जीत से कम कुछ नहीं
7 फरवरी 2022, ‘करो या मरो का ऐलान-ए-जंग’ लिख कर आपने चुनावी बिगूल फूंक ही दिया है। इस लेख में एक जरूरी बात पर ध्यान दिलाया गया है और वह है, राष्ट्रपति चुनाव। वाकई राष्ट्रपति चुनाव के बारे में सोचा जाए, तो यह भारतीय जनता पार्टी के लिए करो या मरो का ही चुनाव है। यदि उनकी सीटें मन माफिक नहीं आईं, तो जुलाई या अगस्त में होने वाले राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा मनमानी नहीं कर पाएगी। जाहिर सी बात है, मोदी को किसी तरह का दबाव पसंद नहीं इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव में बेहतर परिणाम के लिए वह अपनी पूरी ताकत झोंके दे रहे हैं। इसके बाद उत्तराखंड की बारी आती है, जहां पार्टी का प्रदर्शन ठीक रहना जरूरी है। इतने मुख्यमंत्री आखिर बदले ही इसलिए गए हैं कि पार्टी जीत हासिल कर सके। लेकिन इसी अंक में एक और दिलचस्प बात ध्यान में आई। दूसरे लेख, ‘बड़े लड़ैयों का रण क्षेत्र’ में आपने लिखा है, “बीते तीन दशक में यूपी में ऐसा पहली बार हो रहा है, जब विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचार तथा कानून-व्यवस्था की बदहाली जैसा कोई मुद्दा नहीं है।” ऐसे कई लेख तो मैं ही गिना सकता हूं जिसमें आपकी ही पत्रिका ने यूपी की कानून व्यवस्था पर सरकार को घसीटा है। तो यदि कानून व्यवस्था खराब है, तो यह मुद्दा क्यों नहीं है। यह बात समझ नहीं आई। इसका मतलब है कि योगी सरकार ने भ्रष्टाचार और कानून दोनों को अच्छे ढंग से संभाला है। यानी मीडिया किसी विषय को बेवजह तूल देता है और जनता असलियत जानती है, तभी लोगों को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप अगर इससे सहमत न हों, तो अगले अंक में इस पर रोशनी डालें, अच्छा रहेगा।
विप्लव गुप्ता | बरेली, उत्तर प्रदेश
सभी अवसरवादी
विचारशून्य राजनीति की नाटकीयता देखकर आम भारतीय नागरिक का यही मानना है कि चुनावों की घोषणा, दलों के नाटकीय आवरण को उघाड़कर रख देती है। नई आवरण कथा, (7 फरवरी 2022, डबल इंजन की चुनौती) हर राज्य की पोल खोलती है। लेकिन इतना तो तय है कि राजनेताओं की नैतिकता का क्षरण उनकी खोखली सोच का ही परिचायक है। उत्तर प्रदेश में हो रहे दल-बदल की उठापटक लोकतंत्र का चीरहरण है। वर्ग और जातियों के नाम पर जीत का दावा ठोकने वाले इन अवसरवादियों का जो भी इलाज हो, जनहित में होना चाहिए। सवाल है कि यदि शीर्ष नेता, दलित और पिछड़ों का ध्यान नहीं रख रहे थे तो ये अब तक क्या कर रहे थे? उत्तर प्रदेश में पिछले चुनावों में भाजपा और सपा में वोट प्रतिशत का फासला भले ही अधिक था, इस बार अखिलेश और जयंत चौधरी भाजपा को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। पंजाब में पेंच और भी बड़ा है। सिद्धू या चन्नी? समग्र में, यह आयाराम-गयाराम की विचारशून्य राजनीति क्या नया गुल खिलाएगी, अभी देखना बाकी है?
