कुछ लेखक ऐसे होते हैं, जो भविष्य से आते प्रतीत होते हैं। वे घटनाओं के नहीं, आत्मा की दर्दीली अंधेरी अवस्थाओं के भविष्यवक्ता होते हैं। लास्लो क्रॉस्नॉहोरकै ऐसे ही लेखक हैं, जिन्हें इस साल साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया है। आज जब हम भारत के व्याकुल लोकतंत्र में उन्हें पढ़ते हैं, तो संकल्पधर्मा चेतना का एक रक्तप्लावित स्वर अपने ही भीतर अनुभूत होता है। उन्होंने बहुत पहले उस अर्थ, क्षय और आत्म के पतन को देख लिया था, जो तब घटता है, जब विचारधारा के नाम पर मारकाट करती हुई सदियों की रक्तरंजित चीख ही भाषा से लेकर शासन का एकमात्र रूप बन जाती है।
क्रॉस्नॉहोरकै की लंबी वाक्य रचनाएं सांस रोक देने वाली हैं; मानो वाक्य स्वयं नैतिक पतन से बचने के लिए संघर्ष कर रहे हों। और उसी संघर्ष में हम अपने समय के प्रकंपन को पहचानते हैं। हम देखते हैं कि किस तरह एक गरिमाशील अतीत एक दर्दभरे उद्धत अंधेरे वर्तमान के सामने करबद्ध खड़ा है।
थकी हुई सभ्यता
क्रॉस्नॉहोरकै का प्रारंभिक हंगरी 1980 के दशक का था, जब उनके लेखन के माध्यम से अंधियारे जीवन के कई अछूते पहलू सामने आए। उनका लेखन उस राजनैतिक थकान का भू-दृश्य है, जहां समाजवाद के नारे अनुष्ठान बन चुके थे और भाषा में भरोसा समाप्त हो चुका था। उनके उपन्यास सैटनटैंगो और द मेलन्कॉली ऑफ रेजिस्टेन्स एक ऐसी दुनिया रचते हैं, जहां परिवर्तन की कोई गति नहीं, बस क्षय की तेज रफ्तार है। कीचड़ से ढंके कस्बे, कागजों में डूबे अफसर, प्रतीक्षा में जकड़े लोग। न वहां क्रांति है, न मुक्ति। केवल एक जड़ीभूत ठहराव और गहन नैराश्य है, जो धीरे-धीरे नागरिकों की नसों में उतर गया।
यदि हम हंगरी के उस धूसर परिदृश्य को भारत की भीड़ भरी सड़कों से बदल दें, तो थकान और यथास्थितिवाद वैसे ही बेचैन चील जैसे बने रहते हैं। यहां भी जनता का बड़ा हिस्सा चट्टानी जड़ता और निरंतर आशावादी नैराश्य के आत्मालाप में जी रहा है। लोकतंत्र के वादे खोखले हो चुके हैं। विचारधारा अभिनय बन चुकी है और भाषा, जो कभी प्रतिरोध का औजार थी, अब यशोगान की आज्ञाकारिता का हथियार है। विचारहीनता के तंग कमरों में काफी कुछ समान है उस समय के हंगरी और आज के भारत में।
दोनों देशों में राजनीति ने अपने नैतिक केंद्र को निगल लिया है और वह एक प्रहसन में बदल गया है। जनता, जो कभी परिवर्तन का स्वप्न देखती थी, अब अपने ही मोहभंग के आह्लाद में डूबी हुई है। अंत:करण के खोखलेपन में वह इतनी प्रसन्न है कि वह अपने मन को टटोलकर किसी छोर को छूना ही नहीं चाहती। हालात के तप्त अनुभव उसे एक गहरी और भव्य तृषा में आनंदित रखे हुए हैं।
एकाकी साक्षी
क्रॉस्नॉहोरकै के नायक हमेशा अकेले होते हैं। ऐसी सभ्यता के मौन पर्यवेक्षक, जो पर्यवेक्षण का ही उपहास करती है। उनकी यह एकाकी स्थिति रोमानी नहीं, नैतिक है। ऐसा नैतिक जैसे मनुष्यता स्वयं अश्लील हो जाए और मनुष्य बने रहना ही प्रतिरोध बन जाए। भारत में आज यह एकांत भयावह रूप से अपनी धधक को खास तरह की मिठास में बदले हुए है, जबकि उत्कट आतुर यथार्थ उस अंधेरे की असलियत वाचाल होकर बता रहा है, जो दिन के उजाले में भी अपनी साख बनाए है। क्रॉस्नॉहोरकै की लेखनी के हिसाब से देखें तो असहमति