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सेठों ने बनाया कंपनी राज को कामयाब

ईस्ट इंडिया कंपनी ने न सिर्फ धूर्त तिकड़म या बेहतर सैन्य बल से, बल्कि अपना साम्राज्य भारतीय सेठों और यहां की वित्तीय व्यवस्था की बदौलत भी कायम किया
ईस्ट इंडिया कंपनी का उत्थानः 1731 में हुगली नदी से फोर्ट विलियम, कलकत्ता का नजारा

हम अब भी यही कहते हैं कि अंग्रेज भारत में जीत गए, लेकिन इसमें एक कड़वी हकीकत छुप जाती है। दरअसल, 18वीं सदी के मध्य में ब्रिटिश हुकूमत ने नहीं, बल्कि एक खतरनाक इरादों वाली बेलगाम निजी कंपनी ने भारतीय भू-भागों पर कब्जा करना शुरू किया था। ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्यालय लंदन में पांच चौड़ी खिड़कियों वाले एक छोटे-से दफ्तर में था और भारत में उसकी कमान एक हिंसक, निर्मम और अस्थिर मानसिकता वाले कॉरपोरेट लुटेरे रॉबर्ट क्लाइव के हाथ थी। दूसरे शब्दों में कहें, तो भारत का उपनिवेशीकरण मुनाफा कमाने वाली एक कंपनी के तहत हुआ, जिसका एकमात्र मकसद अपने निवेशकों को समृद्ध बनाना था।

मैंने 2013 से छह वर्ष इस परिघटना के शोध पर लगाए हैं और इसका नतीजा, द एनार्की: द ईस्ट इंडिया कंपनी,  कॉरपोरेट वायलेंस ऐंड पिलिज ऑफ ऐन एंपायर के रूप में सामने आया है, जिसे हाल में ब्लूम्सबरी ने प्रकाशित किया। पुस्तक का लक्ष्य ईस्ट इंडिया कंपनी का संपूर्ण इतिहास लेखन नहीं है, यहां तक कि उसके कारोबारी गतिविधियों के आर्थिक विश्लेषण पर भी कम ही जोर है। इसके बजाय यह इस बुनियादी सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश है कि लंदन के छोटे-से परिसर के दफ्तर से संचालित इकलौती बिजनेस कंपनी कैसे 1756 से 1803 के बीच शक्तिशाली मुगल और मराठों को पछाड़कर विशाल उपमहाद्वीप का मालिक बनने में कामयाब हो गई।

इसके पहले इतिहासकारों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की हैरतनाक कामयाबी की कई वजहें बताई हैं। कंपनी ने 1740 के कर्नाटक युद्ध और 1803 में दूसरे एंग्लो-मराठा युद्ध तक दिल्ली पर कब्जा कर लिया और इस लगभग साठ साल की अवधि में कंपनी के भारतीय प्रतिस्पर्धियों को पछाड़ दिया। उनके मुताबिक, इसमें 18वीं सदी के मध्य में भारत को छोटे-छोटे हिस्सों में बंटने, मुगल उत्तराधिकारियों के बाद एक-दूसरे राज्यों से होड़ और होल्कर तथा सिंधिया घराने के बीच दुश्मनी वगैरह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा यह भी बेहद अहम था कि ईस्ट इंडिया कंपनी को ब्रिटिश संसद से समर्थन हासिल था। 18वीं सदी में कंपनी और संसद के बीच संबंध लगातार बढ़ते गए और अंततः यह उस रूप में बदल गया, जिसे आज हम सार्वजनिक-निजी साझेदारी कहते हैं। भारत में अकूत संपत्ति बनाने के बाद ब्रिटेन लौटे क्लाइव जैसों ने अपनी दौलत का इस्तेमाल सांसदों और संसदीय सीटों की खरीद-फरोख्त में किया। बदले में संसद ने राज्य की शक्तियों का इस्तेमाल कंपनी को मदद पहुंचाने में कियाः जैसे जीत हासिल करने के लिए जहाजों और सैनिकों की जरूरत की पूर्ति।

