जॉनी लीवर पिछले तीन दशकों से बॉलीवुड के सबसे कामयाब हास्य कलाकार रहे हैं। आज के दौर में कॉमेडी फिल्मों की संख्या भले ही घट रही हो, उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। आज ऐसा भी लगता है कि कॉमेडी के प्रति सहनशक्ति घट रही है। कई कॉमेडी कलाकारों के खिलाफ पुलिस मामले भी दर्ज हो रहे हैं और गिरफ्तारियां भी हो रही है। हाल ही में कॉमेडी फिल्मों के लिए मशहूर निर्देशक डेविड धवन की फिल्म, कुली नं.1 में दिखे जॉनी लीवर ने आउटलुक के गिरिधर झा के साथ इन तमाम सवालों पर बेवाकी से बातचीत की। कुछ संपादित अंश:
ऐसा लगता है कि लोगों के सेंस ऑफ हयूमर के साथ-साथ सहनशक्ति भी कम हो गई है। आजकल अक्सर लोग कॉमेडियन की बातों का बुरा मान जाते हैं और उन पर पुलिस में मामले तक दर्ज हो जाते हैं। आपने भी तो कई मशहूर हस्तियों की मिमिक्री की है। क्या आपके किसी ‘एक्ट’ पर किसी ने ऐतराज जताया?
नहीं, मेरी किसी बात का लोगों ने बुरा नहीं माना। आपके काम करने का तरीका सही होना चाहिए। हम कलाकारों की भी जिम्मेदारी है कि हमें कुछ भी सोच-समझकर करना या कहना चाहिए। हमें यह सोचना चाहिए कि हम जो कर रहे हैं, किसी को बुरा तो नहीं लगेगा। उसे कवर करना चाहिए। पैकेजिंग ऐसी होनी चाहिए कि जिसकी आप मिमिक्री कर रहे हैं, उसे भी यह अच्छा लगना चाहिए। उसे लगे की अगर उसके ऊपर कीचड़ भी उछाला गया है तो अच्छी तरह से उछाला है। सब कुछ कलात्मक होना चाहिए। ये चीजें अब कम हो गई हैं। वैसे आजकल नेता लोग भी बहुत सोच-समझकर बोलते हैं और हर आदमी नेता हो गया है। किसी से बात करो तो वह पूरी तैयारी करके निकलता है कि आज कैसे बोलना है। हमें भी यह सोचकर पूरी तैयारी के साथ कॉमेडी करना चाहिए ताकि लोगों को बुरा न लगे। जो मुंह में आए बोल दो, वो नहीं करना चाहिए, भले ही लेखक-निर्देशक आपसे कहें कि ‘यह चलता है।’ इतने साल बाद भी मैं कोशिश करता हूं। अगर स्क्रिप्ट में मुझे कुछ खामियां दिखती हैं तो मैं लेखक के साथ घंटों बैठकर उसे दुरुस्त करता हूं। आपको मेहनत करनी पड़ेगी। आपकी मेहनत दर्शकों को समझ में आती है। वे बेवकूफ थोड़े ही हैं। कॉमेडी के नाम पर लोगों को टॉर्चर करने का क्या हक है हमें? लोग अगर बार-बार आपकी बातों का बुरा मान जाएं तो इसका मतलब है कि आप आर्टिस्ट नहीं कुछ और ही हैं।
तो आप पूरा कंटेंट चेक करने के बाद ही परफॉरमेंस देते हैं?
चेक करना तो पड़ेगा। अपने आप को बचाना तो पड़ेगा, नहीं तो हम खत्म हो जाएंगे। लेखक ने जो लिख दिया, क्या वह सिर्फ पैसे के लिए बोल दूं? मेरे चलते किसी को, मेरे चाहने वालों को बुरा नहीं लगना चाहिए। गलतियां हो जाती हैं लेकिन उसकी बार-बार पुनरावृत्ति करने से लोग आपको पसंद नहीं करेंगे।
निर्देशक डेविड धवन के साथ आपने पहले भी दीवाना मस्ताना (1997) जैसी कॉमेडी फिल्म की है और अभी आपने उनके साथ कुली नं.1 में फिर काम किया। एक हास्य कलाकार के रूप आप उन्हें बाकी निर्देशकों की तुलना में कैसा पाते हैं?
डेविड जी ने कॉमेडी ही बनाई है। दिन भर उनके दिमाग में कॉमेडी ही चलता रहता है। वे हमेशा यही सोचते रहते हैं कि सीन को और हास्यपूर्ण, और बेहतर कैसे बनाया जाए। उन्होंने वही किया है। कुली नं.1 पहले उन्होंने गोविंदा के साथ बनाई थी और अब अपने बेटे वरुण धवन के साथ बनाई। निर्देशक के रूप में अभी भी वैसे ही हैं। काम करने का वही ढंग है। उनमें वही जोश और ताकत है।
डेविड धवन के अलावा आपने रोहित शेट्टी की गोलमाल और साजिद नादियाडवाला की हाउसफुल जैसी बड़ी सीरीज में काम किया किया है। लेकिन, आजकल के दौर में जब हिंदी सिनेमा में कथानक का महत्व बहुत बढ़ गया है, कॉमेडी फिल्मों की संख्या अचानक क्यों घट गई है? क्या इसे बनाना मुश्किल है?