अब साहस का पर्याय है और स्मरण एक जोखिम और सार्वजनिक शोक एक अपराध में बदल चुका है। वह विद्वान, जो सत्य कहने पर पदच्युत हुआ, वह कवि जो शब्दों के लिए जेल में है, वह पत्रकार जो सत्य उजागर करने के कारण मारा गया, वह निरीह मुसलमान जो अपनी भूख मिटाने के लिए कुछ ले जा रहा था, ये सभी उसी नैतिक भूगोल में खड़े हैं, जहां क्रॉस्नॉहोरकै के चरित्र जीते हैं। उनकी एकाकी आवाज स्पष्टता की कीमत है। वे किसी खास कालखंड के ऐयार यथार्थबोध को इस तरह उद्घाटित करते हैं कि जहां शोर संवाद की जगह ले चुका हो और मौन ही प्रतिरोध बन जाता हो। पर यह मौन रिक्त नहीं, एक नैतिक स्थिति है। यह अस्वीकार, जो समाज की सामूहिक आत्मसंतुष्टि को तोड़ता है। क्रॉस्नॉहोरकै के वाक्यों की तरह यह मौन भी एक गहन दृष्टि का निवास है।
सभ्यता जो दृष्टि का उपहास करती है
क्रॉस्नॉहोरकै समाज के उन चित्रों को खींचते हैं, जो “देखने” के कर्म का ही मजाक उड़ाते हैं। उनकी दुनिया सूचना से भरी है, पर सत्य से खाली। परिणामस्वरूप एक धुंध बनती है, जहां हर कोई सब कुछ जानता है, पर कुछ भी बदलता नहीं। क्या यह भारत की स्थिति नहीं? हर दिन खबरें, बहसें, हैशटैग, नारे। पर जागरूकता की यह प्रचुरता ही अब संवेदना को कुंद कर चुकी है। हम देखते हैं, पर पहचानते नहीं। यह वही है, जिसे क्रॉस्नॉहोरकै “ध्यान का प्रलय” कहते हैं। आज के भारत में देखना ही विद्रोह है। बिना भय, बिना रूपक, चीजों को वैसे ही देखना; नैतिक आचरण है। और क्रॉस्नॉहोरकै की वाक्य रचना इसी नैतिकता का अभ्यास है कि देखना, समझना और रुककर वाक्य पूरा करना, स्वयं मनुष्य बने रहने का कर्म है।
निराशा की नैतिकता
क्रॉस्नॉहोरकै मुक्ति नहीं देते। उनकी निराशा उज्ज्वल है, वह एक नैतिक दीप्ति से जलती है। वे मानो कहते हैं, “उद्धार नहीं है, पर यह जानने में भी गरिमा है।” यह निराशा नहीं, यह सजगता है। भारत में, जहां आशा का अर्थ अब प्रचार है और निराशा को देशद्रोह कहा जाता है, यह सजगता अपरिहार्य है। लोकतंत्र विफल हो सकता है, पर अंतःकरण नहीं; आस्था पथभ्रष्ट हो सकती है, पर करुणा को तो टिके ही रहना चाहिए। करुणा किसी घर से निकलती है, तो पीछे गहरा अंधकार रह जाता है और उसमें क्रूरता, घृणा, वैमनस्य और अमानुषिकता मोहक साम्राज्य स्थापित करती है। क्रॉस्नॉहोरकै धैर्य सिखाते हैं, पलायन नहीं। उनका साहित्य भविष्यवाणी नहीं, साधना है। वह सिखाता है कि विनाश के बीच सजग रहना कैसा होता है। और यह सजगता ही इस समय के भारत में सबसे बड़ा प्रतिरोध है।
मिथक, स्मृति और श्रद्धा का नाट्य
हंगरी और भारत दोनों का मिथकों से गहरा रिश्ता है। हंगरी में मिथक ने राष्ट्रवाद को पवित्र किया, तो भारत में उसने नागरिकता को परिभाषित कर दिया। दोनों ही जगह स्मृति एक हथियार के रूप में हमारे सामने है, जो सुस्पष्ट रूप से चयनित, रंगी हुई और राजनैतिक है। क्रॉस्नॉहोरकै जानते थे कि पवित्रता के आवरण में आया हुआ साधु कैसे सर्वाधिकारवादी शैतान बन सकता है। उनकी कृतियों में झूठे भविष्यवक्ता, उन्मादी विश्वास और सामूहिक उन्माद भरे हैं। वह धर्म का नहीं, आध्यात्मिक प्रवृत्ति के पतन का वर्णन करते हैं, जहां ईश्वर की खोज मनुष्य को पशुता की ओर ले जाती है।
