कला और किस्सागोई के हमारे सामूहिक अनुभव में सिनेमा का आगमन एक क्रांतिकारी घटना थी। उसके पहले के माध्यमों के बरअक्स यह ऐसा ताकतवर माध्यम था जो सभी तरह की संरचनाओं से परे था। साहित्य या उच्च कला के विपरीत, जिनके लिए सैद्धांतिक शिक्षा के आधार की जरूरत होती थी, अंधेरे कमरे में चलती-फिरती छवियों को दिखाना आसान था। उनमें यह क्षमता थी कि वे मन की भावनाओं, तरह-तरह के हाव-भाव और संदेशों को भी दिखा सकते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि शब्दों और सुंदर चित्रों के माध्यम से जो बताया-दिखाया जा सकता है, उसका प्रभाव कहीं अधिक होता है।
दृश्यों के जरिये कहानी सुनाने की कला नाटकों और जीवंत प्रस्तुतियों के रूप में फिल्मों में पहले से चली आ रही थी। फिल्म माध्यम के विकास का मतलब था कि अब देखना-दिखाना ऐसी जगहों तक ही सीमित नहीं रह गया जहां सामाजिक हैसियत के अनुसार प्रवेश मिलता था- सिनेमा ब्रॉडवे के ओपेरा से अलग था, जिसको देखने की इजाजत उन लोगों को थी जिनकी सामाजिक हैसियत होती थी। सिनेमा पूरी तरह सार्वजनिक माध्यम था। उपभोग और आम लोगों पर असर डालने वाले नतीजे, दोनों रूपों में।
जैसे-जैसे सिनेमा माध्यम का विकास होता गया, उसकी संभावनाओं को लोगों ने ज्यादा पहचाना और आजमाना शुरू किया। डी. डबल्यू. ग्रिफिथ की फिल्म द बर्थ ऑफ ए नेशन (1915) ने नस्लवाद और नफरत को महिमामंडित करने का काम किया जिसके कारण कु क्लक्स क्लैन को शह मिली। इसे उस बड़ी ताकत के रूप में दिखाया गया था जो अमेरिका में श्वेतों की श्रेष्ठता को बरकरार रखने की लड़ाई लड़ रहा था। कुछ दशक बाद लीनी रीफेन्शटाय जैसे कुछ फिल्मकारों को नाजी जर्मनी का संरक्षण हासिल हुआ। एडोल्फ हिटलर और उसके प्रचार मंत्री जोसेफ गोयबल्स ने ट्रायम्फ ऑफ द विल (1935) और ओलंपिया (1938) जैसी फिल्मों के निर्माण को बढ़ावा दिया। इन फिल्मों में आर्य जर्मनी के नजरिये को दिखाया गया था। इन फिल्मों के माध्यम से उन्होंने अपनी खतरनाक विचारधारा के लिए जन-समर्थन हासिल किया। दोनों प्रकार के उदाहरण बताते हैं कि फिल्मों का प्रभाव कितना था, हालांकि इनके माध्यम से देखने वालों के मानस को प्रदूषित करने का ही काम किया गया।
साहब, बीवी और गुलाम में रहमान और मीना कुमारी
उन्हीं दिनों भारत में पहली बोलती फिल्म आलम आरा (1931) बनी। 1935 आते-आते कलकत्ता, मद्रास और बंबई जैसे महानगरों में फिल्म स्टूडियो बनने लगे।
1947 में भारत के आजाद होने तक सिनेमा को बनते लंबा समय बीत चुका था। कला माध्यम के रूप में, व्यावसायिक उत्पाद के रूप में और एक शक्तिशाली संदेशवाहक के रूप में यह धीरे-धीरे बेहतर होता गया था। फिर भी आजाद भारत में सिनेमा ने अपने लिए जो जगह बनाई, शायद दुनिया में वैसा कहीं नहीं था। यह नये देश में राष्ट्रीय पहचान के निर्माण का एकीकृत हिस्सा था। एक ऐसे देश में, जो अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रहा था, अपने लिए और शेष संसार के लिए भी अपनी प्रकृति, अपनी चिंताएं और आकांक्षाएं जाहिर कर रहा था। भारत ऐसी राजनीतिक इकाई थी जहां बड़े पैमाने पर विविधता थी, ऐसा देश जो भोजन, आवास, शिक्षा जैसी बुनियादी इंसानी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहा था। ऐसे में सिनेमा के अध्ययन से समाज की वास्तविक और बनाई जा रही छवि की अनूठी और गहरी समझ बनती है।
