राष्ट्रीय नायक की विरासत पर परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों का दावा करना कोई नई बात नहीं है। लेकिन 23 जनवरी को इसकी पराकाष्ठा देखने को मिली। उस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 124 वीं जयंती पर श्रद्धांजलि देने के लिए मंच तैयार था। इसके साथ पूरे साल चलने वाले समारोह की भी शुरुआत होनी थी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विक्टोरिया मेमोरियल हॉल में आयोजित होने वाले उस कार्यक्रम में मोदी के साथ मंच साझा करना स्वीकार किया था। उस मेगा शो में दूसरे सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होने थे। उस मंच से ममता अपना भाषण देने ही वाली थीं कि अचानक दर्शकों में ‘जय श्री राम’ के नारे लगने लगे। इस घटना ने कहानी को नया मोड़ दे दिया। मोदी ने अपने लंबे चौड़े भाषण में नेताजी की काफी प्रशंसा की थी, लेकिन इसकी बजाय ममता का उस मौके पर बोलने से इनकार करना सुर्खियों में रहा। घटना के बाद तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने भी इस नारेबाजी की निंदा की। उन्होंने कहा कि यह सिर्फ मुख्यमंत्री का अपमान नहीं बल्कि सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक और सांप्रदायिक राजनीति के प्रबल विरोधी नेताजी का भी अपमान है। जवाब में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने ममता पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाया और यहां तक कहा कि इतनी छोटी सी बात पर बोलने से इनकार करना नेताजी का अपमान है।
लेकिन जैसा कि बांग्ला अखबारों, न्यूज चैनल और वेबसाइट पर दिखा, इस घटना ने अनेक बंगालियों को नाराज कर दिया। हिंदुत्व की राजनीति का नेताजी ने जो विरोध किया था वह चर्चा का विषय बन गया। अगर बंगाल के ही कुछ वरिष्ठ भाजपा नेताओं की मानें तो प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी पूरे वाकये पर नाराजगी जताई है। चुनाव विश्लेषक बिश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, “उस कार्यक्रम में जय श्री राम का नारा लगाने वालों ने मोदी की अब तक की कड़ी मेहनत पर पानी फेर दिया है। जहां तक मुझे जानकारी है, प्रधानमंत्री ने भाजपा की प्रदेश इकाई से यह पता लगाने और उनकी निंदा करने को कहा है, जो नारेबाजी के पीछे थे।”
पश्चिम बंगाल के स्वतंत्रता सेनानियों में सबसे बड़ा नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस का है। भाजपा के लिए उनकी विरासत पर दावा करने जैसा कुछ भी नहीं है। बोस सांप्रदायिक राजनीति के कटु आलोचक थे। उन्होंने हिंदू महासभा को मुस्लिम लीग के समकक्ष रखा था। हिंदुत्व विचारक वी. डी. सावरकर के बारे में उनकी राय भी अच्छी नहीं थी। भाजपा के प्रमुख बंगाली आइकॉन श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में उनकी राय भी जगजाहिर है। बोस ने अपनी रचनाओं और भाषणों में मुस्लिम अलगाववाद के साथ हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति की भी आलोचना की है। उनका मानना था कि जो भी बड़े मुद्दे हैं, उनका सामना हर धर्म के लोगों को करना पड़ रहा है।
जब भाजपा ने पश्चिम बंगाल में 2017 से लोकप्रियता हासिल करना शुरू की, तभी से इसने एक बंगाली कट्टरपंथी आंदोलन को जन्म दिया। इस आंदोलन के सदस्य बंगाल को नेताजी की ऐसी भूमि बताते हैं जहां श्यामा प्रसाद मुखर्जी की विचारधारा के लिए कोई जगह नहीं दी गई है। इसके साथ यह विचारधारा भी साथ चलती रही कि गांधी और नेहरू जैसे कांग्रेस के नेताओं को बोस पसंद नहीं थे। नेताजी की रहस्यमई मौत की एक थ्योरी तो है ही।
मोदी ने पहले सरदार वल्लभभाई पटेल और फिर नेताजी की प्रशंसा शुरू की। इसका मतलब यह निकाला गया कि वे जवाहरलाल नेहरू की भूमिका को कमतर करना चाहते हैं। 2015 से ही उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया था कि नेताजी को उचित श्रेय नहीं मिला। मोदी चार वर्षों से नेताजी की प्रशंसा करते रहे हैं और इस तरह उन्होंने नेताजी की विरासत पर दावा करने का जैसे एडवांटेज पा लिया, भले ही राजनीतिक इतिहास इस तथ्य के विपरीत हो।
नेताजी की विरासत को लेकर तृणमूल कांग्रेस के भी अपने दावे हैं। पार्टी नेताजी से जुड़े उन गोपनीय फाइलों को सार्वजनिक करने की मांग लगातार करती रही है जो केंद्र सरकार के पास हैं। पार्टी के राज्यसभा सांसद सुखेंदु शेखर राय ने कई बार यह मुद्दा उठाया। ममता ने भी सितंबर 2015 में कुछ फाइलों को सार्वजनिक किया था और केंद्र को उसके पास पड़ी फाइलें सार्वजनिक करने की चुनौती दी थी। इसके एक महीने बाद केंद्र ने घोषणा की कि वह नेता जी से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक करेगा। मोदी की तरफ से अपने मुख्य राजनीतिक विरोधी, यानी कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक हथियार के तौर पर नेताजी का इस्तेमाल करने की यह शुरुआत थी।
