तो अपनी हर फिल्म से आगे निकल जा रहे हैं। कैसे आप संतुष्ट न हो जाने से बच पाते हैं?
मैं किसी तरह संतुष्ट नहीं हो सकता। मैं बहुत डरा रहता हूं। मेरे दिमाग में कोई तस्वीर उभरती है तो मैं उत्तेजित हो उठता हूं। लेकिन जैसे ही उस तस्वीर को स्क्रीन पर उतारने को तैयार होता हूं, बहुत डर जाता हूं। मुझे चिंता घेर लेती है कि मैं शायद वह संपूर्णता न पा सकूं जो मेरे दिमाग में है। ऐसे में लापरवाही घेर लेने का मौका होता है। मैंने मगधीरा बनाई तो एक हमदर्द ने मुझसे कहा कि हर आदमी चोटी पर पहुंचता है और चोटी पर पहुंचने के बाद अगले काम की गुणवत्ता गिरने लगती है। लेकिन आपको स्मार्ट बनना होगा और उस कामयाबी को आगे ले जाने में मददगार बनाना होगा। उसने मुझसे कहा कि मगधीरा (2009) के साथ मैं चोटी पर पहुंच गया, लेकिन जब मैंने उसके बाद एक छोटी फिल्म बनाने का ऐलान किया तो उसने कहा कि मैं ऐसा नहीं कर सकता। उसने कहा कि मुझे बड़े कामयाब हीरो को चुनना चाहिए, जिससे उसकी कामयाबी का मुझे फायदा मिले। उसने मुझे कई मिसालें दी। मैं यह सोचकर हैरान था कि मगधीरा मेरा चोटी का काम है, मैं तो यही सोच रहा था कि अभी तो शुरुआत की है। दिमाग में मैं बड़ी फिल्में तलाश रहा था और वे सज्जन कह रहे थे कि मैं चोटी पर पहुंच गया। कुछ समय तक काफी चिंतित रहा। लेकिन मुझे बड़ा सपना साकार करना था। मैं काम रोकने वाला नहीं था। मैंने मर्यादा रामन्ना (2010), मक्खी (2012) बनाई और फिर बाहुबली और आरआरआर।