कॉमेडी फिल्म बनाना हरेक के वश की बात नहीं। निर्देशकों को इसे बनाने का ज्ञान और समझ होनी चाहिए, जैसे डेविड धवन या प्रियदर्शन में है। औरों के लिए ये मुश्किल है, क्योंकि वे वैसा नहीं सोच सकते, जैसा ये सोच सकते हैं। यह मुश्किल इसलिए है कि हम तो काम करते हैं, लेकिन कभी-कभी हम अपने ही काम को परदे पर देखकर हैरान हो जाते हैं क्योंकि निर्देशक हमारे किरदार को निखार देते हैं। हां, ऐसे फिल्मकार कम हैं। सूरज बड़जात्या जैसे निर्देशक कहते हैं कि उन्हें कॉमेडी की समझ नहीं है। वे मुझे कहते हैं, “जॉनी भाई, आपको जो अच्छा लगता है, वह करें। आप और अच्छा कर सकते है तो आप कर कर लें।” दरअसल, निर्देशक ही फिल्मों में हमारा बाप होता है।
एक तरह से देखा जाए तो आजकल लोगों को हंसाना बहुत मुश्किल है क्योंकि लोगों का सेंस ऑफ हयूमर बहुत बढ़ गया है। आज चलते-फिरते हर समय उनके पास मोबाइल फोन है जिसमें हमेशा जोक्स आते रहते हैं। आज हर आदमी इतना विनोदपूर्ण हो गया है कि उन्हें हंसाना बहुत मुश्किल हो गया है। आपको कॉमेडी लेखन, उसकी स्क्रिप्टिंग में बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। साथ ही साथ यह भी देखना पड़ेगा कि बाजार में क्या बिक रहा है। यह सच है कि फिलहाल कॉमेडी फिल्मों की संख्या कम हो गई है। लोगों को जो अच्छा लगता है, उसी पर काम होता है। अगर लोगों को स्टंट फिल्में अच्छी लगने लगती हैं, तो डायरेक्टर उधर चले जाते हैं।
बड़े से बड़े सुपरस्टार मानते हैं कि दर्शकों को हंसाना उन्हें रुलाने से ज्यादा मुश्किल काम है। इसके बावजूद हिंदी सिनेमा में हास्य कलाकारों के योगदान को नकारा जाता है, उन्हें सरकार भी दादासाहब फाल्के जैसे सम्मान से नहीं नवाजती, जबकि अभिनेता के रूप में उनकी प्रतिभा किसी से कम नहीं होती...
दादासाहब फाल्के बहुत बड़ा अवार्ड है। किशोर कुमार ने फिल्में बनाईं, संगीत दिया, गाने गाए और क्या शानदार कॉमेडी की, उनको नहीं मिला तो मुझे कैसे मिलेगा? उनकी ही तरह महमूद साहब जीनियस थे। उन्होंने बॉम्बे टु गोवा (1972) जैसी फिल्में बनाईं, कुंवारा बाप (1974) जैसी फिल्म में हंसाया भी, रुलाया भी, समाज को एक संदेश भी दिया। उनको नहीं मिला, तो मैं कौन हूं? इससे मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं। हम तो अपना काम करते रहेंगे। हमें लोगों का बहुत प्यार मिला। मैं इसी को सबसे बड़ा अवार्ड समझता हूं। बाकी तो अपना नसीब है।
महमूद साहब के बारे में कहा जाता है कि उनकी लोकप्रियता से बड़े से बड़े स्टार ईर्ष्या करते थे और कुछ तो उनके साथ काम भी नहीं करना चाहते थे। आप भी बहुत लोकप्रिय रहे है। क्या आपके साथ कभी ऐसा अनुभव हुआ कि आपके साथी कलाकार आप से डरे हों कि आप उन पर हावी पड़ जाएंगे?
मेरे साथ भी ऐसा कुछ हुआ है। कुछ कलाकार असुरक्षित महसूस करते हैं। उन बेचारों को कॉमेडी समझ में नहीं आती है। उन्हें लगता है कि दर्शकों का सारा ध्यान मुझ पर चला जाएगा। यह मैंने भी समझा है, लेकिन मैंने ऐसे कलाकारों के साथ हमेशा सहयोग किया है। भले ही मुझे दबाने की कोशिश की गई, फिर भी मैंने अपने आप को छोटा करके, हमेशा यह सोचा कि सीन बेहतर होना चाहिए। मैंने हमेशा इसी सोच के साथ काम किया है। किसी को दबाने की कभी कोई कोशिश नहीं की। मैंने हमेशा इसे सकारात्मक रूप में लिया है। मैंने हमेशा चाहा कि मैं नहीं, सीन हिट हो जाए।