हर साल बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात आदि राज्यों में बाढ़ की समस्या सामने आती है। जलवायु परिवर्तन की वजह से बारिश के पैटर्न बदले जरूर हैं, लेकिन यह आपदाओं की अकेली वजह नहीं है। नदियों के कैचमेंट एरिया (जलग्रहण क्षेत्र) की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। पहले बारिश के पानी को जंगल, घास के मैदान, वेटलैंड और तालाब रोक लेते थे। पानी को जमीन में रिसने का मौका मिलता था फिर यह पानी धीरे-धीरे नदी तक पहुंचता था। अब ऐसा नहीं हो पाता क्योंकि कैचमेंट की सेहत बिगड़ गई है। यही वजह है कि जितना भी पानी बरसता है, सीधे नदी में चला जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि अचानक बाढ़ आती है और नुकसान ज्यादा होता है।
इससे जुड़ा एक पहलू शहरीकरण भी है। शहरों में निर्माण कार्य के चलते, पेड़ के कटने और कई अन्य कारणों से तालाब और पोखर खत्म हो गए हैं। नदियों के किनारे अतिक्रमण बढ़ गया है। बांध से जुड़ी समस्या भी कम नहीं है। नदियों में सिल्टेशन (मिट्टी का जमाव) तेजी से बढ़ रही है। यह भी देखा गया है कि बांध प्रबंधन व्यवस्थित तरीके से नहीं हो पाता। भारत में बरसात से पहले ही बांध भर दिए जाते हैं यानी पानी रोककर छोड़ दिया जाता है। जब जरूरत होती है तब इसे एडजस्ट नहीं किया जाता। पंजाब और आसपास के बांध बरसात से पहले ही भर चुके थे और जैसे ही बारिश हुई पानी छोड़ना पड़ा। यह ठीक वही समय था जब पानी रोकना चाहिए था। लेकिन कुशल प्रबंधन की कमी से बड़ा नुकसान हुआ। जब पानी रहना चाहिए था, तब छोड़ दिया गया। इससे नीचे बाढ़ आ गई।
यह सच है कि वातावरण में बदलाव भी बाढ़ के खतरे को बढ़ा रहा है। बहुत हद तक यह बदलाव भी बाढ़ के लिए जिम्मेदार है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं और नदियों में अतिरिक्त पानी आ रहा है। इस वजह से पानी के अतिरिक्त बहाव की घटनाएं बढ़ रही हैं। इसमें हमें आपदा प्रबंधन की भूमिका को नहीं भूलना चाहिए। भारत अभी भी आपदा प्रबंदन के लिए पूरी तरह तैयार नहीं रह पाता। आपदा प्रबंधन की कमी से भी कई तरह की समस्या पैदा होती है। बचाव कार्यों में हम उस्ताद हैं, लेकिन रोकथाम और प्रबंधन में बेहद कमजोर हैं। हमारे पास स्पष्ट तैयारी, एकदम स्पष्ट निर्देश, एकदम सटीक कार्यप्रणाली की बहुत कमी है। अक्टूबर 2022 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने एक गाइडलाइन जारी की थी। अगर उस गाइडलाइन का पालन किया गया होता, तो बाढ़ इतने गंभीर रूप में न आती। बाढ़ के इतने गंभीर हो जाने के बाद भी शायद ही यह जवाबदेही तय हो कि आखिरकार गाइडलाइन का पालन क्यों नहीं किया गया।
सिक्किम में अक्टूबर 2023 में एक बांध, ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (ग्लोफ) की वजह से बह गया था। इस खतरे के बारे में 2006 से ही सरकार को बताया जा रहा था। लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। 2023 में जब बांध टूटा, तो उसे फिर से बनाने का काम सामान्य ढंग से शुरू कर दिया गया। ऐसा लगा ही नहीं कि हमने अपनी पिछली गलतियों से कोई सीख ली होगी। अगर तब ही जवाबदेही तय की जाती, तो यह वाकया नजीर बनता। जानकारी जुटा कर देख लीजिए कि आज तक कितने अफसरों पर बांध के गलत प्रबंधन को लेकर कभी कोई कार्रवाई हुई हो? ग्लोफ से बचने के लिए अर्ली वॉर्निंग सिस्टम क्यों नहीं लगाया गया, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि हम अपनी गलतियों से सीखना क्यों नहीं चाहते?