हरीशचंद्र पांडे | हलद्वानी, उत्तराखंड
दमदार नारे
आउटलुक के 7 फरवरी अंक में ‘डबल इंजन की चुनौती पढ़ा’। इस अंक में बहुत ही अच्छे लेख हैं। रोचक चुनावी नारों पर रिपोर्ट बहुत अच्छी लगी। वैसे यह नारे भी तब ही असर करते हैं, जब ये उस राजनीतिक दल की मानसिकता से कुछ मेल खाते हुए हों। मिसाल के तौर पर अनुशासित ममता बनर्जी का चुनावी रण उनके नारे ‘खेला होबे’ से बहुत मेल खाता था। इस नारे में इतना दम था कि यह पूरे भारत में लोकप्रिय हो गया। सच है नारों का बहुत ज्यादा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। नारे पढ़े-लिखे लोगों की अपेक्षा कम पढ़े-लिखे मतदाताओं को ज्यादा प्रभावित करते हैं। इसलिए पहले इनका असर बहुत होता था। अब शिक्षित लोगों की संख्या बढ़ रही है इसलिए बहुत प्रभावी नारे ही मानस पटल पर अंकित हो पाते हैं। शिक्षित लोग अब नारों से ज्यादा मुद्दों को समझने लगे हैं। चुनावी मुद्दे कितने भी असली हों लेकिन जब तक इन्हें शोर के साथ न फैलाया जाए ये असर नहीं करते। नारे बस यही काम करते हैं। मतदाताओं को और कुछ और याद रहे न रहे पर नारे जरूर याद रह जाते हैं।
पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान
विराट का कद पाना मुश्किल
विवाद और बीसीसीआई का चोली दामन का हमेशा साथ रहा है। ‘भारतीय टीम में बढ़ता भरोसे का अभाव’, 7 फरवरी 2022 अंदरूनी राजनीति को बखूबी दर्शाता है। टी-20 कप्तानी छोड़ने के बाद जिस तरह कोहली से 50 ओवर की कप्तानी छीनी गई तभी से उनके और बीसीसीआई के बीच एक दीवार सी खिंच गई थी। रही-सही कसर दक्षिण अफ्रीका में सीरीज की हार ने पूरी कर दी। वैसे तो जीत-हार खेल का हिस्सा हैं लेकिन दक्षिण अफ्रीका की टीम अपने कई बड़े दिग्गज खिलाड़ियों को खोने के बाद युवा खिलाड़ियों के साथ दोबारा टीम बनाने की प्रक्रिया में है। ऐसी टीम से हारना वास्तव में दुखद कहा जा सकता है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि विराट कोहली अपने नाम की तरह ही भारत के सबसे सफल टेस्ट कप्तान रहे और उनकी कप्तानी में हमारी टीम ने नए आयाम हासिल किए। उनकी शानदार कप्तानी को दोहराना उनके उत्तराधिकारी के लिए असंभव तो नहीं लेकिन कठिन जरूर होगा। हम आशा करेंगे कि अब कप्तानी का बोझ उतारने के बाद कोहली अपनी बल्लेबाजी में वही पुरानी धार वापस लाकर नए कीर्तिमान हासिल करें। आशा है कि द्रविड़ और रोहित शर्मा मिलकर इस टीम को मौजूदा कठिन दौर से बाहर निकालेंगे।
बाल गोविंद | नोएडा, उत्तर प्रदेश
परिवारवाद से बाहर निकलें
विपक्ष की एकजुटता की संभावना और कांग्रेस के भविष्य संबंधी लेख (क्या कांग्रेस विपक्ष की केंद्रीय भूमिका में आ पाएगी, 24 जनवरी) पढ़े। मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल में पस्त हुआ विपक्ष विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में महागठबंधन में फिर रूपांतरित होकर भाजपा से भिड़ा भी, पर उसे पर्याप्त सफलता नहीं मिली। राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें बनी भी, लेकिन लोकसभा चुनाव 2017 में इन प्रांतों में कांग्रेस सहित विपक्ष को फिर हार का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी और मुख्य विपक्षी भाजपा ने राजनीतिक शिष्टता और अहिंसा ताक पर रख दी थी। कांग्रेस के राहुल गांधी के बयान अतीत की कांग्रेस को मिटाते ही हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भाजपा ने देश का मान घटाया नहीं बल्कि बढ़ाया है। मुलायम पुत्र अखिलेश और सोनिया पुत्र राहुल लोकतंत्र में वंशवाद के स्तंभ हैं। बेशक विपक्ष में शरद पवार वैचारिक और राजनीतिक रूप से कद्दावर नेता हैं। लेकिन कांग्रेस ने कितने गैर कांग्रेसी और मूलतः पूर्व कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों को गिराया है, इसकी लंबी फेहरिस्त है। भाजपा ने मजबूत भारत और सबका साथ, सबका विकास की नीति पर कार्य किया है। पहले विपक्षी कुनबा छोड़ राष्ट्र के लिए राजनीति की शपथ तो ले, गठबंधन खुद जुड़ जाएगा।
अरविन्द पुरोहित | रतलाम, मध्य प्रदेश
बेकार का विवाद
