अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजमिन नेतन्याहू और वहां के धुर दक्षिणपंथी तत्वों के लिए एक दैवीय वरदान बनकर आई है, जो ईरान से जंग पर आमादा हैं और फलस्तीन की ज्यादा से ज्यादा जमीनें कब्जाने की फिराक में हैं। नेतन्याहू ईरान में सत्ता परिवर्तन और उसके नाभिकीय कार्यक्रम पर पूरी तरह रोक लगाना चाहते हैं। अगर वे ऐसा न कर पाए तो ईरान के नाभिकीय ठिकानों पर हमला भी कर सकते हैं। जाहिर है, ऐसा वे अमेरिका की शह के बगैर नहीं कर पाएंगे, लेकिन सवाल है कि क्या ट्रम्प उन्हें इतनी छूट देंगे?
लगता है कि ईरान और इजरायल के बीच खुली जंग में ट्रम्प की दिलचस्पी नहीं होगी। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने लगातार दावा किया था कि उनके वाइट हाउस में रहते हुए चार साल में एक भी जंग नहीं हुई जबकि जो बाइडन जैसे "कमजोर" राष्ट्रपति ने अपनी नाक के नीचे दो युद्ध हो जाने दिए। महीने भर पहले जब इजरायल और ईरान में तलवारें खिंची हुई थीं, ट्रम्प ने ही इजरायल से ईरान के नाभिकीय ठिकानों पर हमले के लिए कहा था। अब वे राष्ट्रपति बन चुके हैं, तो शायद ऐसा खतरा न मोल लें क्योंकि इसके परिणाम भयावह हो सकते हैं। इसके बावजूद, ट्रम्प को लेकर कुछ भी पक्का कहना मुश्किल है। बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि उनके सलाहकार उन्हें क्या सलाह देते हैं और अब तक सुरक्षा मसलों पर उनकी टीम के बारे में कुछ भी साफ नहीं है।
अपने प्रचार अभियान के दौरान ट्रम्प ने कई बार कहा कि उन्होंने नेतन्याहू को सलाह दी थी कि जो करना है जल्दी करो। ट्रम्प खुद पर इस मामले में गर्व करते हैं कि वे युद्ध समर्थक नहीं हैं। वे यह भी दावा करते हैं कि जल्द ही वे यूरोप और पश्चिमी एशिया के युद्धों को रुकवा देंगे। ऐसा वे कैसे करेंगे, उन्होंने नहीं बताया है। फिर भी, बाइडन के जाने से नेतन्याहू खुश ही होंगे। दुनिया भले मानती हो कि नेतन्याहू को बाइडन की ठीकठाक शह मिली हुई थी, लेकिन हकीकत में नेतन्याहू के समीकरण बाइडन के साथ बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। वाइट हाउस से छन-छन कर बातें निकलती रही हैं कि इजरायली प्रधानमंत्री के बारे में बाइडन क्या सोचते हैं।
बीते कुछ हफ्तों में इजरायल को लेकर वाइट हाउस थोड़ा सख्त हुआ है और उसने मांग की है कि गाजा तक मानवीय राहत सामग्री पहुंचाने में इजरायल सहयोग दे। कब्जे वाले वेस्ट बैंक और गाजा में संयुक्त राष्ट्र की राहत कार्य एजेंसी यूएनआरडब्ल्यूए को प्रतिबंधित करने के इजरायली फैसले से भी वॉंशिंगटन खफा बताया जाता है। यह एजेंसी इस क्षेत्र में 1949 से काम करती आ रही थी। इसे सबसे पहले तब यहां भेजा गया था जब इजरायल राष्ट्र के गठन के बाद सात लाख फलस्तीनियों को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा था। अगर एजेंसी पर रोक लग गई, तो फलस्तीनी शरणार्थियों के लिए यह मारक साबित होगा और मानवीय आपदा को बढ़ाएगा। पश्चिमी मीडिया में आ रही रिपोर्टों के अनुसार अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन और रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन ने इजरायल से कहा है कि वह अमेरिका की बात माने या फिर नतीजा भुगतने को तैयार रहे। नतीजे का मतलब कुल मिलाकर इतना होगा कि अमेरिका उसे हथियारों की आपूर्ति बंद कर देगा, जिसके सहारे इजरायल अब तक लेबनान और गाजा में बम बरसाता रहा है।
गाजा पट्टी में शरणार्थी बस्ती