अमेरिका जैसे देशों में किसी हादसे के बाद स्वतंत्र असेसमेंट होता है, ताकि भविष्य में वही गलती न हो और नुकसान कम हो। भारत में ऐसा नहीं होता। यहां अधिकतर आपदाओं को ‘प्राकृतिक’ कहकर टाल दिया जाता है। 2017 में भाखड़ा नंगल बांध को लेकर लिखा गया था, 2017 और 2020 में सरदार सरोवर को लेकर कहा गया था कि गलत प्रबंधन से बाढ़ आई है, इसे रोका जा सकता था। 2023 में भी भाखड़ा पर सवाल उठे, लेकिन 2025 में फिर बाढ़ आई। सरकार चाहे कोई भी हो, ढर्रा वही रहता है।
हमारी भी कमी है। कई बार हम आवाज नहीं उठाते क्योंकि हमें पता है कि कोई नहीं सुनेगा। कुछ लोग जो आवाज उठाते भी हैं, तो उन पर ध्यान नहीं जाता। सिक्किम, महाराष्ट्र, केरल और पंजाब जैसी जगहों पर बाढ़, बांध के सही प्रबंधन न होने की वजह से आई है।
बांध के आंकड़े पारदर्शी होना चाहिए। सब कुछ जनता के बीच में होना चाहिए, जैसे बांध की क्षमता, इसमें कितना पानी इकट्ठा किया जा सकता है, कितना पानी बहाने की इसमें क्षमता है, यदि पानी बहाना ही पड़े, तो निचले इलाकों में कितना पानी झेलने की क्षमता है। स्टैंडर्ड ऑपरेशन प्रोसीजर (एसओपी) यानी मानक संचालन प्रक्रिया होनी चाहिए कि कितनी बारिश पर कितना पानी छोड़ा जाएगा। अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम का पूरा लेखा-जोखा होना चाहिए। बाढ़ की चेतावनी जारी करने वाले विभाग, केंद्रीय जल आयोग का काम किसी स्वतंत्र एजेंसी को देना चाहिए ताकि वह सरकारी दबाव से मुक्त होकर काम कर सके। बांध प्रबंधन के अच्छे उदाहरण भी हैं। सरदार सरोवर बांध में 2020 और 2021 में बाढ़ आई थी, लेकिन 2022 में नहीं आई। वजह थी, संचालन के तरीके में बदलाव।
भारत में भारी बारिश को अक्सर ‘क्लाउडबर्स्ट’ कहकर टाल दिया जाता है, लेकिन असल में क्लाउडबर्स्ट क्या है इसकी स्पष्ट परिभाषा और इसे मापने की व्यवस्था नहीं है। एक घंटे में 100 मिमी से अधिक बारिश को कई बार क्लाउडबर्स्ट कहा जाता है, लेकिन सटीक डेटा इकट्ठा करना मुश्किल है। जिला स्तर पर भी भरोसेमंद आंकड़े जुटाना कठिन है। क्लाउडबर्स्ट का पूर्वानुमान कठिन इसलिए भी है क्योंकि यह बहुत छोटे इलाके में बेहद तेज बारिश के रूप में होता है। मौसम विभाग के पारंपरिक रडार और उपग्रह इतने सूक्ष्म स्तर पर डेटा नहीं पकड़ पाते।
धराली में जो हुआ, वह सबको पता था। हमने इसके लिए आवाज भी उठाई थी। ऐसी संवेदनशील जगहों को पहचानने में दिक्कत क्या है? धराली में 2013 के आसपास भी ऐसी ही बाढ़ आई थी। वहां नदी की नई और पुरानी दो धाराएं हैं। पुरानी धारा लंबे समय से बंद थी, लेकिन जब भी पानी बढ़ता है तो वह धारा फिर सक्रिय हो जाती है। यह प्राकृतिक प्रक्रिया है। नई और पुरानी धाराओं के बीच बने घर बिलकुल असुरक्षित थे और बाढ़ में बह गए। क्या इसे रोका नहीं जा सकता था?
हमें जरूरत है एक नीति की। नदियों को बहने का रास्ता चाहिए और उस रास्ते पर कोई निर्माण नहीं होना चाहिए। अगर है तो उसे व्यवस्थित तरीके से हटाना चाहिए। पेड़ों की कटाई पर रोक और खनन पर नियंत्रण जरूरी है।
समस्या के हल में समाज की भूमिका भी उतनी ही जरूरी है। पंचायत स्तर पर बाढ़ सुरक्षा समितियां बन सकती हैं, जो स्थानीय तालाबों की सफाई, नालों की मरम्मत और अतिक्रमण की रिपोर्टिंग करें। स्कूलों और कॉलेजों में आपदा शिक्षा को अनिवार्य बनाया जाए ताकि आने वाली पीढ़ी सिर्फ राहत कार्य न सीखे, बल्कि रोकथाम को भी प्राथमिकता दे। नागरिक समाज की ओर से दबाव बने तो नीतियों में पारदर्शिता और जवाबदेही दोनों आ सकती हैं।
आखिरकार बाढ़ ‘अप्रत्याशित प्राकृतिक त्रासदी’ नहीं है। यह हमारे गलत फैसलों, लापरवाह नीतियों और ढीली जवाबदेही का नतीजा है। जब तक हम अपनी गलतियों को मानकर उनसे सीखना नहीं शुरू करेंगे, तब तक हर बरसात हमें वही पुराना सबक और नया नुकसान देती रहेगी।
(वरिष्ठ पर्यावरणविद और साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम, रिवर ऐंड पीपल के कॉर्डिनेटर)