नए तकनीकी विकास से लैस सैन्य शक्ति ने यूरोपीय सैनिकों को जाहिर तौर पर सबसे आधुनिक बना दिया था। कर्नाटक के नवाब के सबसे बड़े बेटे महफूज खान ने 24 अक्टूबर 1746 को अड्यार नदी के मुहाने पर ( जो अब दक्षिणी चेन्नै है) नए भर्ती किए गए 700 फ्रांसीसी सिपाहियों को रोकने की कोशिश की। सिपाहियों का यह समूह किसी यूरोपीय कारोबारी कंपनी से आधुनिक सैन्य तकनीक का प्रशिक्षण हासिल करने वाली पहली भारतीय सैन्य टुकड़ी थी। उनकी सेना कुछ ही मिनटों में फाइल-फायरिंग और अहम ठिकानों पर हमला करने लगी, संगीनों से छर्रे निकलने लगे, जो भारत में पहले कभी नहीं देखा गया और इस तरह लगातार गोलीबारी की मदद से 700 सिपाहियों ने 10 हजार से अधिक मुगल घुड़सवारी दस्ते को परास्त कर दिया।

राजस्व का अधिकारः मुगल सम्राट शाह आलम ने इलाहाबाद में 1765 में लॉर्ड क्लाइव को दिवानी का अधिकार सौंपा। इस समझौते के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा (अब ओडिशा)में राजस्व संग्रह का अधिकार मिल गया

भारतीय इतिहास में अड्यार नदी की जंग एक अहम मोड़ साबित हुई। महज दो फ्रांसीसी सैनिक मारे गए, जबकि मुगल हताहतों की संख्या 300 से अधिक थी। भारत में पहली बार 18वीं सदी के यूरोपीय हथियारों की तकनीक का इस्तेमाल किया गया। इन हथियारों को फ्रेडरिक द ग्रेट के प्रशिया (1525 में अस्तित्व में आया ऐतिहासिक जर्मन राज्य) में विकसित किया गया। इसे फ्रांस और फ्लॉन्डर्स (बेल्जियम का डच भाषी उत्तरी हिस्सा) के जंग-ए-मैदान में परखा गया। यह जाहिर था कि भारतीय शस्‍त्रागारों में शामिल कोई भी हथियार उनका मुकाबला नहीं कर सकता था। हथियारों, तोपखानों और तुरंत फायरिंग करने वाले हथियारों की मदद पाने वाले प्रशिक्षित सिपाही अगली सदी के लिए भारतीय युद्ध में अजेय ताकत बन गए।

जब मराठा और मैसूर के सुल्तान तकनीकी रूप से सैन्य क्षमता हासिल करने की स्थिति तक पहुंचने लगे थे, तब भी 1760 के मध्य तक यूरोपीय हथियार अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में तकनीकी रूप से अधिक उन्नत बने रहे। भारतीय राज्यों को विदेशी सैन्य नवाचार, रणनीति और अनुशासन तक पहुंचने में लगभग 20 साल लग गए, जबकि इन्हीं खूबियों की वजह से ईस्ट इंडिया कंपनी को शुरुआती सफलता मिली थी। लेकिन इस बात के प्रमाण हैं कि 1765 तक उस अंतर को तेजी से पाटा जा रहा था: उस साल लंदन में डायरेक्टर्स ने लिखा, “बंगाल में और कोरोमंडल के तट पर यहां के मूल निवासी युद्ध कला के ज्ञान में जो प्रगति कर रहे हैं, उससे बहुत खतरनाक स्थिति बन रही है।” उन्होंने बंगाल काउंसिल से “किसी भी यूरोपीय अधिकारी या सैनिक को सरकार की सेवा में प्रवेश करने से रोकने के लिए” आग्रह किया और कहा, “अपनी शक्ति अनुसार उनमें सभी तरह के सैन्य सुधार के लिए हतोत्साहित करें।”

डायरेक्टर्स की चिंताओं को उस समय पूरी तरह से उचित ठहराया गया था, क्योंकि जनवरी 1779 में पुणे के ठीक बाहर तलेगांव की लड़ाई में महादजी सिंधिया की सेना ने बॉम्बे की ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना को घेर लिया और हरा दिया। इसके अगले साल हैदर अली और टीपू सुल्तान ने 26 अगस्त 1780 को पोलिलुर की लड़ाई में कंपनी पर पहले की तुलना में अधिक शानदार जीत दर्ज की। तब विलियम बैली के 3,800 सिपाहियों की बटालियन को पहले घेर लिया गया और फिर उसे खत्म कर दिया गया।

