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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

देश की शान किसान

28 दिसंबर के अंक में आवरण कथा, ‘नाराज किसान: मजबूत किसान मोर्चेबंदी’ पढ़ी। किसान खेतों में अच्छे लगते हैं, आंदोलन की भीड़ में नहीं। किसान देश की शान हैं, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन राजनेता अपनी राजनीति के लिए उन्हें भटका रहे हैं। किसानों को ऐसे नेताओं से सावधान रहना चाहिए। कोई भी कानून पूरा खराब और प्रतिकूल नहीं हो सकता। केंद्र सरकार जोर देकर यह बात बार-बार कह रही है कि नए कानून के प्रावधान में जो भी नियम किसानों को प्रतिकूल लगते हों, जिनसे किसानों का नुकसान हो, उन प्रावधानों पर सरकार खुले मन से विचार करने के लिए तैयार है और रहेगी। इसके बाद किसानों को भी आंदोलन का रास्ता छोड़ना चाहिए। जब चर्चा चल रही है, तो आगे के आंदोलन को उग्र करने की घोषणा करना भी वाजिब नहीं है। आंदोलन में शामिल किसान भाइयों को यह बात समझनी चाहिए कि लोकतंत्र में हठयोग की कोई जगह नहीं होती। उन्हें हठधर्मिता छोड़ बीच का रास्ता निकालना चाहिए। देश हमारा है, यह सुरक्षित और खुशहाल रहे यह हम सबकी जिम्मेदारी है। सकारात्मक सोच के साथ किसान नेता सरकार से बात करेंगे, तो समस्या का हल जरूर निकलेगा। वैश्विक महामारी कोरोना के चलते भीड़ इकट्ठा करना कहीं से भी उचित नहीं है। किसानों को बातचीत से मसला सुलझाना चाहिए और और आंदोलन समाप्त करना चाहिए।

प्रदीप कुमार दुबे | देवास, मप्र

 

नाराज किसान

सरकार के लिए किसान बड़ी चुनौती बन कर उभरे हैं। आउटलुक की आवरण कथा (28 दिसंबर 2020) इस मसले को बेहतर तरीके से समझाती है। इतना तो तय है कि किसानों ने एकजुटता दिखा कर सरकार को कदम पीछे हटाने के लिए मजबूर कर दिया है। सरकार बातचीत का सिर्फ दिखावा कर रही है। क्योंकि यदि बात ही करनी है, तो फिर उन पर लाठी चार्ज क्यों किया जा रहा है, उन पर आंसू गैस के गोले क्यों दागे जा रहे हैं। किसानों को आशंका है कि नए कानून से कॉरपोरेट का दखल बढ़ जाएगा, सरकार को अपनी तरफ से यह स्पष्ट करने के साथ इस प्रश्न का जवाब देना चाहिए। लेकिन सरकार भी बात करने बजाय मुद्दे को गोल-गोल घुमाना ज्यादा पसंद कर रही है। सरकार भी अड़ी हुई है कि वह संशोधन करेगी लेकिन कानून रद्द नहीं करेगी। किसान भाइयों को भी चाहिए कि वे डटे रहें, जीत तो उन्हीं की होगी।

रमेश अग्रवाल | बांदा, उप्र

 

सुपरस्टार का दांव

28 दिसंबर के अंक में रजनीकांत की राजनीति में एंट्री पर अच्छी रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट में तमाम शंकाओं और संभावनाओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। एक जमाना था, जब दक्षिण भारत की राजनीति उत्तर भारत से बिलकुल अलग थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। पहले वहां स्टार पावर था, पर अब राजनीति ने वहां भी अपना रूप बदल लिया है। हर प्रदेश में युवा नेता तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, लोगों के लिए अब मुद्दे अहम हो गए हैं। ऐसे में यह आशंका तो बनी ही रहेगी कि रजनीकांत कैसे नेता बनेंगे। अगर मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डाली जाए, तो लोग चेहरों से ज्यादा लोक-लुभावन वादों और इरादे वालों को वोट करते हैं। रजनीकांत अपनी प्रसिद्धि को वोट में बदल पाएंगे, यह मुश्किल लग रहा है।

प्रखर प्रवीर | चैन्ने, तमिलनाडु

 