वैसे तो, भारत में आजादी के पहले से सिनेमा का शानदार इतिहास रहा है, लेकिन इस लेख में 1947 के बाद के सिनेमा पर विचार किया गया है। यानी किस तरह फिल्में बनने लगीं और उत्तर-औपनिवेशिक काल में दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र की आर्थिक और राजनीतिक अवस्थाओं ने उसे कैसा रूप दिया।
पिछले सात दशक के दौरान भारत में तरह-तरह की फिल्मों का अलग-अलग विषयों पर निर्माण हुआ है। उनका सौंदर्यशास्त्र और कहानी सुनाने की शैलियां अलग रहीं। अलग नजरिये रहे, जिनके आधार पर मोटे तौर पर इसकी सूची तैयार हो सकती है कि किसी खास दौर में किस तरह की फिल्मों का निर्माण हुआ। इसका यह मतलब नहीं कि किसी खास दौर के सिनेमा को सामान्य खांचे में ढाला जा सके। कोशिश यह जानने की है कि किसी काल में लोकप्रिय सिनेमा में किस तरह से उस दौर के विचारों और प्रवृत्तियों को दर्शाया गया। किस तरह से बदले में उस सिनेमा ने लोकप्रिय विचारों और संस्कृति को रूप देने का काम किया।
आजादी के बाद के पहले दशक के दौरान आश्चर्यजनक रूप से ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिनमें नवजात राष्ट्र के तुमुल कोलाहल की कहानियां थीं। एक तरफ आजादी नये समाज के भविष्य के लिए आशावादी आदर्शवाद लेकर आई, वहीं दूसरी तरफ उसके कारण वे मुद्दे उभरकर आए जिनका उस समय देश सामना कर रहा था। इस दौर की फिल्में न केवल समाजशास्त्रीय थीं बल्कि शहरी और ग्रामीण भारत, अमीर और गरीब, नये और पुराने के बीच की खाई को दिखा रही थीं, जिसकी पृष्ठभूमि में नेहरूवादी समाजवाद था लेकिन विभाजन के ताजा घाव भी थे।
ऋत्विक घटक की नई लहर की बांग्ला फिल्म नागरिक (फिल्म पूरी तो 1952 में हुई लेकिन 1977 के पहले सिनेमाहॉल में रिलीज नहीं हो पाई) में कोलकाता में पूर्वी बंगाल के एक शरणार्थी की कहानी है, जिसमें एक तरफ छूटे हुए घर को लेकर पुरानी पीढ़ी का नॉस्टेल्जिया है तो दूसरी तरफ अपने बच्चों के भविष्य को लेकर सजग आशावाद भी, जबकि उनको अनिश्चितता और अलगाव के भाव के साथ रहना पड़ रहा है। बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा जमीन (1953) रबींद्रनाथ टैगोर की कविता और इतालवी न्यू वेव सिनेमा से प्रेरित थी। इसमें जमींदार द्वारा छोटे काश्तकार के उत्पीड़न का विषय उठाया गया था। यह दिखाया गया था कि जमींदारी प्रथा अमानवीय थी। इस कहानी की पृष्ठभूमि में औद्योगिकीकरण है। एक गरीब किसान शंभु की कहानी (बलराज साहनी ने बखूबी भूमिका निभाई थी) है, जिसकी थोड़ी-सी जमीन को जमींदार नयी मिल के निर्माण के लिए ठग लेता है। मजबूर शंभु को आजीविका के लिए परिवार के साथ कोलकाता जाना पड़ता है। वह कठिन और न भुलाया जा सकने वाला जीवन जीता है जिसे अपनी दो बीघा पुश्तैनी जमीन को लेकर खोयी हुई उम्मीद है।
महानगर में एक ग्रामीण भारतीय को क्या अनुभव होते हैं, अमित और शंभु मित्रा की फिल्म जागते रहो (1956) का यही विषय है। उस फिल्म ने उस रूपक को और मजबूत बनाया कि सीधे-सादे गांववालों के साथ शहर में रहने वालों का बरताव कितना संवेदनहीन होता है कि वे उसे पीने के लिए एक गिलास पानी तक नहीं देते। इस तरह की फिल्मों ने सोचने के लिए विवश किया कि स्वतंत्रता के वादे और रोजमर्रा के जीवन की क्रूर वास्तविकताओं के बीच खाई कितनी चौड़ी थी, जिसमें गरीबों और हाशिये पर रहने वालों को जीवन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था। इस दशक की अन्वेषी और उपदेश-प्रधान फिल्मों में 1957 की दो फिल्में ऐसी हैं जिनको क्लासिक का दर्जा दिया जाता है- बी. आर. चोपड़ा की नया दौर (1957), जिसमें परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व को दिखाने के लिए उस बस और घोड़े से चलने वाली बग्घी के बीच दौड़ दिखायी गई, जो बग्घी की जगह लेने वाली थी। दूसरी है महबूब खान की मदर इंडिया- जिसने नरगिस को देश के प्रतीक में बदल दिया। इसने आत्मत्याग करने वाली मां का रूपक गढ़ा, जो बड़ी से बड़ी निजी क्षति के बावजूद अपने मूल्यों को बचाये रखती है। पहले दशक में ऐसे देश को दिखाया गया जो बदल रहा था, जो अपनी पीड़ाओं से निपट रहा था और जो पुराने तथा नये समाज के वादे के संधि-स्थल पर खड़े होकर चीजों को देख रहा था, जिसमें वे सपने पूरे होते दिखायी नहीं दे रहे थे जो नेताओं ने दिखाए थे।
मदर इंडिया के दृश्य में नर्गिस, सुनील दत्त और राजेन्द्र कुमार
उस दौर के बाद सिनेमा में आगे का नजरिया अधिक दिखायी देने लगा। सामाजिक रूप से अधिक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण फिल्में बनायी जाती रहीं। बिमल रॉय की फिल्म सुजाता (1959) में जाति की बुराइयों को दिखाया गया। सुजाता की भूमिका नूतन ने निभायी थी, जो जाति-आधारित भेदभाव और छुआछूत के खिलाफ बाबासाहेब आंबेडकर की लड़ाई की याद दिलाती है। दूसरी तरफ सुबोध मुखर्जी की फिल्म जंगली (1961) आयी, जो हल्की-फुल्की रोमांटिक कॉमेडी थी, जिसने शम्मी कपूर के याहू वाले भड़कीले किरदार को अमर बना दिया। अमीर परिवार का युवक अपनी मां के आभिजात्य को ठुकरा कर साधारण परिवार की लड़की सायरा बानो से मुहब्बत करता है। बाद में ऐसी बहुत-सी फिल्में आयीं जिनमें इस तरह के वर्ग-संघर्ष को दिखाया गया। उनमें प्रेम कहानियां होती थीं और तानाशाह किस्म के अमीर मां-बाप होते थे, लेकिन अंत सुखद होता था।
उस दौर में बड़े पैमाने पर समकालीन साहित्य को सिनेमा के परदे पर उतारा गया जिसके कारण साहित्य को बड़ा दर्शक-वर्ग मिला। 1962 में आयी फिल्म साहिब, बीवी और गुलाम गुरुदत्त ने बनायी थी, जो बिमल मित्र के इसी नाम के बांग्ला उपन्यास पर आधारित थी। शैलेंद्र की फिल्म तीसरी कसम (1966) फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम पर आधारित थी। सिनेमा के परदे ने इन कहानियों को नया जीवन दिया। दोनों फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और भारत की सर्वकालिक महान फिल्मों की जितनी सूचियां बनीं लगभग हर सूची में दोनों फिल्मों का नाम आता रहा है।
1960 के दशक ने इसमें और जान फूंकने का काम किया और सिनेमा में नजरिया बदलने लगा। अब आधुनिकता व्यक्तियों में दिखायी जाने लगी। महान फिल्मकार सत्यजीत राय ने महानगर (1963) बनायी, जो बाहर काम करने जाती मध्यवर्गीय स्त्री की कहानी है। फिल्म बताती है कि कैसे कामकाजी औरतों को घर और बाहर दोनों स्थानों पर पितृसत्तात्मक पूर्वग्रहों का सामना करना पड़ता था। रामू करियात द्वारा निर्देशित फिल्म चेम्मीन (1965) तथा विजय आनंद की फिल्म गाइड (1965) में दिखाया गया कि सामाजिक रीति-रिवाजों को लेकर अब सवाल उठाये जाने लगे थे। इन फिल्मों में स्त्रियां केवल अपने पतियों से खुश नहीं थीं। वे अपने आप में उलझन भरी किरदार थीं जिनकी अपनी प्रेरणाएं थीं, अपनी कमजोरियां भी थीं। बासु चटर्जी की फिल्म सारा आकाश (1969) में अरेंज मैरेज की संस्था तथा पितृसत्तात्मक नजरिये को लेकर आलोचनात्मक रुख दिखाया गया है। 