कहां तो कोविड-19 के बाद बुनियादी मानवाधिकारों, सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा पर जोर बढ़ने और विकास की धारा मुड़ने के कयास लगाए जा रहे थे, लेकिन लगभग डेढ़ सौ वर्षों के दुनिया भर में चले संघर्षों और विचार-मंथनों के बाद हासिल श्रमिक अधिकार ही छीन लिए गए, वह भी नामुराद अध्यादेशों के जरिए। यह भी याद रखिए कि यह तब हुआ जब मजदूरों की दुर्दशा समूचे देश की सड़कों पर बिखरी पड़ी है। हालांकि यह केंद्र ने नहीं, कुछ राज्यों ने किया। समवर्ती सूची में होने से ये अध्यादेश केंद्र के पास भेजे गए हैं और केंद्र के सत्ता गलियारों और उद्योगपतियों की ओर से भी इसे महान श्रम सुधार बताया जाने लगा है। आखिर नव-उदारवादी पैरोकारों की जो मुराद उदारीकरण के तकरीबन तीन दशकों और नरेंद्र मोदी सरकार के छह साल में पूरी नहीं हो पाई, उसका मौका कोविड महामारी ने दे दिया। कई राजनैतिक पार्टियां और लगभग सभी ट्रेड यूनियन इसका विरोध कर रहे हैं लेकिन आइए देखें इसकी पहल आगे बढ़ी कैसे।
सबसे पहले महज तीन को छोड़कर समस्त श्रम कानूनों को मुल्तवी करने का अध्यादेश उत्तर प्रदेश से आया। फिर मध्य प्रदेश और गुजरात भी उसी रास्ते पर चले। फिर एकाध कानूनों पर कैची पंजाब, राजस्थान ने भी चला दी। यह सब कोविड-19 संकट से ठप हुई अर्थव्यवस्था को उबारने के नाम पर किया गया।
अब जरा यह भी जान लीजिए वह कौन से अधिकार हैं, जिन्हें छीनकर अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी। अब कारोबारियों को वेतन देने में कई मामलों में न्यूनतम वेतन कानून का पालन करने की जरूरत नहीं होगी। सैलरी उसकी मर्जी से तय होगी। इसी तरह कार्यस्थल पर पानी-शौचालय, खाने की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी बिजनेसमैन पर नहीं रह जाएगी। किसी भी विवाद के समय श्रम न्यायालय के पास दरवाजा खटखटाने की बाध्यता भी नहीं रहेगी। यानी फैक्टरी मालिक पर कानून का डर खत्म होगा।
खैर, राज्य सरकारों के इस फैसले के खिलाफ देश के मजदूर संगठन खड़े हो गए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अनुषंगी मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ भी इन फैसलों के खिलाफ हो गया है। उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष सजी नारायण ने इसे जंगल-राज जैसा बताया और इन शोषणकारी फैसले के खिलाफ लड़ाई लड़ने का संकल्प दोहराया है। दूसरे संगठन तो यहां तक कह रहे हैं कि अगर राज्य सरकारें इस फैसले को वापस नहीं लेती हैं, तो मजदूर 150 साल पहले वाले दौर में पहुंच जाएंगे। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी कहा, “कोविड-19 की लड़ाई मजदूरों के शोषण और उनकी आवाज को दबाने का बहाना नहीं हो सकती।” मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के महासचिव सीताराम येचुरी के नेतृत्व में सात राजनैतिक दलों के नेताओं ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर हस्तक्षेप करने की मांग की है।
क्या हैं राज्यों के नए फरमान
उत्तर प्रदेश सरकार 6 मई को “उत्तर प्रदेश कतिपय श्रम विधियों से अस्थायी छूट अध्यादेश, 2020” ले आई। इसके तहत राज्य में काम कर रहे सभी कारखानों और उत्पादन इकाइयों को तीन साल के लिए सभी श्रम कानूनों से छूट दी गई है। इससे बाहर सिर्फ बंधुआ श्रम प्रथा अधिनियम 1976, कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम 1923, बिल्डिंग एेंड अदर्स कंस्ट्रक्शन एक्ट 1996, पेमेंट ऑफ वेजेज सेटलमेंट एक्ट 1936 की धारा- 5 और बच्चों और महिलाओं से संबंधित कानूनों को रखा गया।
इसी तरह मध्य प्रदेश सरकार ने 7 मई को बड़े पैमाने श्रम कानूनों में ढील दे दी। इसके तहत औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 में संशोधन के बाद संस्थान अपनी सुविधानुसार श्रमिकों को नौकरी पर रख सकेगा। उद्योगों पर श्रम विभाग एवं श्रम न्यायालय का हस्तक्षेप बंद हो जाएगा। मध्य प्रदेश औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधिनियम 1961 में संशोधन के बाद 100 श्रमिक वाले कारखानों को अधिनियम के प्रावधानों से छूट मिल जाएगी। मध्य प्रदेश श्रम कल्याण निधि अधिनियम 1982 में संशोधन से मध्य प्रदेश श्रम कल्याण मंडल को प्रतिवर्ष प्रति श्रमिक 80 रुपये के अंशदान और वार्षिक रिटर्न से भी छूट मिल जाएगी। ठेका श्रमिक अधिनियम 1970 में संशोधन के बाद 50 से कम श्रमिक नियोजित करने वाले ठेकेदार बिना रजिस्ट्रेशन के काम करा सकेंगे। पहले अगर कोई न्यूनतम मजदूरी न दे तो लेबर इंस्पेक्टर को मुकदमा करने अधिकार था, जिसमें 6 महीने की जेल या मजदूरी के सात गुना जुर्माने का भी प्रावधान था। इसे बदल दिया गया है।