अब बाइडन सरकार अपने आखिरी दिनों में है और आगामी जनवरी में ट्रम्प का वाइट हाउस में प्रवेश हो जाएगा, तब नेतन्याहू को शायद थोड़ी राहत मिलेगी और वे अमेरिकी चेतावनी की उपेक्षा करने में खुद को समर्थ पाएंगे क्योंकि ट्रम्प उनसे सहानुभूति रखते हैं। यदि ऐसा हुआ, तो इजरायली मंसूबों को ताकत मिलेगी और वह अपनी सरहदों का विस्तार करते हुए फलस्तीन की जमीन पर ज्यादा से ज्यादा बस्तियां बसाएगा- न सिर्फ गाजा में, बल्कि वेस्ट बैंक में भी, जहां सशस्त्र यहूदियों ने आइडीएफ की मदद से धीरे-धीरे अपना कब्जा बढ़ाया है।
यह संभावना नहीं दिखती कि ट्रम्प द्विराष्ट्र के सिद्धान्त का समर्थन करेंगे, जिसमें इजरायल और फलस्तीन के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में होने की परिकल्पना की गई है। यह परिकल्पना ओस्लो संधि की पैदाइश है, जो ज्यादातर देशों के लिए एक औपचारिकता भर है। अब तक इस दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ है। नेतन्याहू और इजरायल में कई लोगों ने द्विराष्ट्र वाले समाधान को सिरे से नकारा है। सवाल उठता है कि फिर विकल्प क्या होगा? क्या ऐसी स्थिति जहां इजरायल हथियारों और सेना के बल पर गाजा के कुछ इलाकों पर राज करे और कब्जे वाले वेस्ट बैंक की बस्तियों को नियमित कर डाले? नेतन्याहू और उनके गठबंधन के समर्थक कट्टर यहूदी पक्ष तो यही चाहते हैं। हमास के नेता मारे जा चुके हैं, उसके ज्यादातर काडर भी या तो मारे जा चुके हैं या बुरी तरह जख्मी हैं। बावजूद इसके, आजादी का खयाल अब भी जिंदा है, तो हो सकता है कि हमास की राख से कुछ दूसरे लोग उठ खड़े हों और अपनी सैन्य श्रेष्ठता के बावजूद इजरायल आगे भी लड़ता ही रहे।
समस्या यह है कि नेतन्याहू ने अपनी भविष्य की योजनाओं को उजागर नहीं किया है। पिछले साल अक्टूबर में हमास के हमले के बाद गाजा और लेबनान में वैसे तो युद्ध के प्रति व्यापक समर्थन है लेकिन यह सिलसिला खत्म कहां होगा यह सवाल बहुत से लोग पूछ रहे हैं। क्या बचे हुए बंधक कभी लौटकर अपने घर आ पाएंगे? ऐसा लगता है कि सबने उन्हें भुला दिया है लेकिन उनके परिजन ही बस हमास और हिज्बुल्ला के ऊपर सैन्य फतह की आस लगाए बैठे हैं। बाइडन सरकार बंधकों को छुड़ाने पर काम कर रही थी लेकिन उसका नतीजा नहीं निकला क्योंकि न तो नेतन्याहू और न ही हमास के बचे-खुचे वार्ताकारों की इसमें कोई दिलचस्पी है। हमास स्वाभाविक रूप से यह चाहेगा कि अगर बंधक छोड़ जाएं तो उसके बदले में युद्धविराम का वादा भी उसे मिले।
इसलिए फिलहाल कुछ भी स्पष्ट नहीं है। फलस्तीनियों की ओर से देखें, तो वाइट हाउस में उन्हें किसी के होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, चाहे बाइडन हों, ट्रम्प या कमला हैरिस। वे जानते हैं कि चीजें जब बिगड़ेंगी, तो अमेरिका आखिरकार इजरायल के साथ ही खड़ा दिखेगा। वैसे तो हर अमेरिकी सरकार ने हमेशा इजरायल का समर्थन किया ही हे, लेकिन यह ट्रम्प की पहली सरकार में ही हुआ था कि अमेरिका ने अपना दूतावास तेल अवीव से यरूशलम स्थानांतरित कर इस प्राचीन शहर पर इजरायल की दावेदारी को मजबूत कर दिया था। यरूशलम यहूदियों और ईसाइयों दोनों की पावन भूमि है।
ट्रम्प के दामाद जैरेड कुश्नर अमेरिकी यहूदी हैं और उनका परिवार नेतन्याहू का करीबी है। ट्रम्प के पूर्व प्रशासन में कुश्नर वाइट हाउस में वरिष्ठ परामर्शदाता रहे थे। अब्राहम संधि को करवाने में उनका बड़ा हाथ था, जिसने कई अरब सरकारों के साथ कारोबारी और कूटनीतिक रिश्तों की राह खोलकर इजरायली राष्ट्र को वैधता दिलवाने का काम किया था। इस संधि के पीछे मूल विचार एक ऐसा नया पश्चिम एशिया बनाना था जहां इजरायल का अपने अरब पड़ाासियों के साथ रिश्ता सामान्य रह सके। ट्रम्प और नेतन्याहू तो यही चाहेंगे, लेकिन गाजा और लेबनान पर इजरायली जंग की सूरत में अरब देशों के लिए फलस्तीनियों को भुलाना गवारा नहीं होगा।