1950 के दशक की फिल्मों में गांव बनाम शहर और वर्ग के सवाल जैसे बड़े सामाजिक परिदृश्य को ध्यान में रखा गया था जबकि 1960 के दशक की फिल्मों में यथास्थितिवाद को लेकर सवाल उठाये जाने लगे- खासकर परिवार और विवाह जैसे निजता के दायरे को लेकर। फिल्मों में घर के बाहर संसार में राष्ट्रहित और पीड़ा पर ध्यान दिया गया। 1962 में चीन के विरुद्ध युद्ध में भारत की पराजय के दो साल के बाद चेतन आनंद ने हकीकत (1964) बनायी और इसे प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और भारतीय सेना के जवानों को समर्पित किया। युद्ध पर भारत में बनायी गयी यह पहली फिल्म थी जिसके केंद्र में रेजांग ला का युद्ध था, जिसमें 13 कुमाऊं रेजिमेंट के जवानों ने दम भर लड़ाई लड़ी। फिल्म ने बहादुर सिपाहियों की शहादत के जरिये राष्ट्रवादी आत्मत्याग की भावना को जगाया, जिसे गीता विश्वनाथ ने राष्ट्रवादी मां कहा, जो युद्ध में शहीद होने के लिए बच्चे पैदा कर रही थी।
1970 के दशक में भारत में एक अलग ही तरह की राष्ट्रवादी मां ने अमिट छाप छोड़ी। इंदिरा गांधी 1966 में प्रधानमंत्री बनीं और 1969 में वे कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से अलग हो गयीं। वे भारत की विराट मां के रूप में उभरीं- उस दशक में लोगों की कल्पना और राजनीति में उन्होंने खुद को मजबूत किया। उनकी छत्रछाया में फिल्म्स डिवीजन ऑफ इंडिया ने आवर इंदिरा (1973) तथा द इंडियन विमन: ए हिस्टोरिकल रिअसेसमेंट (1975) बनायी। इसमें प्रधानमंत्री को सहिष्णु लेकिन सख्त नेत्री के रूप में दिखाया गया जो देश में सामाजिक उत्थान और प्रगति के काम को बढ़ावा दे रही थीं। साथ ही संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं में भारत का प्रतिनिधित्व भी कर रही थीं। यह दौर एंग्री यंग मैन यानी असंतुष्ट और दिग्भ्रमित युवाओं का भी था। इसे अमिताभ बच्चन ने परदे पर उतारा और सलीम-जावेद की लेखक जोड़ी ने रचा। इन्होंने प्रकाश मेहरा की जंजीर (1973) और यश चोपड़ा की दीवार (1975) लिखी, जिसमें शहर में बढ़ती बेरोजगारी, अपराध तथा भ्रष्ट व्यवस्था के दौर में हिंसा का विस्फोट हो रहा था। इन फिल्मों में किरदारों की पीड़ा को अ्रकसर सरकार के अधूरे वादों के रूप में दिखाया जाता था, जिसमें नायक फिल्म के क्लाइमैक्स में हिंसा के माध्यम से बदला लेता था। दर्शकों को इससे भावनात्मक सुकून मिलता था। एक तरफ जहां अमिताभ बच्चन की फिल्मों में भीड़ जुट रही थी, उसी दौर में श्याम बेनेगल के निर्देशन में आयी पहली फिल्म अंकुर (1974) समांतर सिनेमा का बड़ा उदाहरण बनी। इस तरह की फिल्में बनाने में राय, घटक, गुरु दत्त को महारत हासिल थी। इस फिल्म में गांव के सामंती ढांचे को दिखाया गया था जो आज भी ग्रामीण भारत में मौजूद है। इस फिल्म की सफलता के साथ समांतर सिनेमा का नया दौर शुरू हुआ। निशांत, मंथन, भूमिका जैसी फिल्मों से श्याम बेनेगल ने बड़े फिल्मकार के रूप में अपनी जगह मजबूत की। उनकी फिल्मों ने वह मंच तैयार किया जिसके आधार पर भविष्य में सईद अख्तर मिर्जा की फिल्म अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है (1980) और सलीम लंगड़े पे मत रो (1989), अडूर गोपालकृष्णन की इलिप्पथयम (1982), सागर सरहदी की बाजार (1982) और केतन मेहता की मिर्च मसाला (1987) आई।
