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कभी-कभी ही मिलते हैं खय्याम

सिर्फ 40 फिल्मों में काम करने के बावजूद खय्याम सार्वकालिक महान संगीतकारों में शुमार
संगीतकार खय्याम

सत्तर के दशक के मध्य में मशहूर फिल्म निर्माता यश चोपड़ा ने फिल्म कभी-कभी (1976) के लिए लगभग भुला दिए गए संगीतकार खय्याम को साइन कर सबको हैरत में डाल दिया। चोपड़ा ने इससे पहले अपनी दो फिल्मों दाग (1973) और दीवार (1975) के लिए उस समय के दो सबसे व्यस्त संगीतकारों लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और राहुल देव बर्मन (पंचम) को साइन किया था। दोनों हर साल दर्जनों हिट गाने दे रहे थे। इन दिग्गजों की जगह खय्याम जैसे पुराने संगीतकार को चुनना बड़ा जोखिम वाला फैसला था। लेकिन चोपड़ा ने जब अमिताभ बच्चन सहित कुछ बड़े सितारों वाली फिल्म कभी-कभी के संगीत की बागडोर खय्याम को सौंपने का फैसला किया, तो वे जानते थे कि क्या कर रहे हैं। बाकी तो इतिहास ही है।

चोपड़ा को मालूम था कि कमाल अमरोही ने खय्याम को रजिया सुल्तान के लिए साइन किया है। लेकिन रजिया सुल्तान (1983) से सात साल पहले आई कभी-कभी ने फिल्म संगीत की दुनिया में तहलका मचा दिया। गीतकार साहिर के लिखे कभी-कभी मेरे दिल में (लता मंगेशकर-मुकेश) और मैं पल दो पल का शायर हूं (मुकेश) जैसी धुनों के साथ खय्याम ने हिंदी सिनेमा के इतिहास में सबसे शानदार वापसी की।

खय्याम की वापसी वाकई शानदार थी, क्योंकि कभी-कभी से पहले वे लगभग एक दशक तक गुमनामी में थे। हालांकि, इसकी भी वजह थी। सत्तर के दशक की शुरुआत में हिंदी सिनेमा पर पश्चिमी संगीत का काफी प्रभाव देखा गया, जिससे भारतीय शास्‍त्रीय संगीत को अपना सब कुछ मानने वाले खय्याम जैसे संगीतकार एक तरह से बेकार हो गए। कभी-कभी से पहले खय्याम की आखिरी बड़ा हिट एक दशक पहले आई चेतन आनंद की आखिरी खत (1966) का बहारो मेरा जीवन भी संवारो था, जिसे लता ने गाया था।

अविभाजित पंजाब में 1927 में जन्मे खय्याम ने 1940 के दशक में मुंबई (तब बंबई) आने से पहले लाहौर में बाबा चिश्ती से संगीत की शुरुआती तालीम ली। बतौर संगीतकार, उन्हें दिलीप कुमार स्टारर फुटपाथ (1953) में तलत महमूद के गाए गीत शाम-ए-गम की कसम से शोहरत मिली। उन्होंने शोला और शबनम (1961) और शगुन (1964) जैसी फिल्मों में शानदार संगीत दिया, जिसमें उनकी पत्नी जगजीत कौर के गाए तुम अपना रंज-ओ-गम गाने को भुलाया नहीं जा सकता।

भले ही खय्याम ने अपनी पहली पारी में कम फिल्मों में संगीत दिया, लेकिन उनकी बनाई कुछ धुनें वाकई यादगार हैं। गीतकार जावेद अख्तर का कहना है कि वो सुबह कभी तो आएगी (फिर सुबह होगी) गाने की धुन ही उन्हें सार्वकालिक महान का दर्जा दिलाने के लिए काफी थी। बहरहाल, यह उनकी दूसरी पारी थी, जिसने उन्हें पद्मभूषण और राष्ट्रीय पुरस्कार सहित तमाम सम्मानों का हकदार बनाया। कभी-कभी की धुन एक अच्छी कविता और मधुर संगीत का आदर्श संतुलन बनाने की उनकी क्षमता का शानदार गवाह बनी।

चोपड़ा की फिल्म ने खय्याम के लिए अवसरों के दरवाजे खोल दिए, लेकिन वे धड़ाधड़ फिल्में साइन करने की होड़ में शामिल नहीं हुए। वे संगीत की गुणवत्ता से समझौता नहीं करना चाहते थे। कभी-कभी के बाद खय्याम ने बड़े और छोटे बजट की फिल्मों में कई शानदार गीत दिए। 1977 में रिलीज शंकर हुसैन फिल्म के गाने कहीं एक मासूम नाजुक-सी लड़की (मोहम्मद रफी) और आप यूं ही फासलों से (लता) अब भी सर्वकालिक क्लासिक में शामिल हैं।

इस दिग्गज संगीतकार के लिए 1976-86 का दशक सबसे अधिक रचनात्मक साबित हुआ। इस दौरान त्रिशूल (मोहब्बत बड़े काम/1978), नूरी (आजा रे/1979), थोड़ी-सी बेवफाई (हजार राहें/1980), दर्द (प्यार का दर्द है/1981), आहिस्ता आहिस्ता (कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता/1981), बाजार (दिखाई दिए यूं/1982) और रजिया सुल्तान (ऐ दिल-ए-नादान/1983) जैसी फिल्मों के गानों से उन्हें व्यावसायिक सफलता तो मिली ही, समीक्षकों में भी ख्याति हासिल हुई।

लेकिन वे शिखर पर पहुंचे उमराव जान (1981) के गीतों के साथ। शहरयार की लिखी गजलों को उन्होंने जो संगीत दिया, उसने उन्हें अमर बना दिया। खय्याम ने लगभग 40 फिल्मों में संगीत दिया। फिल्मों की संख्या नहीं, बल्कि उनके संगीत ने उन्हें सार्वकालिक महान संगीतकारों की सूची में जगह दिलाई। 19 अगस्त को अंतिम सांस लेने वाले संगीत के इस उस्ताद के लिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि आप खय्याम जैसा संगीतकार कभी-कभी ही पा सकते हैं।

(लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म समीक्षक हैं)

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