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भाजपा की राह में ‘आदिवासी’ रोड़ा

पार्टी को चुकानी पड़ सकती है रघुवर सरकार की नीतियों की कीमत, बीच चुनाव में मुख्यमंत्री पर फोकस की रणनीति बदली
सरकार बचाने की चुनौतीः खूंटी में राज्य के नेताओं के साथ रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

 

तीन दिसबंर को गुलाबी ठंड के बीच राजधानी रांची से सटे खूंटी के बिरसा कॉलेज मैदान में चहल-पहल थी। आयोजन था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली का। मोदी तय समय से करीब डेढ़ घंटे विलंब से पहुंचे, लेकिन वहां मौजूद कुछेक हजार लोगों में एक बात की चर्चा थी- मुख्यमंत्री रघुवर दास की गैर-मौजूदगी। वैसे यह पहला मौका नहीं था, जब प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्री मंच पर नहीं थे। इससे पहले गुमला में भी मोदी की रैली में रघुवर दास नहीं थे। झारखंड की राजनीति पर नजर रखने वालों को रघुवर दास की गैर-मौजूदगी पच नहीं रही थी। खूंटी में जहां केंद्रीय मंत्री और स्थानीय सांसद अर्जुन मुंडा पीएम के साथ थे, वहीं गुमला में प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ और विधानसभा स्पीकर प्रो. दिनेश उरांव को तरजीह मिली। पीएम की सभाओं से रघुवर के गायब होने के कई मतलब निकाले जाने लगे, लेकिन असली मतलब की ओर किसी ने इशारा नहीं किया। दरअसल, भाजपा को यह एहसास हो गया है कि उसे आदिवासियों का समर्थन उम्मीद के अनुरूप नहीं मिल रहा है। झारखंड विधानसभा के दो चरणों के चुनाव हो चुके हैं और पलामू, कोल्हान तथा दक्षिणी छोटानागपुर की 33 सीटों पर मतदान हुआ है। इन दो चरणों के बाद भाजपा का ‘65 प्लस’ का लक्ष्य हवा होता दिख रहा है। खुद भाजपा नेता निजी तौर पर मानने लगे हैं कि यह लक्ष्य हासिल करना मुश्किल है। इसलिए भाजपा के रणनीतिकारों ने सोची-समझी रणनीति के तहत रघुवर दास को सीन से अलग रखने का फैसला किया है। भाजपा के प्रचार का नारा भी ‘घर-घर रघुबर’ से बदल कर ‘झारखंड पुकारा, भाजपा दोबारा’ और ‘झारखंड के साथ, मोदी का हाथ’ कर दिया गया है।

पिछले विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा ने गैर-आदिवासी सीएम का पहली बार प्रयोग किया, तो उन्हें लग रहा था कि राज्य की 73 प्रतिशत गैर-आदिवासी आबादी में इसका सकारात्मक संदेश जाएगा। लेकिन यह प्रयोग महंगा साबित हो रहा है। झारखंड की राजनीति को नजदीक से देखने वाले विश्लेषक संतोष भगत बताते हैं, दरअसल भाजपा ने रघुवर दास को सीएम बना कर आदिवासियों की नाराजगी मोल ले ली। इस चुनाव में आजसू के साथ भाजपा का तालमेल खत्म हो गया, तो राज्य का सबसे ताकतवर जातीय समूह, कुरमी का समर्थन भाजपा को नहीं मिल रहा है। इसके अलावा रघुवर दास ने आदिवासियों के सुरक्षा कवच, यानी छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम में संशोधन कर आदिवासियों की नाराजगी की आग में घी डाल दिया। जमीन संबंधी इन दोनों कानूनों में संशोधन के साथ भूमि अधिग्रहण कानून बदलने से आदिवासियों को यकीन हो गया कि गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री उनकी जमीन छीनने की कोशिश कर रहा है।

भाजपा की चिंता के और कारण भी हैं। दरअसल, पिछले पांच साल के दौरान रघुवर दास ने प्रशासनिक दृष्टिकोण से तो खुद को सफल मुख्यमंत्री साबित किया, लेकिन राजनीतिक रूप से उनके कई फैसलों से लोगों में गलत संदेश गया। भाजपा ने इस चुनाव में स्थायी सरकार देने की बात कही, लेकिन गैर-आदिवासी पूछ रहे हैं कि ऐसी स्थायी सरकार का क्या फायदा जिसने केवल संथाल परगना और कोल्हान के आदिवासी इलाकों के लिए काम किया। अपने कार्यकाल के शुरुआती दिनों से ही रघुवर दास ने पूरा ध्यान झामुमो के गढ़ संथाल परगना और कोल्हान को भेदने पर लगा दिया। यह दांव अब उलटा पड़ता दिख रहा है।

आरक्षण भी एक बड़ा मुद्दा है। रघुवर सरकार ने वर्षों से लंबित स्थानीय नीति को परिभाषित तो किया, लेकिन आरक्षण पर वह कोई ठोस फैसला नहीं कर सकी। इस अनिर्णय की स्थिति ने आरक्षण से लाभान्वित होने वाले वर्ग को भी भाजपा से दूर कर दिया। विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद आजसू और विपक्षी दलों ने इस मुद्दे को भुनाना शुरू किया, तब भाजपा की आंख खुली और उसने भी यह मुद्दा अपने घोषणा-पत्र में शामिल किया। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। लोगों को लगने लगा कि भाजपा का आरक्षण का वादा महज चुनावी है। अपनी पांच साल की उपलब्धियां गिनाने में मुख्यमंत्री रघुवर दास हजारीबाग के कोनार डैम और नए विधानसभा भवन के निर्माण का जिक्र करते रहे हैं। लेकिन कोनार डैम की नहर उद्घाटन के महज 24 घंटे के भीतर टूट गई और विधानसभा भवन में हैंडओवर होने से पहले ही आग लग गई। कोनार नहर पर कहा गया कि इसे चूहों ने कुतर दिया, जबकि विधानसभा भवन में आग को साजिश बताया गया। ये दोनों उपलब्धियां नाकामी का उदाहरण बन गई हैं।