परदे के बाहर की दुनिया में राजनीतिक असंतोष बढ़ता जा रहा था। छात्रों तथा श्रम संगठनों के आंदोलन व हड़तालें बढ़ती जा रही थीं। युवाओं के गुस्से के कारण इंदिरा गांधी को 1975 में इमरजेंसी लगानी पड़ी, जिसकी वजह से तानाशाही का अंधेरा दौर शुरू हुआ। असंतोष को दबाया जाने लगा तथा जनतंत्र का क्षरण होने लगा। गुलजार की फिल्म आंधी (1975) एक राजनीतिक ड्रामा थी, जिसकी नायिका की छवि इंदिरा गांधी से मेल खाती थी। फिल्म पर इमरजेंसी की घोषणा के साथ ही प्रतिबंध लगा दिया गया। जब तक 1977 में इंदिरा गांधी की सरकार का पतन नहीं हुआ तब तक फिल्म को ठीक से प्रदर्शित नहीं होने दिया गया, जबकि निर्देशक कहते रहे कि फिल्म का इंदिरा से कुछ लेना-देना नहीं है। इसके अलावा अमृत नाहटा की किस्सा कुर्सी का (1976) में इमरजेंसी के दौरान की गयी ज्यादतियों को विषय बनाया गया था। इसके बारे में यह प्रसिद्ध है कि संजय गांधी ने फिल्म की मूल रील ही जलवा दी थी। फिल्म के नष्ट होने से विचलित हुए बिना नाहटा ने दो साल बाद दोबारा पूरी फिल्म बना कर रिलीज की। इसमें मजाकिया तरीके से दिखाया गया था कि नेता किस तरह भोली-भाली जनता को छलते हैं। इसमें जनता की भूमिका शबाना आजमी ने निभायी थी।
सत्तर के दशक में राजनीतिक उथल-पुथल ने सिनेमा में जगह ले ली थी। भ्रष्टाचार तथा अन्याय से लड़ने की कहानियों पर राजनीतिक फिल्में बनायी गयीं, जिन्हें सेंसरशिप का सामना करना पड़ा। देश भर के फिल्मकारों ने सत्ता-प्रतिष्ठान की आलोचना के लिए फिल्म माध्यम का उपयोग किया। अवांगार्द तमिल फिल्मकार जॉन अब्राहम की फिल्म अग्रहरथिल कजुटै (1977) ब्राह्मणवादी अंधविश्वासों और धर्मांधता पर एक व्यंग्य थी। कन्नड़ में गिरीश कासरवल्ली की फिल्म घटश्राद्ध (1977) में एक युवा की निगाह से दिखाया गया कि समाज में कैसे विधवाओं के साथ बुरा बरताव किया जाता है। फिल्म में रेखांकित किया गया कि पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के शरीर पर उसे छोड़कर बाकी सभी का हक होता है।
1980 का दशक भारतीय सिनेमा के लिए अस्त-व्यस्त काल था। कुछ लोग इस काल के सिनेमा को नीची निगाह से देखते हैं क्योंकि इस काल में सिनेमा में फूहड़ता और मसाला यानी सेक्स, रोमांस और हिंसा पर जोर था। डिस्को डांसर (1982) में मिथुन चक्रवर्ती को मजदूर वर्ग के ऐसे लड़के के रूप में दिखाया गया जो आगे चलकर डिस्को डांसर बन जाता है। परदे पर जब वे आते थे तो दर्शक सीटियां बजाने लगते थे। राज कपूर की फिल्म राम तेरी गंगा मैली (1985) में सेक्स और नग्नता को लेकर बॉलीवुड की वर्जनाएं टूट गयीं, जिसमें मंदाकिनी को सफेद साड़ी में झरने के नीचे नहाते देखने के लिए दर्शक सिनेमाघरों में टूट पड़े। मिस्टर इंडिया (1987) एक और मनोरंजक फिल्म थी, जिसमें अनिल कपूर अदृश्य हो जाते थे। इस फिल्म में बॉलीवुड के सबसे रंगीन और यादगार खलनायकों में एक मोगाम्बो था। किरदार अमरीश पुरी ने निभाया था। इस दशक में अर्थ (1982) जैसी फिल्म भी आयी, जिसकी नायिका शबाना आजमी का पति जब धोखा देता है तो वह फैसला करती है कि उसे किसी आदमी की जरूरत नहीं है। स्वतंत्र स्त्री खुद को पीडि़ता के रूप में नहीं देखना चाहती और अपने पति को वापस लेने से मना कर देती है। भारतीय सिनेमा में स्त्रियों के चित्रण के मामले में यह मील के पत्थर की तरह है।
