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संपादक के नाम पत्र

पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं
भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां

सकारात्मकता की जरूरत

लेख या खबरें तो वही सच होती हैं, जो आपको सुकून दें। इस बार आउटलुक की आवरण कथा, ‘कस्बों की सुंदरियां और सरमाएदार’ (22 मार्च 2021) इस पर पूरी तरह खरी उतरती है। इस आवरण कथा को पढ़ कर लगा कि आउटलुक सच्चे मायने में संपूर्ण पत्रिका है क्योंकि विशुद्ध खबरिया पत्रिका होने के बाद भी आपने बहुत अलग तरह का विषय इसमें उठाया। समाज को ऐसी ही सकारात्मक खबरों की जरूरत है। हर जगह जब बड़े शहरों के लोग बाजी मार रहे हों, लगातार वही दिखाई-सुनाई पड़ रहे हों, ऐसे में आपकी पत्रिका ने इन गुदड़ी के लालों को खोज कर सराहनीय काम किया है।

नीरा श्रीवास्तव | श्रावस्ती, उत्तर प्रदेश

 

जहां चाह वहां राह

आउटलुक में ‘गुरबत से शोहरत का सफरनामा’ (22 मार्च 2021) दरअसल उस शहरी मानसिकता पर चोट है, जिसे लगता है कि बड़े शहरों के बच्चे ही कामयाब हो सकते हैं। कुछ लोग हैं, जिन्हें लगता है कि छोटे शहरों के बच्चों में वाओ फैक्टर नहीं होता। लेकिन इस आवरण कथा ने बताया कि छोटे शहरों के लोग भी चाहें तो क्या नहीं कर सकते हैं। हां, लेकिन इतना जरूर है कि बड़े शहरों के मुकाबले छोटे शहरों में मौके कम होते हैं और चुनौतियां ज्यादा। फिर भी करने वाले जहां रहें, कुछ कर गुजरते हैं। ऐसे प्रेरणादायी लेख के लिए साधुवाद।

अंकित सुराणा | उदयपुर, राजस्थान

 

प्रतिभा का मोल

इस बार के संपादकीय, प्रथम दृष्टि, जैसे पेड़ खजूर! (22 मार्च 2021) में कितना सटीक लिखा है कि प्रतिभा अवसर का इंतजार नहीं करती, अक्सर अपने लिए अवसर पैदा कर लेती है। मैं इस वाक्य से पूरी तरह सहमत हूं। कस्बे, गांव विकास की दौड़ में भले ही पीछे छूट गए हों, लेकिन प्रतिभा को भौगोलिक सीमा में सीमित करना किसी के वश का नहीं है। हर बार प्रथम दृष्टि ही पहले पढ़ती हूं और हर बार यह पहले से अधिक प्रभावी लगता है। इस बार तो जैसे, छोटे शहरों की विडंबना को पूरी तरह संपादक ने समझा और उसे शब्द दिए हैं। क्या सही लिखा है कि आभिजात्य वर्ग यानी प्रगतिशील और कस्बे में रहने वाले पिछड़े। उम्मीद करते हैं कि इस लेख को पढ़ कर लोगों का नजरिया बदलेगा।

रीति रावत | देहरादून, उत्तराखंड

 

नेक नीयत की जरूरत

आवरण कथा ‘उत्तर प्रदेश चार साल, वादों का हाल’ (8 मार्च) पढ़ी। उत्तर प्रदेश में हालत सुधरने के जो दावे किए जा रहे हैं, वास्तविकता इसके विपरीत है। कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ रही हैं, रोज दुष्कर्म की घटनाएं हो रही हैं, हत्याओं का दौर चल रहा है, बेरोजगारी चरम पर है, किसान गन्ने के बकाए का रोना रो रहे हैं, सब कुछ उल्टा-पुल्टा है। फिर भी सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है। इसे अपने मुंह मियां मिट्ठू से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। राम राज्य केवल बात करने से नहीं आता, इसके लिए नेक नीति और नीयत की जरूरत होती है। नौकरी की मांग कर रहे बेरोजगारों पर डंडे बरसाने, सच बयां करने वाले पत्रकारों को जेल में डालने, सवाल करने वालों को देशद्रोही करार देने तथा हिंदू-मुस्लिम करने से छवि नहीं सुधरती। जनता के हित में काम करके ही इसे चमकाया जा सकता है।

हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश

 

जागो विपक्ष जागो

आउटलुक पत्रिका का पाठक और प्रशंसक हूं। आवरण कथा के साथ अन्य प्रत्यक्ष और परोक्ष पहलुओं पर पैनी नजर आउटलुक की टीम की सशक्त भूमिका को दर्शाता है। ‘चार बरस योगी’ (8 मार्च) के इस विशेष अंक में विपक्ष की सक्रियता के अभाव का आकलन वाकई कबीले तारीफ है। बसपा और सपा की भूमिका इन चार वर्षों में काफी शांत रही है, बसपा सुप्रीमो मायावती केवल ट्विटर पर ही विपक्ष की भूमिका का निर्वहन कर रही हैं जबकि उनके पास मुद्दों की कमी नहीं है। ऐसे में 2022 के चुनावों पर सभी की नजर रहेगी। रालोद उपाध्यक्ष जयंत चौधरी और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अपनी भूमिका के बारे में फिर से सोचना चाहिए। इस अंक में ‘कालीन भैया के बाऊ जी’ के माध्यम से रंगमच जगत और बॉलीवुड के सशक्त अभिनेता कुलभूषण खरबंदा पर लेख पसंद आया। भारतीय सिने जगत में अभिनेता प्राण के बाद विभिन्न अभिव्यक्तियों के माध्यम से लोगों के दिलों में प्यार, घृणा और डर पैदा करना आज के समय में सही अर्थों में कालीन भैया के बाऊ जी ही दिखा पाते हैं।

शक्तिवीर सिंह | मदुरै, तमिलनाडु

 

अभिव्यक्ति पर पहरेदारी

आउटलुक के 8 मार्च के अंक में प्रथम दृष्टि, ‘स्वरा भी कंगना भी’ की चर्चा सराहनीय है। वास्तव में विचारों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी आज समस्या के रूप में सामने आने लगी है। जैसे ही कोई प्रतिष्ठित या चर्चित व्यक्ति अपनी राय रखता है, तुरंत तर्क-वितर्क होने लगते हैं। फिर निजी राय कह कर इससे पल्ला झाड़ लिया जाता है। लेकिन समस्या यह है कि हर पक्ष सोचता है कि फलां व्यक्ति की राय उसकी सोच से मेल क्यों नहीं खाती? और इसी सोच के कारण अभिव्यक्ति पर पहरा लग जाता है।

मोहन जगदाले | उज्जैन, म.प्र

 

भ्रामक प्रचार

आउटलुक के 8 मार्च के अंक में प्रथम दृष्टि बहुत अच्छा लगा। रिहाना जैसी अमेरिकी पॉप स्टार के आंदोलन के समर्थन में किए गए ट्वीट से अंधभक्तों को बहुत परेशानी हुई। क्या भारतीय लोग दूसरे देशों में हो रही घटनाओं पर नहीं बोलते हैं? पहले इस पर विचार करना चाहिए फिर हल्ला मचाना चाहिए। इसी अंक में आवरण कथा में यूपी के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू की बेबाक बातें वाकई सराहनीय हैं, जिसमें उन्होंने योगी के भ्रामक विज्ञापनों के जरिये जनता को गुमराह करने की बात कही है।

आबिद मजीद इराकी | जहानाबाद, बिहार

 

