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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आईं पाठकों की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रयाएं

बदल गया कंटेंट

‘खान तिकड़ी से पहले के स्टार’ (29 नवंबर) उम्दा लगा। मुझे मेरी किशोरावस्था याद आ गई। वाकई ऐसे ही दिन थे, हम अमिताभ के दीवाने थे और धीरे-धीरे हमारी पसंद बदल कर आमिर, सलमान और शाहरुख पर आ कर टिकी। अमिताभ धीरे-धीरे हमारी सूची से गायब हो गए और तीनों खानों ने वह जगह ले ली। अब इन्हें बने रहने के लिए खुद को बदलना ही होगा।

नेहा राव | उदयपुर, राजस्थान

बदलें अपनी भूमिका

ये बादशाहत बड़ी बुरी लत है। नए अंक (29 नवंबर) में ‘बादशाहत बरकरार रखने की चुनौती’ पढ़ते हुए यही खयाल आया। पिछले कुछ समय से खान तिकड़ी असफलता झेल रही है। कोरोना ने उनकी विदाई वेला को कुछ दिन और आगे बढ़ा दिया। उन लोगों को स्वीकारना ही होगा कि जब अमिताभ बच्चन के दिन लद सकते हैं, तो इनके साथ भी हो सकता है। बच्चन वाकई अभिनय करते थे, जबकि इनकी फिल्मों में संगीत और चमक-दमक की बड़ी भूमिका रही। तीनों खान अब अपनी उम्र के अनुरूप भूमिकाएं चुनें और बॉलीवुड में चरित्र अभिनेता की तरह राज करें।

प्रखर नवीन | बोकारो, झारखंड

भगवान ही बचाए

‘बादशाहत बरकरार रखने की चुनौती’ (29 नवंबर) पढ़ कर जीरो, ट्यूबलाइट, पीके, ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान की यादें ताजा हो गईं। ट्यूबलाइट देखने के बाद ही कसम खा ली थी कि अब सलमान की कोई फिल्म नहीं देखूंगी। इसी कसम से राधे देखने से बच गई। वो मेरे पसंदीदा नायकों में से एक रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि वे ऐसा सोचने लगें कि हर कूड़ा उनका दर्शक वर्ग जरूर देखेगा। अब तो इन लोगों की फिल्में देखने से ही डर लगने लगा है। आखिर कोई फिल्म कितनी बकवास हो सकती है, और उससे भी बुरी एक्टिंग करते हैं। इन अभिनेताओं को दशकों का अनुभव है, क्या स्क्रिप्ट पढ़ कर पता नहीं चलता कि फिल्म कितनी खराब बनेगी। या फिर शूटिंग के दौरान भी तो एहसास होता होगा कि फिल्म कैसी बनेगी। इनसे तो कम अनुभव वाले विकी कौशल अच्छे लगते हैं, जो ताजगी लेकर आए हैं।

मीता चौधरी | छतरपुर, मध्य प्रदेश

पुरस्कृत पत्र

लापता अव्वल लड़कियां

‘बीसेक में कुबेर’ (15 नवंबर) पढ़ा। एक खयाल आया कि अरबपति युवाओं की सूची में एक भी लड़की शामिल नहीं है। जब भी दसवीं और बारहवीं का परीक्षा परिणाम आता है, तो हर अखबार का शीर्षक होता है, ‘लड़कियों ने मारी बाजी’ या ‘लड़कों से आगे लड़कियां’, तो फिर ये आगे रहने वाली लड़कियां चली कहां जाती हैं? समाज की ये अव्वल लड़कियां कहां खो गईं कि ऐसी किसी सूची में फिर दिखाई नहीं देतीं। इस पर सोचना चाहिए कि  समाज की बनावट ऐसी क्यों है कि बारहवीं तक प्रावीण्य सूची में रहने वाली लड़कियां यकायक गायब हो जाती हैं। शायद इसलिए कि इसके लिए जोखिम लेना होता है और परिवार लड़कियों को जोखिम उठाने देने से हमेशा रोकता है।

दर्शना वरुण सहजवाल | पानीपत, हरियाणा