गैंगस्टर को लेकर बनायी गयी फिल्मों में गोविंद निहलानी की अर्धसत्य (1983) प्रभावशाली है, जिसमें ओम पुरी ने एक दुखी पुलिस अफसर की भूमिका निभायी थी, जिसने कानून की रक्षा और कानून तोड़ने के बीच की रेखा को तोड़ दिया था। विधु विनोद चोपड़ा की परिंदा (1989) में अपराध की दुनिया के लोगों के भावनात्मक रूप को दिखाया गया था। तमिल सिनेमा मणिरत्नम की नायकम (1987) के साथ झूम उठा था। यह फिल्म गॉडफादर से प्रेरित थी। इसी दौर की एक और शानदार फिल्म थी कुंदन शाह की जाने भी दो यारो (1983)। यह फिल्म कारोबार, मीडिया और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर चुभता हुआ एक व्यंग्य थी। फिल्म का निर्माण बहुत कम बजट में हुआ था और उसमें उस जमाने के सबसे अच्छे अभिनेताओं नसीरुद्दीन शाह, रवि वासवानी, ओम पुरी और सतीश शाह ने काम किया था। अक्सर इसे हिंदी की सार्वकालिक बेहतरीन कॉमडी फिल्म के रूप में देखा जाता है। इसे एनएफडीसी ने बनाया था, जिसकी स्थापना बेहतरीन फिल्मों के निर्माण के लिए इंदिरा गांधी ने एक दशक पहले की थी। एनएफडीसी रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी का भी सह-निर्माता था। इसे 1983 के ऑस्कर में 11 श्रेणियों में पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था और 8 वर्गों में पुरस्कार मिले थे। इस दशक की फिल्मों में ऐसे भारत को दिखाया गया जो तकनीकी रूप से दुनिया भर के प्रभावों के लिए अपने आपको खोल रहा था।
पैरेलल सिनेमा को धीरे-धीरे व्यावसायिक सिनेमा ढकने लगा
1991 में हुए आर्थिक सुधारों के बाद भारत में दुनिया भर का निवेश आना तेज हुआ। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के साथ अर्थव्यवस्था को खोला गया, जिसके कारण बड़े पैमाने पर उपभोक्तावाद का आगमन हुआ और मध्यवर्ग में एक नयी तरह की आकांक्षा का उद्भव हुआ। व्यावसायिक सिनेमा में गिरावट की प्रवृत्ति की शुरुआत 1980 के दशक में हुई, जिसमें घिसे-पिटे किरदार होते थे, प्रतीकात्मक कहानी और भड़कीला नाच-गाना होता था। बॉलीवुड की फिल्मों में स्टार सिस्टम का बोलबाला हो गया। गोविंदा की मजाकिया कॉमेडी के साथ-साथ बॉक्स ऑफिस पर पारंपरिक पारिवारिक ड्रामा ने धूम मचायी, जैसे सूरज बड़जात्या की हम आपके हैं कौन (1994) और हम साथ-साथ हैं (1999)। रोमांटिक संगीतमय फिल्में, जैसे यश चोपड़ा की दिल तो पागल है (1997), संजय लीला भंसाली की हम दिल दे चुके सनम (1999) और आदित्य चोपड़ा की दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995) बेहद लोकप्रिय हुईं। दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्मों में श्ाामिल हो गयी और शाहरुख खान अपने समय में रोमांटिक फिल्मों के बेताज बादशाह बन गए। ऐसी अधिकतर फिल्मों में अंतरराष्ट्रीय संवेदना बढ़ती गयी, जिसमें किरदार एनआरआइ होते थे, जो पारंपरिक भारतीय पारिवारिक मूल्यों तथा अपने दिल की ख्वाहिशों का पीछा करते हुए स्वतंत्र जीवन जीना चाहते थे। इन कहानियों में भारत की नयी पीढ़ी की आकांक्षाएं दिखाई दे रही थीं, जो धीरे-धीरे विश्व में अपने मुकाम को देख रही थी।
1990 के दशक के राजनीतिक उथल-पुथल और सांप्रदायिक तनाव- जिसके प्रभाव आज भी देखे जा सकते हैं- को लेकर भी फिल्में बनायी गयीं। इसके उल्लेखनीय उदाहरण मणिरत्नम की बॉम्बे (1995) और महेश भट्ट की जख्म (1998) हैं। तमिल फिल्म बॉम्बे में मुंबई में हुए दंगों की पृष्ठभूमि में हिंदू पुरुष और मुस्लिम महिला की प्रेम कहानी दिखायी गयी थी। जख्म में हिंदू सांप्रदायिकता के भयानक उभार पर निगाह डाली गयी है। नई शताब्दी के आगमन के आसपास भारत पहचान और विचारधारा के सावालों से जूझ रहा था और संरक्षणवाद के खोल से बाहर निकल रहा था- केवल आर्थिक रूप से ही नहीं बल्कि सामाजिक अर्थ में भी। इस संवेदना को शायद सबसे अच्छी तरह से दर्ज किया गया था 1998 में बनाये गये पेप्सी के एक विज्ञापन में, जो बेहद सफल रहा था। इसकी पंचलाइन थी- ये दिल मांगे मोर!