लालू का दम

कहते हैं, बंदर कितना भी बूढ़ा हो जाए, गुलाटी खाना नहीं भूलता। ऐसा ही कुछ लालू प्रसाद यादव के साथ है। 28 दिसंबर के अंक में, बिहार के कथित ऑडियो टेप प्रकरण के बारे में जाना। शुरुआती आरोप में ही लालू को दोषी ठहराया जाना गलत है। जोड़-तोड़ की राजनीति में हालांकि इस तरह के किस्से और कवायद आम हैं, लेकिन आरोप लगाने वाले पर भी आंख मूंद कर भरोसा नहीं करना चाहिए। बिहार में यह उठा-पटक अब पूरे पांच साल चलेगी। कोई भरोसा नहीं कि नीतीश सरकार पांच साल पूरे भी न कर पाए। दरअसल, बिहार में जीत नीतीश की नहीं भाजपा की है। भाजपा कुछ महीनों बाद चाहेगी कि उन्हीं की पार्टी से कोई मुख्यमंत्री बने। राजनीति का यह तमाशा देखते हैं कब तक जारी रहता है।

गुंजन शर्मा | दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल

 

प्यार का अधिकार

आउटलुक के 14 दिसंबर 2020 के अंक में रिपोर्ट ‘प्यार पर पाबंदी कितनी जायज’ पढ़ी। इसी विषय पर आलेख ‘मौलिक अधिकारों पर चोट’ पढ़कर गहरी निराशा हुई। साथ ही क्षोभ भी हुआ। दोनों ही लेखों के लेखकों ने प्यार पर पाबंदी नाम देकर, संविधान का सहारा लेकर, लव जिहाद का जिस तरह से चतुराई से बचाव किया है, उससे मैं बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हूं। आखिर लव जिहाद का शिकार हिंदू लड़कियां ही क्यों होती हैं, मुस्लिम लड़कियां क्यों नहीं? धर्मांतरण को लेकर कानून बनाने में उत्तर प्रदेश सरकार ने बहुत देर कर दी क्योंकि जो कानून उन्होंने अब बनाया है उसे 2017 में ही बना देना चाहिए था। यहां तक कि भारत सरकार को भी इस पर कानून बनाने की जरूरत है। हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार का अनुसरण करते हुए अन्य राज्य भी इस पर कानून बनाने की बात कर रहे हैं, जो स्वागत योग्य है। हैरत की बात है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस कानून के बनाने के बाद ही अगले दिन धर्मांतरण से संबंधित एक केस बरेली में सामने आया था। यह सिलसिला अब भी जारी है, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऐसा करने वालों के हौंसले कितने बुलंद हैं।

सुनील कुमार चौहान | बदायूं, उप्र

 

कारगर दवा

कोविड-19 संक्रमण फिलहाल खत्म होता नजर नहीं आ रहा है। तमाम सावधानी के बाद भी यह लोगों को अपनी चपेट में लेता जा रहा है। 28 दिसंबर को आउटलुक में प्रकाशित रिपोर्ट ‘कितने तैयार हम’ पढ़ कर अच्छे की आशा जागती है, लेकिन इस उम्मीद के पीछे बहुत से ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब किसी के पास नहीं हैं। भारत में जनसंख्या इतनी अधिक है, यहां अनेक कई लोगों को दो वक्त का खाना भी नहीं मिलता, ऐसे में कैसे भरोसा किया जाए कि सबको ठीक समय पर टीका मिल जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि टीका से भी दूसरी कोई परेशानी नहीं होगी, यह कौन बताएगा।

सृजन कांतिलाल | मुंबई

 

कुछ पहलुओं को जोड़ना जरूरी

आउटलुक 14 दिसंबर अंक पढ़ा, बिहार चुनाव में कांग्रेस की हार, पंजाब में किसान आंदोलन, जम्मू-कश्मीर में स्थानीय चुनाव में बीजेपी का दम जैसे राजनीतिक पहलू तो इस अंक में थे ही, इसके साथ अयोध्या का वर्णन भी प्रभावी था। झारखंड में हेमंत सोरेन के करीबी के घर आयकर के छापे की भी प्रभावी रिपोर्ट थी। पत्रिका हमेशा से ही किसानों की समस्या को उठाती रही है। आपने लव-जेहाद पर भी बहुत समय रहते रिपोर्ट प्रकाशित की। माराडोना पर लेख भावुक कर देने वाला था। लेकिन हम आउटलुक जैसी हिंदी पत्रिका में कई अन्य सामग्री जैसे, किसी ऐतिहासिक और पर्यटक क्षेत्रों का वर्णन, कोई प्रेरक कहानी, किसी क्षेत्र की ग्रामीण समस्याओं को उठाना आदि पढ़ना चाहते हैं। इन सबसे आउटलुक का विस्तार होगा।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

