संविधान के अनुच्छेद 224ए के हवाले से हाइकोर्टों में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति को मंजूरी देने वाला सुप्रीम कोर्ट का ताजा आदेश देश के न्यायिक परिदृश्य में एक अहम और विवादास्पद घटना है। इस कदम के पीछे लटके हुए मुकदमों के निपटारे की मंशा साफ है। ध्यान देने वाली बात है कि हाइकोर्टों में 57 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं और जजों की रिक्तियों का औसत करीब 40 फीसदी है। इसके बावजूद, यह फैसला न्यायिक प्रणाली के दीर्घकालिक प्रभाव और अखंडता को लेकर चिंताएं पैदा करता है। यह फैसला संवैधानिक सिद्धांतों और व्यवस्थागत सुधारों की जरूरत की रोशनी में गहन आलोचना की मांग करता है।
अनुच्छेद 224ए का आह्वान बरसों से निर्मित हो रहे एक संकट की तात्कालिक प्रतिक्रिया जान पड़ता है। देश की अदालतों में लटके हुए मुकदमों की संख्या बहुत ज्यादा हो चुकी है। उनमें आधे से ज्यादा मामले अकेले पांच हाइकोर्टों में लंबित हैं। अवकाश प्राप्त जजों की तदर्थ नियुक्ति का फैसला ऐसे में न सिर्फ एक व्यावहारिक समाधान है, बल्कि रिक्त न्याायिक पदों को भरने में होने वाली देरी पर एक प्रतिकूल टिप्पणी भी है। यह विलंब कॉलेजियम प्रणाली की कमियों की देन हो चाहे सरकारी निष्क्रियता का परिणाम, लेकिन इतना स्पष्ट है कि हालात ठीक नहीं हैं।
अनुच्छेद 224ए बैकलॉग मुकदमों के तात्कालिक प्रबंधन के लिए अवकाश प्राप्त जजों की तदर्थ नियुक्ति का प्रावधान करता है। इस प्रावधान का अतीत में कम इस्तेमाल हुआ है। व्यवस्था से जुड़े मुद्दों को संबोधित करने के बजाय मुख्यत: विशेष जरूरतों के लिए अब तक इसका सहारा लिया गया है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य इसके प्रयोग से तत्काल राहत प्रदान करना है, हालांकि न्यायपालिका में ढांचागत कमियों को संबोधित करने के बजाय ऐसे अस्थायी उपायों पर निर्भरता कुछ बुनियादी सवाल भी खड़े करती है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जजों की तदर्थ नियुक्तियों के लिए कुछ दिशानिर्देश तय किए हैं। कोर्ट ने कहा है कि ऐसा तभी किया जाना चाहिए जब रिक्तियां मंजूर कार्यबल के 20 फीसदी को पार कर जाएं या फिर 10 फीसदी से ज्यादा मुकदमे पांच साल पुराने हो चुके हों। हो सकता है यह कसौटी कारगर साबित हो, लेकिन दीर्घकालिक समाधान के नजरिये से यह सकारात्मक रणनीति के बजाय प्रतिक्रिया ज्यादा जान पड़ती है। इसलिए इस पर सवाल उठ रहे हैं।
बैकलॉग मुकदमों के निपटारे के लिए तदर्थ जजों पर निर्भरता इस लिहाज से एक गहरे पुराने जख्म पर महज मरहम-पट्टी करने जैसी कवायद है। हो सकता है इससे तात्कालिक राहत मिल जाए लेकिन यह न्यायिक अक्षमताओं को पैदा करने वाले मुद्दों को संबोधित नहीं करता। अवकाश प्राप्त तदर्थ जज पूर्णकालिक सेवारत जजों के मुकाबले उसी स्तर पर जवाबदेह और सक्रिय नहीं हो सकते। इससे फैसलों में विसंगति और न्यायिक मानकों के कमजोर होने का खतरा बना रहेगा।
इतना ही नहीं, न्यायिक अखंडता के क्षरण को लेकर भी चिंताएं हैं। तदर्थ जजों की नियुक्ति प्रक्रिया नियमित जजों की प्रक्रिया के जितनी कड़ी नहीं है। यह योग्यता और पारदर्शिता के सवाल को पैदा करती है। इसे अगर कायदे से नहीं बरता गया तो नियुक्तियों में पक्षपात और पूर्वाग्रह की धारणाएं पैदा हो सकती हैं, जिससे पहले से ही कमजोर हो चुकी व्यवस्था में लोगों का भरोसा और कम हो सकता है। इसके असर व्यापक हो सकते हैं।
तदर्थ जजों की नियुक्ति जवाबदेही और निगरानी से जुड़ी संवैधानिक चिंताएं भी पैदा करती है। अनुच्छेद 124 (2) कहता है कि जजों की नियुक्ति उनकी योग्यता और पद के लिए उपयुक्तता पर आधारित होनी चाहिए। तदर्थ नियुक्ति पर भरोसा करना इन संवैधानिक निगरानियों के कमजोर होने का खतरा पैदा कर सकता है। यह पक्षपात के लिए रास्ता बना सकता है और संदेह पैदा कर सकता है, जो आखिरकार एक अराजक व्यवस्था की ओर ले जा सकता है।