पोलिलुर के दो दिन बाद फोर्ट विलियम को आपदा के बारे में बताने के लिए मद्रास से कलकत्ता के लिए एक विशेष जहाज भेजा गया था। खबर 20 सितंबर को पहुंची। जब वारेन हेस्टिंग्स ने तबाही के बारे में सुना तो उन्हें तुरंत एहसास हुआ कि इस हार का मतलब क्या है? उन्होंने लंदन को लिखा, “हमारी सेना जो अभी तक जीतने की अभ्यस्त रही है, वह इस भयानक उलटफेर से आसानी से उबर नहीं पाएगी, न ही असफल कमांडरों के अधीन अपने पहले के विश्वास के साथ लड़ पाएगी।” लॉर्ड मैकार्टनी ने भी मद्रास से यही लिखा था, “भारतीयों में हमारे हथियारों का कम खौफ है। इसलिए हमारी अतीत की सफलता के आधार पर भविष्य के फायदों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।”

उसके बाद, यूरोपीय सैन्य रणनीति संसाधन जुटाने के मुकाबले कम महत्वपूर्ण हो गई और प्रशासन तथा कर जुटाने के नए तरीकों पर जोर दिया गया, जिससे कंपनी पल भर के नोटिस पर बड़ी रकम जुटाने में सक्षम हो गई। स्कार्लेट वर्दी (ब्रिटिश सैन्य वर्दी) और पल्लेडियन महलों के पीछे गवर्नमेंट हाउस में टाइगर शूट और पोल्का हमेशा कंपनी के एकाउंटेंट की बैलेंस शीट बिछाए रखते थे, जिसमें लाभ और हानि का और लंदन स्टॉक एक्सचेंज में कंपनी के उतार-चढ़ाव वाले शेयरों की कीमत का ब्योरा होता था।

लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी की सफलता का अनकहा रहस्य यह है कि उसे कई भारतीयों से मदद मिली थी। आखिरकार, 18वीं सदी की भारतीय अर्थव्यवस्था में जैन और मारवाड़ी बैंकरों का काफी दबदबा था। सच्चाई यह है कि ईस्ट इंडिया कंपनी वही भाषा बोल रही थी, जिसे भारतीय फाइनेंसरों ने समझा और उनके प्रतिस्पर्धी की तुलना में उन्हें अधिक भारतीय पूंजी की पेशकश की। अंत में, सारा खेल पैसे का बन गया। सदी के अंत तक, बंगाल ईस्ट इंडिया कंपनी को सालाना 2.5 करोड़ रुपये का राजस्व अधिशेष दे रहा था, जबकि महादजी सिंधिया मालवा में अपने क्षेत्रों से 12 लाख रुपये जुटाने के लिए ही जद्दोजहद कर रहे थे। हैरानी नहीं कि सिंधिया ने परेशानी को इस तरह जाहिर किया कि “धन के बिना किसी सेना को तैयार करना या युद्ध करना असंभव था।”

अंततः मराठा या मैसूर के सुल्तान नहीं, बल्कि यह ईस्ट इंडिया कंपनी थी, जिसकी मदद करने का फैसला पूरे भारत भर के फाइनेंसरों ने किया। और, यही वह बात थी, जिससे अंग्रेजी राज की स्थापना हुई।

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औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य में अराजकता बढ़ती गई, तो इसी दरम्यान बंगाल के मुगल गवर्नर मुर्शीद कुली खान ने दिल्ली को बंगाल का सालाना तोहफा (रकम) देने का नया तरीका खोजा। अब वह हथियारबंद सैनिकों की रखवाली में कारवां नहीं भेजता था। रास्ते अब उसके लिए महफूज नहीं रह गए थे। इसके बजाय, उसने ओसवाल जैन फाइनेंसरों के परिवार के क्रेडिट नेटवर्क का इस्तेमाल किया, जो मूल रूप से जोधपुर राज्य के नगर के मारवाड़ी थे। 1722 में बादशाह ने उन्हें ‘जगत सेठ’ की उपाधि से सम्मानित किया था।

बादशाहत के सबसे अमीर सूबे के शानदार मुर्शिदाबाद महल से टकसाल पर नियंत्रण, राजस्व संग्रह और हस्तांतरण के जरिए जगत सेठों ने खुद को गवर्नर के बाद दूसरा सबसे प्रभावशाली ओहदेदार बना लिया और शक्ति का केंद्र बन गए। उन्होंने जल्द ही 19वीं सदी के यूरोप में रॉथचाइल्ड परिवार (बेहद अमीर यूरोपीय परिवार, जिसने बैंकिंग क्षेत्र पर व्यापक प्रभाव हासिल किया था) की प्रतिष्ठा हासिल कर ली। इतिहासकार गुलाम हुसैन खान का मानना था कि “उनकी संपत्ति ऐसी थी कि जिसका जिक्र बिना किसी अतिरंजना और दंतकथाओं के नहीं हो सकता है।” एक बंगाली कवि ने लिखा, “जैसे गंगा सौ मुख से अपना पानी समुद्र में बहाती है, वैसे ही सेठों के खजाने में धन बहता है।”