भारत का वर्तमान संकट भी कमोबेश ऐसा ही है। आस्था की कमी नहीं, उसकी विकृतियां तैरती हुई हमसे टकराती हैं। मंदिर उठ रहे हैं और विश्वविद्यालय ढह रहे हैं। प्रार्थनाओं और अवैज्ञानिकताओं ने विमर्श की जगह ले ली है और भक्ति के अनुष्ठान अब सत्ता के अनुष्ठान बन गए हैं। क्रॉस्नॉहोरकै के माध्यम से हंगरी के अतीत को पढ़ना यहां अपने ही भविष्य को देखना है, विकृत, पर पहचान में आने वाले वर्तमान और भविष्य की आहट के रूप में।
भाषा का पतन
भाषा में शब्द एक समय अकेले ही सितारों की तरह चलते हैं। वे धीरे-धीरे भाषा के आकाश में नीहारिका बन जाते हैं। हम उस आकाशगंगा को निहारते हैं और अपने भीतर अर्थ के एक निर्जल झरने की आवाजें सुनते हैं। लेकिन समय के साथ यह भाषा भी मृत्तिका की सांवली चादर ओढ़ लेती है और अपने शब्दों के अर्थ की सारी छटाएं अतीत के हृदय में दबी रह जाती हैं। क्रॉस्नॉहोरकै की दुनिया में भी भाषा धीरे-धीरे सड़न को प्राप्त होती है। शब्द अर्थहीन होकर केवल ध्वनि भर रह जाते हैं। जैसे वॉर ऐंड वॉर का नायक एक ग्रंथ को बचाने की कोशिश करता है। एक गिरती हुई दुनिया में अर्थ की लालटेन के अंतिम दीप्त गुल के अंतिम अवशेष की तरह। वह उसे इंटरनेट पर अपलोड करता है, जैसे कोई चिरंतन प्रार्थना भेज रहा हो। क्या हमारे बौद्धिक और राजनैतिक वर्ग की स्थिति ऐसी ही नहीं? आज हमारे विश्वविद्यालय प्रतिध्वनि-कक्ष बन चुके हैं और आलोचना की जगह सम्मोहक छिछलेपन वाले कंटेंट ने ले ली है। संवाद अब कर्णप्रिय चिल्लाहट बन गया है। जो लेखक या शिक्षक अब भी शब्दों में प्रलंबित अंगारे अटके होने के विश्वास में जीता है, वह उसी तरह अकेला है जैसे क्रॉस्नॉहोरकै का वह चरित्र, जो क्षय के विरुद्ध अर्थ के टुकड़ों को बचाने में लगा है। स्पष्ट और सच्चा लिखना आज एक नैतिक कर्म है। हर वाक्य जो प्रोपगैंडा को अस्वीकार करता है, हर पैराग्राफ जो सरलीकरण से इनकार करता है, हर पृष्ठ जो विराट झूठ के अनंत छंद बनने की आशंकाओं पर तुषारापात करता है, तर्क, विवेक और समय की सान की रक्षा में एक छोटा, लेकिन मोहक किला है।
धैर्य का दर्शन
क्रॉस्नॉहोरकै की दुनिया में धैर्य ही अंतिम कृपा है। उनके पात्र चलते रहते हैं, देखते रहते हैं और सोचते रहते हैं। भले ही उनके चारों ओर सब ढह जाए। यह धैर्य पराजय नहीं, प्रतिरोध है। भारत के लिए यही दर्शन सबसे आवश्यक है। उम्मीद की जगह, जो धैर्य सिखाए; उन्माद की जगह जो स्पष्टता दे; अमूर्त लालसाओं की जगह अशांत नागिन से लहराते स्वप्न दे, वही असली आशा है। क्रॉस्नॉहोरकै हमें याद दिलाते हैं कि मुक्ति बिना आत्मावलोकन संभव नहीं। मानो राजस्थान के किसी टीले पर रेत में पांव धंसाए कोई बूढ़ा राइका सुदूर क्षितिज को संबोधित करते हुए कह रहा हो, ‘‘हां, मैं जानता हूं, आप मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता।’’ सच्चा और प्रवेग वाला धैर्य तब शुरू होता है, जब हम हानि को स्वीकार कर अपनी अंतर्दृष्टियों के द्वंद्वों में मौजूद जीवनानुभूतियों की कराह को बनाए रखें।
साक्ष्य का साहित्य