गुजरात सरकार ने भी नई औद्योगिक इकाइयों को श्रम कानूनों के पालन में 1,200 दिन की छूट दे दी है। इन इकाइयों को केवल न्यूनतम वेतन कानून, औद्योगिक सुरक्षा और कर्मचारी मुआवजा कानून का ही पालन करना होगा। साथ ही हफ्ते में काम करने की अवधि 48 घंटे से बढ़ाकर 72 घंटे कर दी गई है। इसी तरह राजस्थान ने भी काम करने की अवधि 72 घंटे कर दी है, औद्योगिक विवाद कानून में बदलाव कर दिया है। पहले यह 100 से ज्यादा कर्मचारियों वाली कंपनी पर लागू होता था। अब 300 से ज्यादा कर्माचारियों वाली कंपनियों पर लागू होगा। ऐसे में, कर्मचारियों में नौकरी की असुरक्षा बढ़ेगी।
इन बदलावों से क्या है खतरा
भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष सजी नारायण का कहना है, “नए प्रावधानों से श्रमिकों का शोषण बढ़ जाएगा। यह समझना बेहद जरूरी है कि औद्योगिक विकास में श्रम कानून कभी बाधा नहीं होते हैं। अगर सरकार विकास चाहती है तो ब्यूरोक्रेटिक रिफॉर्म की जरूरत है। सरकारें प्रवासी मजदूर कानून को भी कमजोर करना चाहती हैं, जिससे शोषण बढ़ेगा।” कांग्रेस के श्रमिक संगठन इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस के प्रेसिडेंट डॉ. जी. संजीव रेड्डी ने कहा, “यह अंतरराष्ट्रीय श्रम कानूनों का भी उल्लंघन करता है। हम इसके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन से शिकायत करेंगे। यह हमें गुलामी के दौर में ले जाएंगे।” वाम दलों के संगठन द सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) के महासचिव तपन सेन ने कहा, “इसका हम पूरी सख्ती के साथ विरोध करते हैं। हम सभी लोगों से अपील करते हैं वे इन निर्दयी कानून के खिलाफ एकजुट होकर खड़े हों।”
मजदूर किसान शक्ति संगठन से जुड़ीं अरुणा रॉय कहती हैं, “दुनिया भर में दशकों के संघर्ष से ये कानून निकले थे। यह संवैधानिक ढांचे पर भी आघात है। आज अगर अंतर-राज्यीय प्रवासी कामगार कानून का ठीक से पालना किया गया होता तो हर सरकार के पास यह आंकड़ा होता कि उनके राज्य में कितने प्रवासी मजदूर किस-किस जगह से हैं। न्यूनतम मजदूरी की लड़ाई कोई नई नहीं है। इस कानून को खत्म करने का मतलब है बंधुआ मजदूरी, क्योंकि अब काम के अभाव और भूखमरी का फायदा उठाकर कोई भी न्यूनतम मजदूरी से कम पर काम करवाएगा।"
बढ़ते विरोध का दबाव केंद्र सरकार पर भी दिखने लगा है। सूत्रों के अनुसार 6 मई को श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ श्रम मंत्री संतोष गंगवार की बैठक हुई, जिसमें सरकार की तरफ से श्रमिक संगठनों को आश्वासन दिया गया है कि वह श्रम कानूनों को कमजोर करने वाला अध्यादेश नहीं लाएगी। अब देखना है कि महामारी में पहले से असहाय हो चुके मजदूरों के हितों की रक्षा कैसे होती है।
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उत्तर प्रदेश
केवल बंधुआ श्रम प्रथा अधिनियम, कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, बिल्डिंग ऐंड अदर्स कंस्ट्रक्शन एक्ट, पेमेंट ऑफ वेज सेटलमेंट एक्ट की धारा-5 और बच्चों एवं महिलाओं से संबंधित कानून लागू रहेंगे।
मध्य प्रदेश
उद्योगों पर श्रम विभाग एवं श्रम न्यायालय का हस्तक्षेप बहुत कम रह जाएगा। 100 श्रमिक तक वाले कारखानों को कई नियमों में छूट, 50 से कम कर्मचारी वाली कंपनियों को बिना रजिस्ट्रेशन के कर्मचारी रखने की अनुमति होगी।
गुजरात
नई औद्योगिक इकाइयों को 1,200 दिन तक श्रम कानूनों से छूट। केवल न्यूनतम वेतन, औद्योगिक सुरक्षा और कर्मचारी मुआवजा कानून का ही पालन करना होगा।
राजस्थान
औद्योगिक विवाद कानून अब 300 और उससे ज्यादा के कर्मचारी वाली कंपनियों पर ही लागू होगा। कर्मचारी के काम करने के घंटे एक हफ्ते में बढ़ाकर 72 घंटे किया।