दुश्मनीः महादजी सिंधिया के उत्तराधिकारी दौलत राव। इन्होंने अपनी सारी ताकत होल्कर से दुश्मनी निभाने में लगा दी थी

कंपनी के कमेंटेटर भी समान रूप से चकित थे। बंगाल को करीब से जानने वाले इतिहासकार रॉबर्ट ऑर्मे ने तत्कालीन जगत सेठ को “ज्ञात दुनिया में सबसे बड़े साहूकार और बैंकर” बताया। कैप्टन फेनविक ने ‘1747-48 में बंगाल के मामलों’ पर लिखते हुए, महताब राय जगत सेठ को “बेहद अमीर और लोंबार्ड स्ट्रीट (लंदन का बैंकिंग क्षेत्र) में बड़े बैंकरों की पहली पसंद” के रूप में बताया था। जगत सेठ बंगाल में शासकों के साथ-साथ किसी को भी बना या बिगाड़ सकते थे। वित्तीय मामलों की ही तरह उनकी राजनैतिक समझ भी अमूमन काफी बारीक थी। शुरू से ही ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने महसूस किया कि जगत सेठ अराजक भारतीय राजनैतिक माहौल में उनके स्वाभाविक सहयोगी हो सकते हैं और ज्यादातर मामलों में उनके हित मेल खाते थे। उन्होंने जगत सेठों की क्रेडिट सुविधाओं का नियमित और उदार लाभ उठाया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1718 और 1730 के बीच उनसे सालाना औसतन 4,00,000 रुपये उधार लिए। समय के साथ “परस्पर लेन-देन और पारस्परिक लाभ पर आधारित” इन दो वित्तीय दिग्गजों के गठजोड़ और इन मारवाड़ी बैंकरों तक उनकी पहुंच ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारतीय वित्तीय व्यवस्था में एक धारा दी, जिसने मूल रूप से भारतीय इतिहास को बदल दिया।

मार्च 1757 में, रॉबर्ट क्लाइव चंद्रनगर में फ्रांसीसियों को हराने के बाद अपनी सेना की मद्रास वापसी की तैयारी कर रहा था। उस वक्त जगत सेठों के दूतों ने उसे तख्तापलट में शामिल होने का लालच दिया। दरअसल, बैंकर बंगाल के नए नवाब सिराजुद्दौला को हटाने की योजना बना रहे थे। सिराज की सबसे बड़ी खामी बंगाल के इन बड़े बैंकरों को अलग-थलग करना था। जगत सेठों का तंत्र उनके दादा अलीवर्दी खान को सत्ता में ले आया और जो कोई भी उस क्षेत्र में काम करना चाहता था, वह उन्हें अपने पक्ष में रखता था। लेकिन सिराज ने जगत सेठ परिवार के दो लोगों के साथ इसके उलट किया, जो अब बैंकिंग हाउस के प्रभारी थे। उनमें एक महताब राय था, जो तत्कालीन जगत सेठ था और दूसरा था, उसका चचेरा भाई स्वरूप चंद, जिसे अलीवर्दी खान ने ‘महाराज’ का खिताब दिया था।

अपने शासन के शुरुआती दिनों में सिराज ने पूर्णिया में अपने चचेरे भाई से लड़ने के लिए सेना की तैयारी की खातिर बैंकरों को तीन करोड़ रुपये देने का आदेश दिया, जब महताब राय ने कहा कि यह असंभव है, तो सिराज ने उसे यातना दी। इतिहासकार गुलाम हुसैन खान के अनुसार, “सिराजुद्दौला राजधानी के प्रमुख नागरिक जगत सेठ के साथ अक्सर अपमानजनक व्यवहार करता था और कभी-कभी जान से मारने और खतना कर देने की धमकी देता था। उसके दिल से वह पूरी तरह उतर चुका था।” यह ऐसी गलती थी, जिससे आसानी से बचा जा सकता था और जिसके लिए बाद में पछतावा हुआ होगा कि जगत सेठों ने ही क्लाइव को उत्तर में आने और पलासी की लड़ाई में हमला करने के लिए रिश्वत देने की खातिर पैसे जुटाए। बंगाल में फ्रांसीसी कमांडर जीन लॉ ने लिखा था, “मैं साबित कर सकता हूं कि जगत सेठ (प्लासी) लड़ाई के जनक थे। ...उसके बिना अंग्रेज कभी भी ऐसा नहीं कर सकते थे। अंग्रेजों के हमले का कारण सेठ ही बने थे।”

