झारखंड के गठन के बीस साल हुए। इन वर्षों में झारखंड की दशा-दिशा क्या रही और चुनौतियां क्या हैं? इन सवालों के साथ एक साल पूरा कर रही झामुमो-कांग्रेस गठजोड़ सरकार के युवा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कोरोना के दौर में खाली खजाना और विपक्ष से भी मुकाबिल हैं। उन्होंने चुनौतियों और कामकाज पर आउटलुक के नवीन कुमार मिश्र से अपने अनुभव साझा किए। बातचीत के प्रमुख संपादित अंशः
एक साल में अपके सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या रही?
सामाजिक सुरक्षा, क्योंकि सरकार बनते ही हम लोग गंभीर मुसीबत में फंसे। झारखंड जैसे पिछड़े राज्य के लिए वैश्विक महामारी कोविड-19 बड़ी चुनौती थी। देश में अफरातफरी मची थी। ऐसे में बाहर से कामगारों को सुरक्षित तरीके से लाए, घर तक पहुंचाए। मृत्यु का आंकड़ा भी झारखंड में एक हजार से पार नहीं गया। यह देश में सबसे बेहतरीन प्रबंधन था। न मुकम्मल अस्पताल थे, न जांच की व्यवस्था थी। कोरोना के दौर में ही इनकी व्यवस्था की गई जबकि देश में इस दौरान आवागमन बंद रहा।
वह जो आप करना चाहते थे, नहीं कर पाए। किस इलाके में फोकस रहेगा?
सरकार बनने के बाद हम लोगों ने सोच रखा था कि राज्य को एक गति देनी है। ऐसी लकीर खीचें जो इतनी लंबी हो कि उससे बड़ी लकीर खींचनी मुश्किल हो। उसे खींचने में विलंब हुआ। कोरोना के दौरान हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। कार्यपालिका के अंदर की गतिविधियों को समझने का मौका मिला। हमारी कार्य योजना को जमीन पर उतारना बड़ी चुनौती थी। पूर्व की सरकार ने वित्तीय व्यवस्था को पूरी तरह से घ्वस्त कर रखा था। एक प्रकार से हमें शून्य से शुरू करना पड़ा। मुझे लगता है कि अलग राज्य होने के बाद पहला सरप्लस बजट विधानसभा पटल पर रखा गया। उसके बाद जो स्थिति रही, वह स्थिति इतनी बुरी रही कि सरकार ने कभी भी अपने आंतरिक संसाधनों को बढ़ाने, वैल्यू एडीशन पर ध्यान ही नहीं दिया, कोई नया रास्ता की नहीं निकाला कि राज्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके।
केंद्र और राज्य के बीच संबंध ठीक नहीं दिख रहा। डीवीसी का बिजली मद में बकाया पैसा भी राज्य के खजाने से काट लिया गया।
झारखंड ही नहीं, कई राज्यों का केंद्र के साथ अच्छा संबंध नहीं दिख रहा। जहां गैर-भाजपा सरकार है, वहां समस्याएं ज्यादा हैं। छोटी-छोटी चीजों पर केंद्र सौतेला व्यवहार करता है। ठीक है, आपने हमारा पैसा काट लिया। आपने हमारे राज्य में बच्चों को मेडिकल कॉलेज में दाखिला क्यों बंद कर दिया? हमारे तीन-तीन मेडिकल कॉलेज, जिसमें हर कॉलेज में डेढ़-डेढ़ सौ बच्चों का एडमिशन होना था यानी साढ़े चार सौ बच्चे मेडिकल शिक्षा ग्रहण करने से वंचित रह गये। हम यहां डॉक्टरों की तलाश करते हैं, नर्सों की तलाश करते हैं, ऐसा क्यों। पैसा काटना माना कि वित्तीय प्रबंधन का हिस्सा था। और उन्हीं कॉलेजों का जब उद्घाटन करना था तो आनन-फानन आधी-अधूरी बिल्डिंग में उद्धाटन भी हुआ (पलामू, दुमका और हजारीबाग मेडिकल कॉलेज का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्धाटन किया था)। बच्चों का दाखिला भी हुआ और जब हम आज लगभग सारी अर्हताएं पूरी कर रहे हैं, एडमिशन रोकना न्यायोचित नहीं है। मेरे साथ छोड़िए, बच्चों के साथ न्यायोचित नहीं रहा। इस तरह की सोच दुखी करती है।