जागरूकता जरूरी

‘कोविड वैक्सीन: लोगों की झिझक नई चुनौती’ (22 फरवरी) पढ़ कर लगा कि अब भी कोविड के प्रति लोगों में जागरूकता की कमी है। देश में एक तरफ कोरोना वैक्सीन का टीकाकरण चल रहा है, वहीं दूसरी ओर कई राज्यों में बढ़ते मामलों ने चिंता को बढ़ा दिया है। साल की शुरुआत में टीकाकरण के साथ ही कोरोना बचाव के सारे नियम ढीले पड़ गए और सामाजिक दूरी, मास्क को लोग बीते दिन की बात कहने लगे और इसी लापरवाही कि वजह से लोग फिर कोरोना संक्रमित हो रहे हैं। दूसरी समस्या वैक्सीन न लेने की है। अनेक डोज इसलिए बर्बाद हो रहे हैं कि लोग समय पर टीकाकरण के लिए नहीं पहुंच रहे हैं। अगर लोग टीका लगवाने से डर रहे हैं, तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि दूरी का पालन करें और मास्क लगाएं। टीकाकरण के बाद भी जागरूकता ही हमें कोरोना संक्रमण से बचाएगी। सरकार को चाहिए कि टीकाकरण के बारे में हर संभव भ्रम को जल्द से जल्द दूर करे। टीकाकरण बढ़ाने के लिए ज्यादा से ज्यादा निजी अस्पतालों को भी इसमें शामिल करे।

प्रदीप कुमार दुबे | देवास

 

बेहतरीन पेशकश

आउटलुक पत्रिका का शहरनामा कॉलम बेहतरीन पेशकश है। भारतवर्ष के जाने-माने लेखकों और साहित्यकारों की कलम की नजर से उनके शहर को देखना अच्छा लगता है। कई शहर तो इस कॉलम में ऐसे आए, जिनके बारे में पता ही नहीं था। मथुरा, मैक्लुस्कीगंज, मोतिहारी, मेरठ और सीहोर की कई अनजानी बातें इस कॉलम से ही हम जान पाए। उन सभी लेखकों को साधुवाद देता हूं, जिन्होंने शहरनामा कॉलम में अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर आउटलुक पत्रिका में चार चांद लगाए।

डॉ. जसवतंसिह जनमेजय | नई दिल्ली

पुरस्कृत पत्र

छोटे शहरों की ताकत

आउटलुक की आवरण कथा, ‘कस्बों की सुंदरियां और सरमाएदार’ (22 मार्च 2021) बहुत प्रभावी लगी। यह लेख इस वक्त इसलिए भी जरूरी है क्योंकि छोटे शहरों में अभी भी तरक्की के बहुत साधन नहीं हैं। छोटे शहरों या कस्बों के बच्चों या युवाओं को मौके कम मिलते हैं और उन्हें बड़े शहर के लोगों के मुकाबले ज्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस लेख को पढ़ कर हमारे जैसे कस्बों में रहने वाले लोगों को भी हौसला मिलता है और कुछ करने की प्रेरणा भी। आवरण कथा में छोटे शहरों की चुनौतियों और इन कस्बों से निकले सफल लोगों की कहानियों ने दिल को छू लिया। वरना आजकल तो होता यह है कि सिर्फ टीआरपी लिए टेलीविजन पर छोटे शहरों की कहानी बेची जाती है।

नवीन मेघ |कुक्षी, म.प्र

 

इतिहास का आईना/डाकखाना

रविवार

17 नवंबर 1968

श्रीमान कुब्रिक

आपने मुझे जो पत्र लिखा उसके लिए मैं धन्यवाद प्रेषित करती हूं। मैं खुश और अभिभूत हूं कि आप मेरे साथ काम करना चाहते हैं।

लेकिन मैं अभी कुछ समय के लिए काम नहीं करना चाहती, इसलिए किसी भी नई योजना को न स्वीकृति दे रही हूं न इस समय किसी नए काम में शामिल हो रही हूं।

उम्मीद करती हूं, आप इसे समझेंगे...और फिर कभी मेरे बारे में फिर सोचेंगे।

पुनः धन्यवाद

हार्दिक शुभकामनाएं

ऑड्रे हेपबर्न

भूमिका की पेशकशः  स्टेनली कुब्रिक ने नेपोलियन बोनापार्ट फिल्म के लिए हेपबर्न को प्रस्ताव दिया था, जिस पर हेपबर्न ने यह प्रतिक्रिया दी थी। इसे सबसे महान फिल्मों में से एक माना जाता है।

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