इक्कीसवीं सदी में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में नये विचारों और नये नजरियों को आजमाया जाने लगा। 2001 में एक के बाद एक ऐसी फिल्में आयीं, जो फॉर्मूला फिल्मों से हटकर थीं, जैसे आशुतोष गोवारिकर की फिल्म लगान, जिसमें कुछ उत्पीडि़त ग्रामीणों और अंग्रेजों के बीच क्रिकेट मैच के रूप में कहानी की कल्पना की गयी थी। इसे सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म की श्रेणी में ऑस्कर में नामांकित किया गया था। उसी साल फरहान अख्तर की दिल चाहता है आई, जिसमें तीन सम्भ्रान्त दोस्त गोवा की यात्रा पर जाते हैं। यह उस पीढ़ी के लिए सड़क यात्रा की फिल्मों में बड़ी फिल्म साबित हुई, जिसमें उच्च वर्ग के लड़के दोस्ती तथा प्रेम के उतार-चढ़ावों के बीच बकरदाढ़ी बढ़ाए स्पोर्ट्स कार चलाते दिखायी देते हैं। समाज के उच्च वर्ग से जुड़ी कहानियों को लेकर बनायी गयी फिल्मों में मीरा नायर की मानसून वेडिंग आयी, जिसमें यौन हिंसा, समलैंगिकता तथा पारंपरिक मूल्यों और आधुनिकता को विषय बनाया गया था।
अगर 1990 का दशक ऐसा था कि दुनिया भारत में आ रही थी, तो अब समय आ गया था कि भारत बाहर के देशों में जा रहा था, अधिक आश्वस्त भाव से। राष्ट्रवाद का भी नये अवतार में आगमन हुआ- फरहान अख्तर की लक्ष्य (2004) में एक दिशाहीन युवा सेना में जाकर अपने जीवन का अर्थ तलाश करता है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म रंग दे बसंती (2006) में दिखाया गया है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के मौज-मस्ती करने वाले कुछ छात्र एक फिल्म में स्वतंत्रता सेनानी की भूमिका निभाते-निभाते देश की भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ खुद क्रांतिकारी बन जाते हैं। इसी बीच आयी शिमित अमीन की चक दे इंडिया (2007) खेल के मैदान में राष्ट्रभक्ति की बात करती है जिसमें एक मुसलमान कोच महिला हॉकी टीम को जीत दिलाता है जबकि बतौर खिलाड़ी वह ऐसा नहीं कर पाया था। तब उसे मुसलमान होने के कारण हारने का आरोप झेलना पड़ा था।
इस दौर की फिल्मों ने बहुत सारी वर्जनाओं को भी तोड़ा। ओनिर की माइ ब्रदर निखिल (2005) में यह दिखाया गया है कि समलैंगिकता और एड्स के कारण लोगों को हाशिये पर धकेल दिया जाता है। विक्रमादित्य मोटवाने की फिल्म उड़ान (2010) में पिता-पुत्र के खराब संबंध और परिवार के बुरे पहलुओं को दिखाया गया है।
2010 के बाद ऐसे सिनेमा का दौर शुरू हुआ जिसको किसी जमाने में समांतर सिनेमा या कला सिनेमा कहा जा सकता था, लेकिन ऐसी फिल्मों को व्यावसायिक सफलता भी मिली। लोकप्रिय सिनेमा और कला सिनेमा के बीच की रेखा धूमिल पड़ गयी। अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012) एक आधुनिक क्लासिक फिल्म बन गयी, जिसमें एक सरगना के परिवार की तीन पीढ़ियों की कहानी है। आनंद एल राय की तनु वेड्स मनु (2011), अश्विनी अय्यर तिवारी की बरेली की बर्फी (2017) और शरत कटारिया की दम लगा के हइशा (2015) के कारण अधिक से अधिक दर्शक बड़े शहर की कहानियों से छोटे शहर की कहानियों की तरफ खिंचे चले आए, जिससे यह बात साबित हुई कि दर्शक ग्लैमर और चमक-दमक के बजाय यादगार कहानियों और उनको दिखाने के तरीकों से आकर्षित होते हैं। यह इस बात को भी रेखांकित करता है कि सिनेमा बजाय अपने गमों को भुलाने के माध्यम से आत्मनिरीक्षण के माध्यम के रूप में रूपांतरित हो गया। श्री नारायण सिंह की टॉयलेट: एक प्रेम कथा (2017) और आर. बाल्की की पैड मैन (2018) ने इस बात की तरफ ध्यान दिलाया कि ग्रामीण भारत में स्वच्छता और मासिक धर्म के दौरान के साधनों की कमी है।