पूर्ववर्ती सरकार के समय के भ्रष्टाचार के अनेक मामलों जैसे मैनहर्ट, कंबल, जेरेडा घोटाला को आपने एसीबी के हवाले किया। भाजपा का आरोप है कि यह टार्गेटेड, पूर्वाग्रह से ग्रस्त कार्रवाई है
मैं पूर्वाग्रह से ग्रस्त हूं? परिणाम आने दीजिए। अगर गलत होगा तो मैं यही कह सकता हूं कि मै गुनाह भी नहीं करूंगा तो आप लोग सूली पर चढ़ा दें। ये हमने तो नहीं किया। ये कागजों के माध्यम से आये, कागज बोलता है, कागज तो मरता नहीं है। अखबारों में, मीडिया में विधायकों ने कई संस्थाओं के माध्यम से सूचनाएं उजागर हुई थीं। ऐसा नहीं कि हमारी सरकार ने आकर उन सब को कुरेदा हो या खुद निकाला हो या नया बनाकर फंसाने का प्रयास हुआ हो। ऐसा कोई एक उदाहरण बता दें कि सारा कुछ अच्छा चल रहा था और मैने कोई जांच बैठा दी। उनके पाप के घड़े भरकर छलक चुके थे, हमने कहा कि इसे थोड़ा ठीक कर दो।
सीबीआइ की डायरेक्ट एंट्री पर आपने रोक लगा दी। कुछ और राज्यों ने भी लगाया है। ऐसी क्या जरूरत पड़ी?
आज देश में संवैधानिक संस्थाओं की क्या स्थिति है, यह किसी से छुपा नहीं है। अंदरखाने कुछ है और बाहर कुछ और। सीबीआइ का दुरुपयोग किया जा रहा है। हमने कोई नियम के विरुद्ध, संविधान के विरुद्ध काम नहीं किया है। हमने न्यायसंगत चीजों को आगे बढ़ाया है और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी।
नेता प्रतिपक्ष का पद खाली है, इस कारण मानवाधिकार आयोग सूचना आयोग का काम प्रभावित हो रहा है। उसमें भी कहते हैं कि इशारा आप का ही है ?
देखिये राजनीति का यह प्लेटफार्म है और राजनीति करने का अधिकार सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को थोड़े ही है। नेता प्रतिपक्ष या आम विधायक की बात हो, पूर्व में जब उनकी सरकार थी,उस समय जेवीएम के विधायक तोड़े गये थे, इन लोगों ने क्या निर्णय लिया था, पांच साल तक (भाजपा में शामिल हुए थे, मामला विधानसभा अध्यक्ष की अदालत में लटका रहा था)। न्याय सबके लिए बराबर होता है चाहे नेता प्रतिपक्ष हो या विधायक हो। देखिये एक्शन से ही रिएक्शन निकलता है। आज ये लोग जिस तरह से नई राजनीतिक परिभाषा गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, इसका मतलब समझिये। ये आग कहीं न कहीं उन्हें भी झुलसा सकती है। हमारा कोई राजनीतिक द्वेष भाव नहीं है। मुझे नकारात्मक राजनीति न आती है, न उसकी इच्छा है।
आरक्षण का कोटा बढ़ाने का आपने निर्णय किया। कैसे कर पायेंगे? हाइकोर्ट रोक लगा चुका है?
आरक्षण का विषय संवैधानिक है। लोगों को अधिकार मिलना भी चाहिए। जनसंख्या के आधार पर लोगों को उसका हक मिले, यह संविधान भी कहता है और उसी को आगे बढ़ाने का हमारा प्रयास है।
सरना कोड पर केंद्र का रवैया क्या दिख रहा है, पूरे देश की नजर आप पर है, क्या रणनीति होगी आपकी?
यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है। पिछले वर्षों में अनुसूचित जनजाति समुदाय के लोग अपनी पहचान को समझने लगे हैं। वे दिखने लगे हैं। कुछ महीनों के बाद जनगणना होनी है। इसमें बड़े ही सुनियोजित तरीके से साजिश हुई। हिंदुत्व की परिकल्पना करने वाले लोगों ने इन समुदायों को विलुप्त करने की रणनीति के तहत जनगणना के कॉलम में जनजाति के लिए कोई जगह नहीं दी। अभी जनगणना में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध सहित छह धर्मों का प्रावधान है। पहले सात होता था। अन्य का भी कॉलम होता था, यह भी हट गया। अनुसूचित जनजाति के लिए अभी समाप्त किया गया जबकि अंग्रेजों के समय से लेकर आजादी के बाद तक विभिन्न नामों से यह घटता चला गया और बाद में इसे खत्म कर दिया गया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब संविधान लिखा जा रहा था, उस समय जयपाल सिंह मुंडा संविधान समिति के सदस्य थे, उनको हम कैसे भूल जाएं। उनको ये कैसे भूल गये। वो एसटी से आते थे। एक बड़ा सरना समुदाय का वर्ग अपने आप अपनी आवाज 2011 की जनगणना में बुलंद करने में कामयाब रहा। करीब 50 लाख लोगों ने जनगणना कॉलम में सरना लिखा और करीब साढ़े ग्यारह- बारह करोड़ ने आदिवासी लिखा। ये बात अपनी जगह है। पचास लाख लोगों ने अपनी बात रखी है तो हमने संवैधानिक तरीके से संविधान को पटरी पर चढ़ाने का प्रयास किया है। और आज यह चर्चा का विषय है कि हमने प्लेटफार्म तैयार किया। चाहे बंगाल की अनुसूचित जनजाति हो, या नार्थ ईस्ट, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ की जनजाति हो या यूपी-बिहार कहीं की हो, सब इस बात पर चर्चा करे। संविधान में जो एससी-एसटी को संरक्षण प्राप्त है आने वाले दिनों में एसटी खत्म होगा और उसके बाद एससी पर पड़ेंगे। बड़ा सवाल, सदन में भी मैंने उठाया, कहा कि ये अपने अधिकार की लड़ाई की पहली सीढ़ी चढ़ रहे हैं। कई सीढि़यां चढ़नी बाकी है। ये मंजिल नहीं है। मंजिल हासिल करने का पहला कदम है जिसे झारखंड ने, हमने उठाया। देखते हैं और कितने लोग उठाते हैं।
झारखंड बीस साल का जवान हो गया है ...
आंदोलन के सिपाही कुछ बुजुर्ग हो गये, कुछ स्वर्ग सिधार गये। बड़ी जद्दोजहद के बाद यह राज्य मिला। अलग राज्य के आंदोलन का जो इतिहास है वह अलग देश के इतिहास के बराबर है। सबसे ज्यादा संघर्ष झारखंड के लोगों को करना पड़ा। यह राज्य हक, अपने वजूद को बचाने के आधार पर लड़ी गई लड़ाई की जीत है। यहां बंगला, ओडिया, भोजपुरी, मैथिली बोलने वाले लोग भी हैं।
छोटे राज्यों की हिमायती भाजपा का विचार आज अलग दिखता है?
यह देश बहुत बड़ा है। विविधताओं से भरा हुआ। अभी संविधान दिवस मनाया है। उस समय लोग जो सोचते थे और अब लोग जो सोचते हैं, दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। संविधान ही है जिसने लोगों को अलग-अलग रहते हुए भी बांधकर रखा है। अलग राज्य का बनना मुझे लगता है, सतत प्रक्रिया है। पहले बड़ा फिर छोटे-छोटे राज्य, जहां जितना संभव हुआ। ऐसा नहीं कि एक बार में हुआ। बिहार, झारखंड, बंगाल, ओडिशा सब एक ही थे। फिर छोटे-छोटे होते गए। जैसे परिवार बढ़ता गया, विभक्त होता गया। पिता ने सबको बांट कर भी बांधे रखा। केंद्र अभिभावक तो है ही और केंद्र को अभिभावक की भूमिका में होना भी चाहिए जो आज के दिन में नहीं दिखता। पहले भी केंद्र में कोई और, राज्य में कोई और सरकार होती थी। यह धारणा नहीं थी कि केंद्र राज्य की मानेगा या नहीं। अब लोग मानने लगते हैं कि वो तो अलग है, वहां तो मानेगा नहीं वहां तो दूसरी सरकार है। अब तो इसे सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। केंद्र में दूसरी सरकार और राज्य में दूसरी सरकार होगी तो दिक्कत हो सकती है। लेकिन इस बात का लोगों में भ्रम है कि सारी दिक्कत केंद्र ही पैदा कर सकता है। राज्य भी दिक्कत कर सकता है और इतनी बड़ी मुसीबत पैदा कर सकता है कि केंद्र को लोहे के चने चबवा सकता है। आज किसान को देख लीजिए। पंजाब, हरियाणा के लोगों को पहले तो कहा आने नहीं देंगे, बाद में ताकत देख इजाजत देनी पड़ी। मैं शुरू से इस विचार का रहा कि कभी भी बेजुबान की ताकत को कम नहीं आंकना चाहिए। यहां हमारी सरकार बनी है। पहले केंद्र वाली ही थी मगर हमारे जैसा जनादेश नहीं था। आज बहुमत वाली सरकार के रहते हुए यह दावा किया जाता है कि सरकार चार महीने, छह महीने और दस महीने में चली जाएगी। सत्ता को भाजपा वालों ने अपनी प्रापर्टी समझ लिया है, उस प्रोपर्टी के जाने का जो दुख होता है, वह दुख ऐसे शगूफों से छलकता है। धनबल में तो आज उनकी बराबरी में कोई नहीं है। आज जिस तरीके से सरकार को अस्थिर करते हैं, लोग देखते हैं। यूपी चुनाव के बाद बता दीजिए कोई सरकार अपने दम पर बनाई हो।
रोजगार चुनाव में बड़ा मुद्दा था। कोरोना में बाहर से भी लोग आये हैं। क्या योजना है?
