लगभग आधी सदी से वंशी माहेश्वरी ने अपनी लघु पत्रिका तनाव के जरिए विश्व भर के मशहूर और कुछ कम मशहूर मगर बेहद महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अनुवाद से हिंदी के फलक को असीम बनाने में अनोखा योगदान दिया है। अनुवाद भी बड़े समर्थ रचनाकारों के हैं। पुस्तकाकार तीन खंडों के प्रकाशन के मौके पर हरिमोहन मिश्र ने उनसे इस सफर और मौजूदा परिदृश्य पर बातचीत की। प्रमुख अंश:
तनाव का यह काम हिंदी ही नहीं, तमाम भाषाओं में बिरला प्रयास है, शायद यह हिंदी संसार में बड़ा योगदान है। आप तनाव की यात्रा पर कुछ कहें।
तनाव का उद्भव विख्यात कवि चन्द्रकांत देवताले जी की वजह से हुआ। मैं उन दिनों कॉमर्स का विद्यार्थी था। उसी महाविद्यालय में वे व्याख्याता के रूप में आए। वे समकालीन कविता में जगजाहिर हो चुके थे। जब वे पियरिया आए तो यहां का कवित्त माहौल तुक-तान मुक्तकी वाला था। अधिकांश शिक्षक कविता गढ़ते थे। उनमें मैं भी था। यहां एक कवि छावनी थी। वहां से कविता के वायुमंडल में पूरा कस्बा सनसनाता रहता था।
देवताले जी के आने से पर्यावरण बदला। उन्हीं के घर पर कई लघु पत्रिकाओं को देखने का अवसर मिला। मेरी कविता का कायाकल्प होना शुरू हुआ और पत्रिकाओं से जीवंत रिश्तेदारी बनी। वे लगभग तीन वर्ष पिपरिया में रहे। वे चले गये लेकिन मन में पत्रिका का बीज बो गए। आखिर 1972 के दिसंबर में तनाव के पहले अंक का प्रादुर्भाव हुआ। पिपरिया में तब प्रिटिंग प्रेस दो-तीन ही थीं। वे पत्रिका को तो हाथ ही नहीं लगाते थे। खैर, बाबजूद इसके तनाव चल पड़ी। उन्हीं दिनों मूर्धन्य कवि जितेन्द्र कुमार का साथ मिला तो तराश और निखार आई।
कविता-केंद्रित असंख्य पत्रिकाएं आती-जाती रहीं। विचार आया कि क्यों न विश्व कविता को केंद्र में रखकर तनाव निकाला जाए। बस इसी जद्दोजहद में पहला विश्व कविता अंक जनवरी 1979 में आया। फिर पाब्लो नेरूदा को लेकर अंक। अब अनुवाद की विकराल समस्या सामने थी। ठान लिया था निकालूंगा तो अनुवाद पर नहीं तो दुकानदारी में लौट जाऊंगा।
इसी उधेड़बुन के दौरान गिरधर राठी जी (भैया) का पिपरिया आना हुआ (उनकी यह जन्मभूमि भी है)। उन्होंने योजनाएं बनाईं-बताईं और वे अनुवाद की इस शृंखला की ठोस कड़ी बने। उन्हीं के प्रयासों से प्रतिष्ठित अनुवादकों से अनुवाद मिलना शुरू हुए। राठी जी के प्रयासों से तनाव को प्राणवायु मिली। हालांकि मेरे नथुनों में जहां-कहीं से भी अनुवाद की गंध आती, मैं उसी दिशा में बौराया फिरता। इस प्रक्रिया में कई बार लताड़ा भी गया।
तनाव की इस अनोखी यात्रा में अशोक वाजपेयी ने हर तरह से सहकार किया, आर्थिक और रचनात्मक। समय-समय पर उन्होंने तनाव को संभाला है। उन्होंने जनसत्ता में अपने स्तंभ कभी-कभार में लिखा, ‘‘किसी प्रकाशक को चाहिए कि वह इस पत्रिका में प्रकाशित विश्व कविता के कवियों के संचयन आठ-दस जिल्दों में छाप दे।’’ कोई प्रकाशक नहीं आया लेकिन अशोक जी ने अपने वादे को पूरा किया। अभी तो तीन खंड आए हैं। आगे कितने प्रकाशित करेंगे, वे ही जानें। कोशिश यही है कि अंतिम सांस तक तनाव को आप सभी के सन्मुख रखता रहूं।
पुरानी और नई पीढ़ी के संघर्षों को किस तरह देखते हैं?