 

सराहनीय अंक

आउटलुक के 14 दिसंबर के अंक में लव जेहाद और अयोध्या के बारे में पढ़ा। अयोध्या में राम मंदिर बन रहा है यह खुशी की बात है। लेकिन इसी बहाने अयोध्या का विकास हो रहा है, यह ज्यादा सराहनीय है। अक्सर देखा गया है कि भारत में धार्मिक नगरियों में जितनी अफरा-तफरी और गंदगी रहती है, उतनी अमूमन दूसरे शहरों में नहीं रहती। ‘संवरती अयोध्या’ इसलिए भी अच्छा लगा कि कौन नहीं चाहता कि उसका शहर साफ हो। माराडोना के बारे में बातें तो बहुत सी पता थीं, लेकिन आउटलुक में उनकी स्मृति में जो प्रकाशित हुआ उससे बहुत सी नई बातें पता चलीं। खेल की दिग्गज हस्ती का जाना अखर गया।

प्रवीण कुमार पांडेय| अयोध्या, उप्र

 

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इतिहास का आईना

 

किंग

आपकी गिरी हुई हरकत, असामान्य व्यक्तिगत व्यवहार के कारण मैं आपके नाम के आगे श्री या श्रद्धेय या डॉ. किंग नहीं लगाऊंगा। अपने दिल में झांक कर देखो, तुम जानते हो कि तुम बहुत बड़े धोखेबाज हो और हम सभी नीग्रो लोगों के लिए बोझ हो। इस देश के गोरे लोगों ने भी बहुत धोखाधड़ी की है लेकिन मैं शर्त लगा सकता हूं कि उनके पास फिलहाल ऐसा कोई धोखा नहीं होगा जो तुम्हारे बराबर भी फटक सके। तुम कोई पादरी नहीं हो और ये बात तुम जानते हो। मैं फिर से अपनी बात दोहराता हूं, तुम बड़े धोखेबाज, दुष्ट हो और उस पर से चालाक भी।

किंग, सभी धोखाधड़ी करने वालों की तरह तुम्हारा अंत भी निकट है। तुम हमारे सबसे बड़े नेता हो सकते थे। तुम्हारी ‘मानद’ डिग्रियां, तुम्हारा नोबेल पुरस्कार (कितना बड़ा तमाशा है) और अन्य दूसरे अवॉर्ड तुम्हें बचा नहीं पाएंगे किंग। मैं फिर कहता हूं, तुम तो गए काम से। अमेरिकी जनता, मदद करने वाले चर्च के संगठन, प्रोटेस्टेंट, कैथोलिक और यहूदी सब जान जाएंगे कि तुम क्या हो...एक दुष्ट, राक्षस। और दूसरे लोग भी जो तुम्हें मदद कर रहे हैं, सब जान जाएंगे। तुम्हारे पाप का घड़ा भर गया है।

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पुरस्कृत पत्र

हर मुद्दा चुनावी न हो

आउटलुक का हर अंक प्रभावी होता है। नया अंक किसानों की समस्या पर बनाया गया था (28 दिसंबर 2020) लेकिन इस अंक में किसानों के बारे में पढ़ कर लगा जैसे यह एक तरफा हो। जिस तरह किसानों का पक्ष दिया गया था उतनी ही बराबरी से सरकार का भी पक्ष होना चाहिए। हालांकि फिर भी मेरा मानना है कि आउटलुक बहुत संतुलित तरीके से सामग्री देता है। लेकिन कभी-कभी महसूस होता है कि दूसरा पक्ष मजबूती से नहीं आया है। आजकल हर मुद्दा चुनावी हो जाता है। आम जनता कुछ भी कहे, देखा यह जाता है कि उस प्रदेश में चुनाव हैं क्या। यदि वहां चुनाव होते हैं, तो छोटे से छोटे मुद्दे को भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है। इससे सबसे ज्यादा नुकसान जनता का ही होता है। 

चारूप्रभा |कोलकाता, पश्चिम बंगाल

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