1757 में कंपनी शासन की शुरुआत के बारे में जो सच था, वह आधी सदी बाद भी ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत के लिए सच था, तब 1803 में मराठा सेना ने आखिरकार उन्हें दिल्ली और मध्य हिंदुस्तान पर नियंत्रण दे दिया।

कंपनी का बढ़ता भारतीय साम्राज्य क्षेत्रीय शक्तिशाली समूहों और स्थानीय समुदायों के राजनैतिक और आर्थिक समर्थन के बिना हासिल नहीं किया जा सकता था। ईस्ट इंडिया कंपनी का महल उस नाजुक संतुलन पर टिका था, जिसे कंपनी व्यापारियों और तंत्र, अपने सहयोगी नवाबों और रजवाड़ों और सबसे बढ़कर उसके दब्बू बैंकरों के साथ बनाए रखने में सक्षम थी। ऋण के असीमित भंडार तक पहुंच की वजह से ही कंपनी अपने भारतीय प्रतिस्पर्धियों पर भारी पड़ती थे। ऋण तक उनकी पहुंच आंशिक रूप से भू-राजस्व से और आंशिक रूप से भारतीय साहूकारों और फाइनेंसरों के सहयोग के जरिए थी। अब बेहतर यूरोपीय सैन्य तकनीक और प्रशासनिक शक्तियों का ज्यादा मायने नहीं रह गया था। यह बड़े पैमाने पर वित्तीय संसाधन जुटाने और उसे स्थानांतरित करने की क्षमता थी, जिसने कंपनी को पूर्वी दुनिया में सबसे बड़ी और प्रशिक्षित सेना को तैयार करने में सक्षम बनाया।

उस दौर की सबसे बड़ी फर्मों में लाला कश्मीरी मल, रामचंद-गोपालचंद शाहू और गोपालदास-मनोहरदास शुमार थे। इनमें अधिकांश पटना और बनारस में रहते थे। अब ये  बड़ा नकदी लोन मुहैया कराने के साथ-साथ बॉम्बे या सूरत या मैसूर में बिलों के लेन-देन के जरिए कंपनी के सैन्य देखभाल की जिम्मेदारी संभालने लगे थे। यह सब कंपनी के सैनिकों के नियमित भुगतान, रखरखाव, हथियारों की आपूर्ति के जरिए संभव बनाया गया। कंपनी ने 1782 में उनकी इन अमूल्य सेवाओं के बदले उन्हें पुरस्कृत किया। कंपनी ने तब घोषणा की कि जगत सेठों की जगह गोपालदास का घर सरकार का बैंकर होगा। कंपनी के समर्थन ने उन्हें अपना कारोबार पश्चिमी भारत में फैलाने में मदद पहुंचाई, जहां पहले उसका नामोनिशान नहीं था।

जैसा कि रजत कांत रे ने सही लिखा है, “वाणिज्यिक ऋण की देसी प्रणालियों के संबंध में, कंपनी अपनी साख के मुताबिक बतौर अंतरराष्ट्रीय पूंजीवादी निगम भारतीय शक्तियों से बेहतर स्थिति में थी, क्योंकि कंपनी अपने ऋणों के भुगतान के विकसित तौर-तरीकों को समझती थी। इसके अलावा, उसे देश में उपलब्ध सबसे बड़े राजस्व अधिशेष के लिए भी जाना जाता था। साहूकारों से भी बड़े अनुबंध ऋणों को लिया जाता था।” कंपनी भारतीय व्यापारियों और फाइनेंसरों की स्वाभाविक सहयोगी मानी गई। हरिचरण दास ने लिखा कि कंपनी “किसी भी अमीर आदमी, बैंकरों और व्यापारियों की धन-संपत्ति और उनके शहरों में रहने वाले अन्य लोगों के मामले में हस्तक्षेप नहीं करती थी, बल्कि इसके उलट वह अमीर लोगों के प्रति दयालु थी।”

