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भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

ओटीटी दोषी नहीं

‘सितारे अब जमीं पर’, 19 सिंतबर के अंक में बॉलीवुड और इसकी प्रवृत्ति पर बहुत तफसील से बात की गई है। यह तो सच है कि एक वक्त था जब हिंदी फिल्म रिलीज होने का अर्थ ही फर्स्ट डे फर्स्ट शो होता था। जो लोग इससे चूकते थे, वही जानते थे कि उनकी हालत क्या होती थी। लेकिन वह सब सिंगल स्क्रीन थिएटर के दिन थे। मल्टीप्लेक्स आने के बाद धीरे-धीरे हिट फिल्मों के साथ भी फर्स्ट डे फर्स्ट शो का जुनून थोड़ा कम होता गया। कारण कि मल्टीप्लेक्स के बाद इतनी सारी स्क्रीन पर फिल्म आ जाती थी कि भीड़ बंट जाती थी। अब ज्यादातर लोग फिल्मों के फ्लॉप होने या कम व्यापार करने पर ओटोटी को दोषी ठहरा रहे हैं। लेकिन उस वक्त को याद किया जाए, जब हर घर में केबल कनेक्शन था और कई केबल ऑपरेटर देर रात को पाइरेटेड वर्जन दिखा दिया करते थे। इसका मतलब फिल्मों को नुकसान पहुंचाने वाले तत्व बहुत पहले से सक्रिय हैं। लेकिन अब फिल्मों को नुकसान इसलिए हो रहा है क्योंकि ऐसी कोई नई बात ये फिल्में नहीं दिखा रहीं, जो दर्शक देखना चाहें। यही वजह है कि हिंदी सिनेमा को लेकर दर्शकों की उत्सुकता कम हो रही है। यह फ्लॉप का दौर तभी खत्म होगा, जब दर्शकों को नया विषय नए ढंग से दिखाया जाएगा।

सुचित्रा आर्य | भोपाल, मध्य प्रदेश

 

लचर प्रस्तुतिकरण

इस बार की आवरण कथा, (‘सितारे अब जमीं पर’, 19 सिंतबर) फिल्म उद्योग के भविष्य पर बहुत सी बातें करती है। यह सच है कि करोड़ों रुपये के बजट और सैकड़ों लोगों की मेहनत से बनी फिल्मों का हश्र बहुत बुरा हो रहा है। लेकिन लेखिका ने इसमें लिखा है कि “किसने सोचा था कि चार साल बाद परदे पर एक चर्चित फिल्म के रीमेक के साथ उतरे आमिर खान और करीना कपूर की लाल सिंह चड्ढा पहले ही दिन दर्शकों को तरस जाएगी और थियेटर खाली रह जाएंगे।” यह कहना इसलिए सही नहीं है क्योंकि जिस हॉलीवुड फिल्म फॉरेस्ट गंप का आमिर ने रीमेक बनाया है, भारत में उसे बनाने का कोई तुक ही नहीं था। उन्होंने विषय ही गलत चुना, तो उसमें दर्शकों की क्या गलती। अगर आमिर खान उसे ज्यों का त्यों उठाने के बजाय उसका भारतीयकरण करते तो हो सकता था कि उन्हें थोड़ी राहत मिलती। आमिर सरदार बने हैं और हर संवाद के बाद “आहो” बोलते हैं। सिर्फ यह शब्द बोल देने भर से कोई पंजाबी नहीं लगने लगता। दूसरा आश्चर्य और फिल्म की सबसे बड़ी कमी, करीना कपूर रहीं। वे भी पंजाब के ही गांव में पली-बढ़ी दिखाई गईं। उनकी मां पंजाबी ही थी, जिसने क्रिश्चियन से शादी की। बच्चा जिस परिवेश में पलता-बढ़ता है, उसका बोलने का ढंग उस परिवेश से जरूर प्रभावित होता है। लेकिन करीना के बोलने के टोन में कहीं भी पंजाब नहीं झलकता। जबकि बाद में दिखाया गया है कि वे लाल सिंह के घर में ही रहने लगती हैं। यानी नानी के साथ रह कर भी वे ऐसी शुद्ध हिंदी बोलना कैसे सीख गईं, यह समझ से परे है। फॉरेस्ट गंप में नायक भोला था, लेकिन लाल सिंह चड्ढा में उसे बेवकूफ दिखाया गया है। भोले और मूर्ख में जमीन आसमान का अंतर है। दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने आया लड़का यह नहीं समझता कि दंगा क्या होता है। उसकी मां कहती है कि मलेरिया फैला हुआ है और वह मान लेता है। दिल्ली यूनिवर्सिटी को तो कायदे से फिल्म वालों पर केस कर देना चाहिए। यहां सौ प्रतिशत अंक ला कर भी बच्चे इस विश्वविद्यालय में आने को तरसते हैं। और इस विश्वविद्यालय में ऐसे बच्चे को प्रवेश मिल गया जो मलेरिया और दंगे में अंतर नहीं समझता। पहले दर्शक पसंदीदा नायकों को अवतार मानते थे। लेकिन अब वह दौर चला गया है। अब फिल्में इसलिए पिटती हैं कि लचर होती हैं। 