क्रॉस्नॉहोरकै के वाक्य सर्पिल और सुदीर्घ हैं; क्योंकि यथार्थ का छोटे वाक्यों में प्रतप्त मौलिकता को सहन कर पाना और सहेज पाना असंभव है। वे पाठक से वही मांगते हैं, जो समाज भूल चुका है यानी एक चैतन्य बोध वाला ध्यान। उन्हें पढ़ना प्रफुल्ल नैतिक अभ्यास है। धीरे पढ़ना, ठहरना और अस्पष्टता को सहना। भारत में उन्हें पढ़ना स्वयं को पुनः शिक्षित करना है। उनकी गद्य-संरचना उस डिजिटल युग के विरुद्ध है, जो हर चीज को गति और सतहीपन में बदल देता है। वे हमें सिखाते हैं कि देखना अनुशासन है। विनाश को इतनी स्पष्टता से वर्णित करना कि अस्वीकार असंभव हो जाए। यही लेखक का सर्वोच्च दायित्व है। वह कवि जो ढही हुई मसीत का मौन दर्ज करता है, वह पत्रकार जो मिटती बस्ती को लिखता है, वह इतिहासकार जो झूठ के नीचे प्रमाण रखता है; ये सभी उसी प्रतिज्ञा के उत्तराधिकारी हैं, जिसकी इबारत पर यथार्थ बोध मुखर है, “मैं इस शून्य को सटीक शब्दों में लिखूंगा।”
दर्पण और शिक्षा
हंगरी को भारतीय दर्पण में पढ़ना साझा थकान को पहचानना है। भारतीय धरातल पर, जो अमानवीय कठोर हृदयहीन विधायी और ध्वंसिनी राजनैतिकता की श्यामल मृत्तिका में बदल चुका है, खास तरह की थकान और बेचैनी में भी संभावना लिए हुए है। वह है उदास हाथों में संवरती हुई आशाओं से आप्लावित उंगलियों से झरती चेतना। क्रॉस्नॉहोरकै आशा नहीं, ध्यान बचाते हैं; आस्था नहीं, देखने की क्षमता और अनुभूत की प्रेरणा के अशांत प्राण बचाते हैं। भारत के लिए, जहां राष्ट्रवाद का शोर विवेक की आवाज को डुबो देता है, उनका साहित्य भिन्न प्रतिरोध प्रस्तुत करता है और वह है आत्मनिरीक्षण का, नैतिकता का और मौन साहस का। वह याद दिलाते हैं कि साहित्य का कार्य सांत्वना नहीं, सामना है। वह दिलासा नहीं देता, उजागर करता है; वह उद्धार नहीं करता, स्पष्ट करता है। जब वे लिखते हैं; “दुनिया खाली हो चुकी है, पर मैं उसकी रिक्तता का सटीक वर्णन करूंगा” तो वे हर उस भारतीय लेखक के साथ खड़े हैं, जो सत्य के पतन को कोमल करुणा और अडिग सटीकता से दर्ज कर रहा है।
अंतिम प्रतिबिंब
क्रॉस्नॉहोरकै हमारे लिए उपयोगी इसलिए हैं कि वे केवल किसी उपयोग की बात नहीं करते, उन्हें ऐसा सोचते हुए भी बहुत शर्म आती है। वे हमें काम नहीं, दृष्टि सिखाते हैं। और इस छलावे के युग में दृष्टि ही प्रतिरोध की शुरुआत है। उनकी निराशा निराशा नहीं, नैतिक साहस है, देखने का साहस, बिना मुंह फेरे। भारत, जो लगभग दो दशक से अपने नैतिक अवसाद के कगार पर खड़ा है, उसे यही साहस चाहिए कि वह लेखक जो उल्लास से इनकार करे, वह नागरिक जो विस्मृति से इनकार करे, वह शिक्षक जो सरलता के प्रलोभन से इनकार करे, वज्र न उठाए, बस तड़प कर रह जाए। क्रॉस्नॉहोरकै को पढ़ना आज प्रतिज्ञा ग्रहण करना है कि हम स्पष्ट देखेंगे, चाहे वह पीड़ा ही क्यों न दे; कि हम टिके रहेंगे, चाहे टिके रहना व्यर्थ लगे; और यह मानेंगे कि देखना स्वयं एक राजनैतिक कर्म है। इस अर्थ में लास्लो क्रॉस्नॉहोरकै कोई विदेशी लेखक नहीं, एक दर्पण हैं। एक अंधकारमय, निर्दय, पर दीप्त दर्पण; जिसमें हमें हमारे अपने गणराज्य की छोटी-छोटी पंखुड़ियां दिखाई देती हैं, सभी भ्रमों से मुक्त, पर अंतःकरण की मंद ज्योति से अब भी थरथराती हुईं। और शायद, इसी अंधकार में कोई प्रकंपित द्युति इस धुआंधकोर आबोहवा वाले रेगिस्तान को मेघों की आवाजों का कंठहार पहनाए!

(वरिष्ठ पत्रकार, कवि, कहानीकार, स्तंभकार)