महाराष्ट्र और प्याज का भी असर

महाराष्ट्र में शिवसेना से दोस्ती टूटने की तुलना लोग झारखंड में भाजपा-आजसू की मित्रता खत्म होने से कर रहे हैं। झारखंड बनने के बाद से ही आजसू ने भाजपा का साथ दिया, लेकिन इस चुनाव में आजसू ने अलग रास्ता अपना लिया है। आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो ने लोकसभा चुनाव में एक सीट मिलने के एवज में भाजपा की खूब मदद की, लेकिन हकीकत यह है कि वह रघुवर दास के साथ खुद को असहज पाते हैं। चुनावी सभाओं में वे रघुवर दास का नाम तो नहीं लेते, लेकिन सरकारी नीतियों की धज्जियां उड़ाते हैं। इधर प्याज की बढ़ती कीमतों ने भी भाजपा की परेशानी बढ़ा दी है। झामुमो नेता हेमंत सोरेन कहते हैं, “न्यू इंडिया में महंगे प्याज का दौर है। झारखंडवासी प्याज के आंसू रो रहे हैं।” कांग्रेस नेता सुबोधकांत सहाय कहते हैं, “महंगे प्याज के कारण पहले भी कई सरकारें गिरी हैं। इस बार रघुवर सरकार की बारी है।” राजद सुप्रीमो लालू यादव का ट्वीट भी खूब वायरल हो रहा है, उन्होंने लिखा है, “मोदी-रामविलास-नीतीश राज में प्याजवा तो अनार हो गइल बा।” इस ट्वीट ने झारखंड में विपक्ष को एक हथियार दे दिया है।

कई दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर

चुनावी रण में नेताः झामुमो अध्यक्ष हेमंत सोरेन, झाव‌िमो प्रमुख बाबू लाल मरांडी, कांग्रेस नेता रामेश्वर उरांव और आजसू के अध्यक्ष सुदेश महतो

यह विधानसभा चुनाव कई दिग्गजों का राजनीतिक भविष्य तय करेगा। इनमें मुख्यमंत्री रघुवर दास के अलावा सीएम पद के चार दावेदार प्रमुख हैं। इनमें झामुमो के हेमंत सोरेन, झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी, आजसू प्रमुख सुदेश महतो और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ रामेश्वर उरांव शामिल हैं। इनके अलावा, भाजपा के लिए चुनाव से पहले दूसरी पार्टी के आधा दर्जन विधायकों को पार्टी में शामिल करने और अपनी पार्टी के इतने ही विधायकों का टिकट काटने के फैसले को भी सही साबित करने की चुनौती है। भाजपा नेता दीपक प्रकाश पार्टी की वापसी तय मानते हैं, तो राजद नेता कैलाश यादव कहते हैं कि महाराष्ट्र में भाजपा पर कॉमा लगा, झारखंड में पूर्ण विराम लगेगा। केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा यह दावा तो करते हैं कि राज्य में फिर भाजपा की सरकार बनेगी, लेकिन यह नहीं बताते कि कमान किसके हाथ में रहेगी। झाविमो प्रमुख बाबूलाल मरांडी कहते हैं, “रघुवर सरकार ने झारखंड को बर्बाद कर दिया है। लोग भूखों मर रहे हैं और सरकार हाथी उड़ा रही है।” उनका इशारा बहुप्रचारित झारखंड के प्रतीक चिह्न की ओर था, जिसमें हाथी को उड़ता हुआ दिखाया गया था। राजद नेता रंजन कुमार कहते हैं, “झारखंड के लिए पिछले पांच साल दुःस्वप्न की तरह हैं। संसाधनों को बेशर्म तरीके से लूटा गया और अफसरशाही को शासन करने के लिए छोड़ दिया गया।”

एक बात साफ है कि भाजपा के लोग अब रघुवर दास का नाम नहीं लेते। उन्हें डर है कि कहीं इसका उलटा असर न पड़ जाए। उधर मोदी के मंच पर रघुवर के पुराने प्रतिद्वंद्वी अर्जुन मुंडा को तरजीह मिलना भी राजनीतिक हलकों में खास नजरिए से देखा जा रहा है। मोदी और अमित शाह के भाषणों में राम मंदिर और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दे ही हावी हैं। भाजपा को आभास है कि रघुवर सरकार के प्रदर्शन के आधार पर उसे वोट नहीं मिलेगा, इसलिए राष्ट्रीय मुद्दे ही उठाए जाएं। बदली रणनीति का पार्टी को बाकी तीन चरणों के चुनाव में कितना लाभ मिलेगा, इसका पता तो 23 दिसंबर को ही चलेगा, लेकिन दूसरे दौर के मतदान में शहरी इलाकों में कम वोट पड़ने से भाजपा के रणनीतिकारों और खास कर मुख्यमंत्री रघुवर दास की पेशानी पर बल जरूर पड़ गए हैं।

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