कई दशकों तक स्त्री प्रधान फिल्मों के बाद स्त्री प्रधान फिल्मों का भी नया रूप देखने में आया। विकास बहल की क्वीन (2014), अनुभव सिन्हा की थप्पड़ (2020) और नवदीप सिंह की एनएच10 (2015) में महिला किरदारों को जटिल व्यक्तित्व के रूप में दिखाया गया। इनमें उनकी अपनी प्रेरणाएं, संघर्ष और अलग-अलग तरह के हालात में उनकी अपनी अपूर्णता को दिखाया गया। मुख्यधारा के सिनेमा में स्त्रियों की जो बनी-बनाई छवि थी, उसे एक से एक किरदारों ने तोड़ने का काम किया। स्त्री कहानी में एक वस्तु की तरह नहीं रह गयी थी, वह अब व्यवस्था से टकरा रही थी, उसमें अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर किसी तरह के अफसोस का भाव नहीं रह गया था और वह अपने ढंग से आधुनिकता का जीवन जीने लगी थी। यह सब केवल महानगरों तक ही सीमित नहीं रह गया, बल्कि अपनी तलाश और अपने अंदर झांकने के क्रम में छोटे शहरों की संवेदनाएं भी आलोड़न लेने लगी थीं।
पिछले कुछ साल के दौरान भारत में दृश्य माध्यमों में जैसे क्रांति हो गयी है। नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम वीडियो और हॉटस्टार जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म की लोकप्रियता ने सिनेमा निर्माण, उसके वितरण और देखने के तरीकों को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। इन माध्यमों के कारण सिनेमा बनाने के खर्चे में कमी आयी है और फिल्म बनाने वाले मुक्त होकर बड़े पैमाने पर दर्शकों तक जिस तरह पहुंंच पा रहे हैं, वैसा पहले कभी नहीं था। ऑनलाइन माध्यमों के लिए सेंशरशिप का माध्यम सख्त नहीं है, जिसके कारण अधिक से अधिक मौलिक किस्म के काम हो रहे हैं। पहले जिस तरह के विषयों को व्यावसायिक सफलता के लिहाज से वर्जित माना जाता था, उन विषयों को लेकर फिल्में या वेब सीरिज बनायी जा रही हैं। लीक से हटकर कहानी सुनाने की विधि विकसित हुई है और उसने फिल्मकारों को रचनात्मक तरीके से हमारे समाज के घावों और दरारों को देखने की दिशा में प्रेरित किया है।
इस दशक की शुरुआत कोविड महामारी के साथ हुई और उसका असर भारतीय सिनेमा पर भी पड़ा है- फिल्में सिनेमाहॉल में रिलीज नहीं हो पा रही थीं तो उनकी जगह इंटरनेट ने ले ली। दर्शक भी पहले से कहीं अधिक ईमानदार और अपनी पसंद को लेकर अधिक मांग करने वाले हो गए हैं। जैसे-जैसे देश परिपक्व हुआ है, भारतीय फिल्म उद्योग भी उसी के साथ परिपक्व हुआ है। भारत के लोग कहानियों-किस्सों से प्रेम करने के लिए जाने जाते रहे हैं। प्राचीन काल के महाकाव्यों से लेकर हाल में नेटफ्लिक्स की वेब सीरिज तक, सिनेमा पूरी तरह से इसी परंपरा में रचा बसा रहा है। सिनेमा कहानी सुनाने के रूप में हमारा प्रिय माध्यम बना रहेगा और ऐसा करते हुए यह भारत की कहानी का एक जरूरी हिस्सा बना रहेगा।
(लेखिका अभिनेत्री, फिल्म समीक्षक और फिल्म सेंसर बोर्ड की सदस्य हैं। विचार निजी हैं। अंग्रेजी से अनुवाद: प्रभात रंजन)