1798 में लॉर्ड वेलेस्ली के भारत आने के बाद कंपनी की सेना का तेजी से विस्तार हुआ। कुछ ही वर्षों में इसकी संख्या लगभग आधा बढ़कर 1,15,000 से 1,55,000 हो गई।  अगले दशक में इसकी संख्या 1,95,000 हो गई, जिससे यह दुनिया में यूरोपीय शैली की सबसे बड़ी सेना में एक बन गई और इसका आकार ब्रिटिश सेना का लगभग दोगुना हो गया। उसने मजबूत यूरोपीय और दक्षिण अफ्रीकी घोड़ों से लैस एक प्रभावशाली नई घुड़सवार सेना को भी भर्ती किया था। उनका काम धीमी गति से चलने वाले और भारी-भरकम पैदल सेना और तोपखाने को भारतीय घुड़सवारों के हमले से बचाना था। जैसा कि तलेगांव और पोलिलुर में घातक हमला हुआ था। यह युद्ध की एक ऐसी शैली थी, जिसमें मराठा विशेष रूप से कुशल थे।

नकदी के संकट से हमेशा जूझते वारेन हेस्टिंग्स के विपरीत लॉर्ड वेलेस्ली को इस व्यापक सैन्य शक्ति पर खर्च करने में कोई समस्या नहीं थी। कॉर्नवालिस के भूमि सुधारों के कारण ग्रामीण उथल-पुथल के बाद बंगाल में कंपनी को 2.5 करोड़ रुपये का सालाना राजस्व अधिशेष मिला। इसके विपरीत, सिंधिया को कम सिंचित अपने मालवा में केवल 12 लाख रुपये ही राजस्व मिल पाए। इस व्यापक राजस्व ने कंपनी को बंगाल के वित्त बाजार से ऋण लेने में सहूलियत पहुंचाई। इतना ही नहीं, वेलेस्ली के समय 1798 और 1806 के बीच भारत में कंपनी का ऋण तीन गुना से अधिक हो गया। कंपनी इन वित्तीय संसाधनों को कुशलता से पूरे भारत में पुनर्वितरित करने में भी सक्षम थी।

बनारस के बैंकरों और गोपालदास-मनोहरदास पश्चिमी तट पर स्थित घरों को कंपनी की सेना का संरक्षण दिया गया था। अब ऐसे प्रतिनिधियों को इसके साथ यात्रा पर भेजने लगे, जो सैनिकों और सेना के खजांची को जरूरी नकदी मुहैया कराते थे। असल में, भारत भर के बैंकरों ने कंपनी की सेना को आपूर्ति के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करना शुरू कर दिया। बनारस के दो बैंकिंग घरानों मन्नू लाल और बेनीप्रसाद ने यह आश्वासन मांगा कि कंपनी “उन्हें सेना के उपयोग के लिए जरूरी नकदी की आपूर्ति की अनुमति देने पर वरीयता के साथ सम्मानित करेगी।”

अंततः, ईस्ट इंडिया कंपनी युद्ध में सफल रही, क्योंकि इसने अपनी शक्तिशाली सेना के लिए एक सुरक्षित वित्तीय आधार देने का एक रास्ता खोज लिया था और हमेशा अपने भारतीय प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में सेठों, साहूकारों को मनाना ज्यादा आसान पाया। ताकि सेना के वेतन भुगतान और अपने सैनिकों की देखभाल के लिए नकदी की जरूरत को पूरा किया जा सके। इसके विपरीत, जैसा कि युवा आर्थर वेलेस्ले ने जिक्र किया है, “पूरे देश में एक भी मराठा नहीं है, जिसके पास अंग्रेजी मुद्रा हो। पेशवा घुड़सवारों की संख्या कम कर चुके थे।”

जैसा बर्टन स्टीन ने कहा था, “भारत की औपनिवेशिक विजय के लिए ‌िजतना लड़ा गया, उतना ही उसे खरीदकर हासिल किया गया।” और इसमें जिस वित्तीय व्यवस्था ने मदद पहुंचाई, वह भारत के जैन और मारवाड़ी बैंकरों से मिली। कंपनी के व्यापारी और उनके भारतीय बैंकर एक ही सुर में बोलते थे और जब दोनों ने 1750 के दशक से साथ मिलकर काम करना शुरू किया, तो नतीजा कंपनी राज की जीत थी।

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