लंबे समय से चल रहे किसान आंदोलन में, पिछले हफ्ते प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी बताती है कि इसमें महिलाओं की कोई जगह नहीं है। 1960 से ही इन पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। हालांकि, भारतीय किसान का चेहरा कैसा दिखता है, इस बारे में जागरूकता की कमी के कारण आज यह टिप्पणी आश्चर्यजनक है।
महिला किसान भारत के कृषि और इससे संबंद्धित क्षेत्रों की रीढ़ हैं। वे केवल खेत में फसल उगाने का ही काम नहीं करतीं, बल्कि पशुधन, मछली पालन, मुर्गी पालन और गैर-वनोपज जैसे अलग-अलग तरह के कई काम करती हैं। खेतों में वे बिना मशीन के हाथ से किए जाने वाले कठिन या हाड़-तोड़ काम करती हैं, खासकर धान की खेती में रोपाई, निराई और कटाई। अनुमानित रूप से उनमें, पशुधन 60 फीसदी और मत्स्य पालन में 13.5 मिलियन में से 32 फीसदी शामिल हैं।
लेकिन आंकड़े बहुत हद तक महिलाओं के काम की विविधता और गहनता को पकड़ने में विफल हैं। सांख्यिकीय रूप से, 2005 में, महिलाओं ने हमारे कृषि कार्य बल (एनएसएसओ 2004-5) में 40 प्रतिशत का गठन किया। 2017-18 (पीएलएफएस) में यह 30 फीसदी तक गिर गया, हालांकि महिलाओं की तुलना में ज्यादा पुरुष गैर-कृषि क्षेत्रों में चले गए।
महिलाओं के योगदान को क्यों कम किया गया है? एक तो यह इस पर निर्भर करता है कि हम किसे काम मानते हैं। हम केवल भुगतान किए गए काम की गणना करते हैं, तो ग्रामीण महिलाओं की कार्य सहभागिता दर (खेत और गैर-कृषि कार्य सहित) केवल 17.5 फीसदी (एनएसएस 2011-12) आती है। लेकिन घर के उत्पादन, स्व रोजगार और बेरोजगारी जोड़ने पर यह दर 64.8 फीसदी आती है।
दूसरा इसमें सामाजिक धारणाएं मायने रखती हैं। महिलाओं को किसानों के बजाय कृषि सहायकों के रूप में देखा जाता है, चाहे उनका योगदान कुछ भी हो। पुरुष गैर-कृषि काम करने लगता है और महिलाएं वास्तव में खेती संभालने लगती हैं, तब भी उनके काम को पहचान नहीं मिलती क्योंकि वे खेत की मालिक नहीं होतीं।
धारणा होती है कि महिलाएं आश्रित हैं और किसान के मरने पर ही उसे विरासत में जमीन मिलेगी। यह सोच भी उनकी पहचान को प्रभावित करती है। 2014 में किया गया मेरा ताजा शोध बताता है कि औसतन 9 राज्यों में सभी भूस्वामियों में से सिर्फ 14 फीसदी महिलाएं जमीन की मालकिन थीं, जो भूस्वामी ग्रामीण परिवारों में केवल 11 फीसदी (अग्रवाल आदि 2020) भूमि की मालिक हैं। 2005 के हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, जिसने बेटियों और बेटों को कृषि भूमि में समान अधिकार दिया, इसके बावजूद इन महिलाओं को बेटी के रूप में नहीं, पति के न रहने पर विधवा के रूप में जमीन मिली।
महिला किसानों को गृहिणियों के रूप में मानते हुए कृषि उत्पादकता में इसका परिणाम भी दिखता है। यहां तक कि जब वे प्रभावी रूप से खेतों का प्रबंधन कर रही होती हैं, तब भी महिलाएं पुरुष पक्षपाती माहौल से दो चार होती हैं जिनमें, क्रेडिट, नई तकनीक पर सूचना, परिपाटी, सिंचाई और बाजार शामिल है। प्रसार के नए तरीके भी उन्हें दरकिनार करते हैं। साइंस के एक अध्ययन में पाया गया कि सेलफोन के माध्यम से दी जाने वाली कृषि सूचनाओं ने भारत सहित पूरे देशों में अनुशंसित इनपुट को 22 फीसदी और पैदावार में 4 फीसदी की दर से अपनाने वाले किसानों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। लेकिन महिलाओं को इस विकास से लाभ मिलने की संभावना कम है क्योंकि कुछ ही महिलाओं के पास अपने मोबाइल हैं और यहां तक कि इनमें से कुछ ही के पास इंटरनेट है।
स्त्री-पुरुष भेद हमारी उत्पादकता और वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे। 2011 में, एफएओ ने वैश्विक सबूतों का विश्लेषण किया और पाया कि अगर महिला किसानों के पास जमीन और अन्य इनपुट के लिए पुरुषों के समान पहुंच हो, तो फसल की पैदावार 20-30 फीसदी ज्यादा हो सकती है और विकासशील देशों में कृषि विकास दर 2.5 से 4 फीसदी ज्यादा हो सकती है।
क्या इस पूर्वाग्रह को दूर किया जा सकता है? हां, काफी हद तक। महिलाएं समूहों में संयुक्त रूप से भूमि के पट्टे देकर या अपने छोटे भूखंडों की सम्मिलित कर, अपने श्रम और पूंजी को मिलाकर, लागत और लाभों को साझा करके खेती करें। समूह के रूप में वे नाबार्ड की संयुक्त देयता समूह योजना के माध्यम से क्रेडिट प्राप्त कर सकती हैं, स्केल इकोनॉमी से लाभ प्राप्त कर सकती हैं और मुनाफे के साथ अपनी उपज बेच सकती हैं।
केरल में मेरे शोध से पता चला है कि सैंपल वाले सभी महिला समूह के खेतों में औसतन प्रति हेक्टेयर उत्पादन का लगभग दोगुना और ज्यादातर पुरुषों द्वारा प्रबंधित व्यक्तिगत परिवार के खेतों की तुलना में प्रति खेत पांच गुना शुद्ध रिटर्न है। अधिकांश व्यक्तिगत खेत मालिकों के विपरीत मार्च 2020 में लगभग 31,000 समूह खेत कोविड लॉकडाउन में भी बच गए। केरल से परे (जहां 68,000 से अधिक महिलाओं के समूह फार्म हैं), गुजरात, बिहार और पश्चिम बंगाल में भी महिलाओं ने समूह खेती शुरू की है, जिसमें लाभ स्पष्ट दिख रहा है।
सैकड़ों महिलाएं, पुरुषों के साथ कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध में मौजूद हैं। देखा जाए तो पुरुषों की तुलना में उनका दांव कहीं ज्यादा बड़ा है क्योंकि ग्रामीण भारत में 73 फीसदी महिलाओं के मुकाबले केवल 55 फीसदी पुरुष खेती पर निर्भर हैं। अब महिला किसानों को उनका वाजिब हक मिलें।
(जीडीआइ, मैनचेस्टर विश्वविद्यालय, ब्रिटेन में विकास अर्थशास्त्र और पर्यावरण की प्रोफेसर)