तदर्थ नियुक्ति की व्यवस्था न्यायिक स्वतंत्रता से भी समझौता कर सकती है, जो हमारे लोकतांत्रिक ढांचे की कसौटी है। यह धारणा कि न्यायिक पद मनमर्जी से भरे जाते हैं, स्थायी नियुक्तियों की शुचिता को प्रभावित कर सकती है और कानून के राज के लिए उसके दीर्घकालीन निहितार्थ हो सकते हैं।
इसलिए तदर्थ नियुक्तियों पर भरोसा करने के बजाय मौजूदा रिक्तियों को योग्य प्रत्याशियों से भरने को तरजीह देना अहम है। इसके लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों को वचनबद्ध होना पड़ेगा ताकि नियुक्ति प्रक्रिया को सुगम बनाया जा सके और इसकी राह में नौकरशाही की अड़चनों को दूर किया जा सके। समयबद्ध न्याय देने और जनता का विश्वास कायम रखने के लिए जरूरी है कि न्यायपालिका में कार्यबल पूरा हो।
इन नियुक्तियों को मौजूदा मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर से निर्देशित होना चाहिए ताकि यह तय हो सके कि केवल उपयुक्त अनुभव और विशेषज्ञता वालों को ही संज्ञान में लिया जाएगा। यह जरूरी है कि हम तदर्थ जजों की नियुक्ति के लिए स्पष्ट मानक बनाएं ताकि उससे राजनीतिक प्रभाव या पक्षपात की बू न आने पाए।
इतना ही नहीं, नए जजों के प्रशिक्षण और क्षमता संवर्द्धन पर भी निवेश किया जाना चाहिए। एक मजबूत प्रशिक्षण ढांचा जजों को जटिल न्यायिक मसलों से निपटने और मुकदमों के बोझ का प्रबंधन करने के लिए जरूरी कौशल मुहैया करा सकता है। इससे न सिर्फ जजों का निजी प्रदर्शन सुधरेगा बल्कि न्यायपालिका और ज्यादा सक्षम व प्रतिस्पसर्धी बनेगी।
इसके अलावा, ऐसा माहौल भी बनाना जरूरी है, जो जजों को लगातार सीखने को प्रोत्साहित कर सके। नियमित कार्यशालाएं, सेमीनार और प्रशिक्षण कार्यक्रम उभरती हुई न्यायिक कसौटियों और आचारों से अद्यतन रहने में जजों की मदद कर सकते हैं जिससे न्याय देने की उनकी सक्षमता में इजाफा हो सकता है। न्यायपालिका में जनता का भरोसा कायम रखना सबसे अहम चीज है। इसके लिए नियुक्ति प्रक्रिया और न्यायिक कार्यवाही दोनों में पारदर्शिता की दरकार है। इसलिए जजों का चुनाव कैसे किया जा रहा है और लंबित मुकदमों का प्रबंधन कैसे हो रहा है, इस बारे में स्पष्ट संदेश लोगों की समझ को बढ़ा सकेगा और न्यायिक व्यवस्था पर लगे जाले साफ कर सकेगा।
विभिन्न पक्षकारों, जैसे पेशेवर कानूनविदों, नागरिक समाज संगठनों और अकादमिक संस्थानों के साथ संवाद न्यायिक प्रक्रियाओं में सुधार के लिए बहुमूल्य अंतर्दृष्टि दे सकता है। मिलजुल कर किए गए काम ऐसे नवाचारी समाधान दे सकते हैं जो बैकलॉग मुकदमों और व्यवस्थागत खामियों को एक साथ संबोधित कर सकें। निगरानी की प्रणाली स्थापित करने से जवाबदेही बढ़ सकती है। ऐसी प्रणालियों में न्याियक प्रदर्शन की नियमित जांच और केस निपटारे की दर का सार्वजनिक उद्घाटन शामिल हो सकते हैं, जो नागरिकों में न्यायपालिका की प्रभावकारिता के प्रति भरोसा जगा सकेंगे।
अब समय आ गया है कि देश की न्यायपालिका अस्थायी उपाय करने के बजाय व्यवस्थागत बदलावों को गले लगाए ताकि वह मौजूदा मांगों की पूर्ति कर सके और संवैधानिक आदर्शों के प्रति सच्ची बने रहकर भविष्य की पीढि़यों की सेवा कर सके। अनुच्छेद 224ए गहराते संकट की तात्कालिक प्रतिक्रिया हो सकता है, लेकिन वह न्या़यिक सुधार का विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि न्यायपालिका का काम महज न्याय देना नहीं, बल्कि स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से न्याय देते हुए दिखना भी है। फिर, आज के दौर में जब विपक्ष और कई हलकों से न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठ रहे हों तो संजीदा उपाय जरूरी हैं।
(लेखक कानून के शोधकर्ता हैं, विचार निजी हैं)