ममता ने पिछले साल दिसंबर में नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी और कुछ बड़े संस्कृतिकर्मियों को मिलाकर एक समिति बनाने की घोषणा की थी। यह समिति नेताजी की 125वीं जन्मशती समारोह की योजना बनाएगी। इसके ठीक बाद केंद्र सरकार ने भी ऐसी ही एक समिति बनाई और ममता को भी उसका सदस्य बनाया।
सात दशकों से नेताजी के जन्मदिन 23 जनवरी को पूरे बंगाल में समारोह मनाया जाता रहा है। इस साल समारोह शुरू होने से पहले प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष नेताजी के बारे में मोदी के बयानों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे। एक फेसबुक पोस्ट में दिलीप घोष ने लोगों को याद दिलाया कि अक्टूबर 2018 में प्रधानमंत्री ने आजाद हिंद सरकार की 75वीं वर्षगांठ पर श्रद्धांजलि देने के लिए लाल किले में तिरंगा फहराया था। उसी साल दिसंबर में उन्होंने तिरंगा फहराए जाने की 75वीं वर्षगांठ पर अंडमान स्थित रॉस आईलैंड का नाम बदलकर नेताजी के नाम पर किया था। दिलीप घोष ने यह भी गिनाया कि 2020 में लाल किले में एक म्यूजियम का उद्घाटन किया गया था और आइएनए के वेटरन गणतंत्र दिवस परेड में आमंत्रित किए गए थे।
इस साल जनवरी में तृणमूल कांग्रेस के सुखेंदु राय ने केंद्र सरकार से आजाद हिंद फौज पर किताब प्रकाशित करने की मांग की। रक्षा मंत्रालय की पहल पर इस किताब का संपादन इतिहासकार पीसी गुप्ता ने कई दशक पहले किया था। राय का दावा है कि उन्हें एक गुमनाम पत्र मिला है। इसमें रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के बीच आधिकारिक नोट का जिक्र है जिससे पता चलता है कि किताब की पृष्ठ संख्या 186 से 191 में जो बातें लिखी गई हैं उनसे इस विचार को पुष्टि मिलती है कि नेताजी की मौत 1945 में विमान हादसे में नहीं हुई थी।
राय कहते हैं, “मैंने पिछले साल प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था। उन्होंने मेरे पत्र की पावती तो भेजी लेकिन दुर्भाग्यवश कोई काम नहीं हुआ।” इस बार भाजपा के राज्यसभा सांसद स्वप्न दासगुप्ता ने 21 जनवरी को एक ट्वीट में वही मांग दोहराई।
विक्टोरिया मेमोरियल में हुई घटना ने न सिर्फ मोदी बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की लय को बिगाड़ दिया है, जिसे उन्होंने बड़ी सावधानी के साथ इतने दिनों में बनाया था। उन्होंने इस जन धारणा का लाभ उठाया कि नेहरू और उनकी बाद की पीढ़ियों ने नेताजी के साथ न्याय नहीं किया है। प्रदेश भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “विक्टोरिया मेमोरियल में हुई घटना में पार्टी ने यूथ विंग के दो नेताओं की पहचान की है। दोनों तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में आए थे। उनसे सवाल पूछा जाएगा और उनकी निंदा भी की जाएगी। हिंदू नारे के खिलाफ प्रतिक्रिया देने के लिए हम सार्वजनिक रूप से ममता की आलोचना कर सकते हैं, लेकिन पार्टी इस बात को भलीभांति जानती है कि विक्टोरिया की घटना ने भाजपा के बंगाल प्लान को नुकसान पहुंचाया है।”
इस घटना में ममता बनर्जी को उनके सबसे बड़े आलोचकों में एक, अधीर रंजन चौधरी का भी साथ मिला है। चौधरी ने कहा कि भाजपा ने सरकारी कार्यक्रम में न सिर्फ एक चुनी हुई मुख्यमंत्री का अपमान किया बल्कि नेताजी के प्रति भी असम्मान दिखाया है।
घटना के दो दिन बाद हुगली जिले में एक सार्वजनिक सभा में ममता ने नारेबाजी करने वालों को पागल और देशद्रोही करार दे दिया। उन्होंने कहा कि नेताजी ऐसे शख्स थे जो भारत के हर समुदाय को साथ लेकर चलते थे। इस घटना के बाद तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा को बाहरी साबित करने का अभियान तेज कर दिया है। उसका कहना है कि भाजपा बंगाल के बारे में कुछ नहीं जानती और यहां के सांस्कृतिक आइकॉन के प्रति भी उसका कोई सम्मान नहीं है। 25 जनवरी की सभा में मुख्यमंत्री ने कहा, “उन लोगों ने पहले भी रवींद्रनाथ टैगोर का अपमान किया। उनके नेता जेपी नड्डा ने कहा कि टैगोर का जन्म शांति निकेतन में हुआ था। उन लोगों ने ईश्वर चंद विद्यासागर की मूर्ति तोड़ दी। बिरसा मुंडा की मूर्ति बताकर किसी और की मूर्ति के गले में माला डाल दी।”
ममता की रैली के चंद रोज बाद ही गृह मंत्री अमित शाह पश्चिम बंगाल का दौरा करने वाले थे। दिल्ली में इजरायली दूतावास के बाहर बम धमाके के कारण उनका कार्यक्रम रद्द हो गया, लेकिन राजीव बनर्जी समेत तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं को दिल्ली बुलाया गया। ये सभी भाजपा में शामिल हो गए हैं। हावड़ा में एक वर्चुअल रैली में अमित शाह ने कहा कि चुनाव तक ममता बनर्जी अकेली रह जाएंगी।
चुनावी का परिणाम जो हो, एक बात तय है कि इस लड़ाई में इतिहास में दर्ज महापुरुषों के नामों का दुरुपयोग किया जा रहा है।