आउटलुक 24 जनवरी 2022 के अंक में ‘विवाद के झरोखे’ लेख में नाटककार दया प्रकाश सिन्हा को उनकी कृति ‘सम्राट अशोक’ को पुरस्कृत किए जाने पर रचनाकारों और कलाकारों ने आपत्ति दर्ज की है। सबसे पहली बात तो यह कि नाटक विधा की कृति यदा-कदा ही पुरस्कृत होती है। अगर इस वर्ष किसी नाट्यकृति के लिए नाटककार को पुरस्कृत किया गया है, तो रंगमंच जगत में तो इसके लिए खुशी की लहर होनी चाहिए। यह आपत्ति भी नहीं की जानी चाहिए कि एक ही नाटककार को दो अकादमियों से पुरस्कार क्यों प्रदान किए गए। लेख में जिन नाटककारों को यह पुरस्कार नहीं देने की बात की गई है, उनमें से अधिकांश नाटककारों का लेखनकाल पिछली सरकार के कार्यकाल के आसपास ही था। उस समय किसी ने पुरस्कार नहीं देने की बात क्यों नहीं उठाई गई? माना कि दया प्रकाश सिन्हा की विचारधारा दक्षिणपंथी है। इससे समस्या नहीं होनी चाहिए। यह देश विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों और विचारधाराओं का देश है। संवैधानिक रूप से गठित की गई संस्था द्वारा प्रमाणित राजनीतिक दलों को पूरी आजादी है कि वे अपनी विचारधारा के अनुसार जनता से मत और बहुमत की अपेक्षा रखें। साहित्य और कला से भी जनता का जुड़ाव होता है। ऐसे में किसी कृति को सिर्फ इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता है कि वह किसी एक वाद को अपनी रचना में प्रतिपादित करता है। हमारे देश में हर धर्म और वाद के अनुयायी अगर सिर्फ अपने ही वाद और धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं, तो यह भी एक प्रकार की कट्टरता ही है और कट्टर होना घातक है। हर वाद के पक्ष और विपक्ष हैं। आदरणीय रंगकर्मी राजेश कुमार (दलित नाट्य लेखन में एक चर्चित नाम) का आलोचनात्मक रूप से यह कहना कि नाटक का दर्शन ब्राह्मणवादी है और नाटककार ने बौद्ध धर्म को नुकसानदायक बताया है, बिलकुल बेकार बात है। उन्हें यह क्यों नहीं समझना चाहिए कि इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी को है।
राजीव रोहित | मुंबई, महाराष्ट्र
नई शुरुआत
आउटलुक के नए अंक में, ‘कांग्रेस के हाथ कितने पत्ते’, 24 जनवरी 2022, में कांग्रेस की स्थिति का आकलन बिल्कुल सही किया गया है। अब कांग्रेस को अपना समृद्ध इतिहास भुलाकर मान लेना चाहिए की वह उत्तर प्रदेश में नई शुरुआत कर रही है। नई पार्टी की तरह वह शुरुआत करे, तो उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं होगा और जो मिलेगा वह उसकी उपलब्धि होगी। लोकसभा में दो सीटों से पूर्ण बहुमत तक पहुंची भाजपा जब उत्तर प्रदेश में छह से तीस प्रतिशत वोटों तक पहुंच सकती है, कांग्रेस ऐसा क्यों नहीं कर सकती।
बृजेश माथुर | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
लालच बुरी बला
पिछले कुछ दिनों से देश में छापों की राजनीति हो रही है। (‘छापे पर उठते सवाल, 24 जनवरी 2022’) रिश्वतखोर नौकरी खो देते हैं, जेल की सजा भुगतते हैं, उनकी संपत्ति जब्त हो जाती है, इसके बाद भी रिश्वतखोरी या पैसे की जमाखोरी थम नहीं रही है। एक तरफ वे हैं, जिन्हें नौकरी नहीं मिल रही है। दूसरी तरफ वे हैं, जिनके पास नौकरी है लेकिन वे इसका दुरुपयोग कर रहे हैं।
हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश
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पुरस्कृत पत्र
महत्वपूर्ण खबर
यदि कोई खबर ऐसी हो, जिसे राष्ट्रीय महत्व मिलना चाहिए था और न मिला हो, तब किसी राष्ट्रीय पत्रिका में उसे स्थान मिले तो और खुशी होती है। 22 जनवरी के अंक में ‘स्वदेशी का जलवा’ पर यूं तो संपादकीय लिखा गया है। लेकिन यह किसी खबर या लेख से भी अधिक महत्वपूर्ण है। आठ बार के ग्रैंड स्लैम विजेता अमेरिकी टेनिस लीजेंड जिमी कॉनर्स ने जब जो बाइडेन प्रशासन से भारत में निर्मित कोवैक्सीन टीके को अपने देश में इस्तेमाल की इजाजत देने की मांग की, तो हर भारतीय को गर्व हुआ होगा। अफसोस इस खबर को वैसी सुर्खियां नहीं मिली। जब वास्तव में राष्ट्रवाद दिखाने का मौका आता है, तो हम मुद्दे को सिरे से गायब कर देते हैं।
बिभूति प्रकाश | रांची, झारखंड