हम चाहकर भी रोजगार नहीं दे पा रहे हैं। स्कूल बंद हैं, ड्राइवर, शिक्षक घर में हैं। सहज स्थिति नहीं है। फिर भी संभावनाओं का दोहन कर रहे हैं। सामान्य जीवन व्यतीत करने के लिए हमारे राज्य में एक ही रास्ता बचता है कृषि का। ग्रामीण विकास का। मनरेगा को कोरोना में ड्राइव चलाया। अलग राज्य होने के बाद साढ़े तीन-चार लाख ही मैन डेज सृजित होता था। हम लोगों ने आठ लाख किया। बारिश अच्छी हुई, लोग खेतों में जूड़ गये और मैन डेज घटने लगा। शहरी रोजगार पर हम आगे बढ़े। कार्यक्रम निकाला है कि सौ दिन जॉब गारंटी नहीं तो बेरोजगारी भत्ता देंगे। नामांकन शुरू है। रांची, हजारीबाग, सिमडेगा, लोहरदगा शहरी क्षेत्र में काम करने वाले ग्रामीण क्षेत्र के आते हैं। आज शहरी और ग्रामीण कामगारों में कैसे तालमेल बनायें, इस पर काम चल रहा है। शहर में इतने बड़े पैमने पर लोग नहीं मिल रहे, जितना ग्रामीण में मिलते हैं। मजदूर कामगार अधिक हैं। हमलोगों ने अभी अलग-अलग राज्यों से लड़कियों को रेस्क्यू कराया नौकरियां दीं। साल के अंत तक दस हजार लड़कियों को नौकरी देने की तैयारी में हैं। कोरोना काल में हमने बहुत योजनाबद्ध तरीके से काम किया। रोजगार का हम इतने बड़े पैमाने पर द्वार खोलेंगे कि सरकार पूरी तरह से व्यस्त रहेगी, हर विभाग व्यस्त रहेगा। पर्यटन की संभावनाओं का भी हम भरपूर दोहन करेंगे।
डायन बिसाही के नाम पर गरीब कमजोर, आदिवासी महिलाओं का ज्यादा उत्पीड़न हो रहा है। इसी समाज से राज्यपाल और मुख्यमंत्री आते हैं। कैसे हैंडल करेंगे?
महत्वपूर्ण सवाल है। इसकी चिंता हमें भी रात-दिन सताती है। हालांकि इस तरह की घटनाओं की संख्या में कमी आई है। इसके बावजूद इस तरह की घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण हैं। पिछड़ापन, बौद्धिक विकास का न होना इसकी बड़ी वजह है। हम इसी लाइन पर आगे बढ़ रहे हैं कि कितना अधिक से अधिक बदलते सामाजिक परिवेश का वातावरण दे पाएं। अब बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा। अब जो नई पीढ़ी आ रही है, बहुत जल्द बहुत आगे का सोचती है। परिवर्तन आने में अब बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा।
आप कुछ कहना चाहेंगे?
कहना क्या है, अभी तो करना है। आप पूछ लेते हैं तो याद आ जाता है। कहने से ज्यादा करने में अधिक आनंद आता है।