कालचक्र अनवरत है, हर काल की अपनी संपदा होती है, उसमें उतार-चढ़ाव-ठहराव आते-जाते हैं। पुरानी परंपरा (बहुत प्राचीन-अर्वाचीन की बात नहीं करूंगा) को मैं सठोत्तरी के आसपास देखना चाहूंगा। हमें अपने वरिष्ठ रचनाधर्मियों से जीवंत संवाद का अनूठा सौष्ठव मिलता था, अपनी शंकाओं और आशंकाओं की अर्हताएं होती थीं, चुनौतियों-संभावनाओं का जज्बा होता था, सकारात्मक-नकारात्मक संवेग होते रहे हैं। इस सुदीर्घ परंपरा में आलोचना, समीक्षा, आरोप-प्रत्यारोप होते थे। पोंगापंथी भी हुआ करते थे। वादों, संप्रदायों का कोलाहल भी चरम पर रहता था। लेकिन सराहने, समझने के खास माहौल की भी गुंजाइश बनी रही।
मेरे कहने का तात्पर्य यह हरगिज नहीं है कि मौजूदा पीढ़ी में इस तरह का कुछ नहीं है। हमारे समय में पढ़ाकूपन अद्भुत था, कौतुकी तो अभी भी जो बचे हैं, उनमें व्याप्त है। नई पीढ़ी बहुत जल्दी में है। इस जल्दबाजी में स्वाभाविकता का सौंदर्य बिखरता जा रहा है। बीज बोते ही फसल काटने की लालसा, ललक है। नई पीढ़ी से यही अपेक्षा है कि हो सके तो गहरी धुंध हटाकर आकाश को निर्मल बनाकर नीलेपन को बचा सकें तो बचा लें।
राजनीति के बदलते परिदृश्य में रचनाधर्मिओं की भूमिका को किस तरह देखते हैं?
राजनीति का पतनोन्मुख काल वर्षों से शुरू हो गया था, अब यह चरमोत्कर्ष पर है। आत्मचिंतन, आत्मसजगता, अंतर्निहित मानवीय मूल्यों में जो निरंतर अधोगति दिखाई देती है, वहां भाषा, शब्द हतप्रभ होकर अपनी अर्थवत्ता खो चुके हैं। खुलापन सीलन भरा तहखाना हो गया है। लगभग तीसेक वर्ष पहले समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने पिपरिया की आमसभा में कहा था, “पहले लोग देश बचाने के लिए कुर्सी लगा देते थे, अब कुर्सी बचाने के लिए देश लगा देते हैं।” यह आज अधिक प्रासंगिक है।
अब राजनीति वैचारिक संवादहीन विपन्नता से लबालब है। सौहार्द्र, सदाशयता, संवेदनशीलता, अपनत्व की जो सुदीर्घ परंपरा थी, वह विजर्सन के कगार पर है। बावजूद इसके उम्मीद, संभावना, कोशिश की ताप कभी ठंडी नहीं होगी। अभिव्यक्ति कितनी भी मुश्किल में हो लेकिन ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ तो उठाने ही पड़ेंगे।
राजनीति का ढांचा तो बदलता रहता है, उसका मूलभूत स्वभाव नहीं बदलता, लेकिन इस बार यह पूरा बदल गया। गांधीजी की लेकर जो फजीहत हुई है, वह संकीर्ण मानसिकता की पराकाष्ठा है। गांधीजी की प्रासंगिकता तो कालजयी है और रहेगी।
उन प्राणनिष्ठ रचनाधर्मियों के प्रसंग में कहना चाहूंगा, जो व्यवस्था के विरुद्ध ‘सत्याग्रह’ की तरह खड़े हैं, जो समग्ररूप से अपने को न्यौछावर कर इस व्यवस्था के विरोध में लिख रहे हैं, प्रेरणास्पद हैं।