सुकेश चंद्र झा | दरभंगा, बिहार

 

फ्लॉप उत्सव

आज कल हिंदी सिनेमा उद्योग में फ्लॉप महोत्सव मन रहा है। जो फिल्म देखो, फ्लॉप। सितारे (‘सितारे अब जमीं पर’, 19 सिंतबर) धड़ाम से नीचे हैं। खबरें हैं कि सिनेमाघरों से दर्शक गायब हैं। सिनेमाघरों से दर्शक नहीं बल्कि सिनेमा से लॉजिक, कहानी, संवाद, गाने हर कायदे की चीज गायब है। हिंदी सिनेमा में ऐसा समय पहली बार नहीं आया है। अस्सी के मध्य से नब्बे के शुरुआती दशक में भी ऐसा वक्त आ चुका है, जब हिंदी फिल्म उद्योग की साख कमजोर हो गई थी। लगने लगा था कि अब यह उद्योग उबर नहीं सकेगा। हर तरफ फ्लॉप ही फ्लॉप का नजारा था। लेकिन फिर बॉलीवुड उठ खड़ा हुआ। सिर्फ सिनेमा ही क्यों हर उद्योग के साथ कभी न कभी ऐसा वक्त आता है, जब एकरसता उसकी गति को रोक देती है। लेकिन फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है। इसमें दहशत या डरने जैसा कुछ नहीं है। बॉलीवुड यदि कुछ अच्छे कलाकारों को मौका दे, तो यह फिर उठ खड़ा होगा।

सुदर्शन वत्स | मेरठ, उत्तर प्रदेश

 

अहंकार की सजा

इन दिनों सोशल मीडिया में बॉलीवुड बायकॉट की धूम मची हुई है। 19 सितंबर की आवरण कथा में भी इस पर विस्तार से चर्चा की गई है। लेकिन बायकॉट की इसमें कोई बड़ी भूमिका दिखाई नहीं देती। दरअसल बड़े प्रोडक्शन घराने अति आत्मविश्वास में आ गए थे। उन्हें लगने लगा था कि वे कलाकारों को गढ़ते हैं और वे जो दिखाएंगे दर्शक उन्हें झेलेंगे। कुछ साल से तो इन बड़े घरानों ने सिर्फ विदेश में रहने वाले भारतीयों को ही टारगेट कर फिल्म बनाना शुरू कर दिया है। उन्हीं के लिए चमक-दमक वाली बकवास कहानियां, महंगे लोकेशन, रैप जैसे लगने वाले गाने। भारतीय दर्शकों की नब्ज छोड़ने का ही नतीजा है कि आजकल फिल्म का बाजार ठंडा है। दरअसल बॉलीवुड की दिक्कत भेड़ चाल है। बीच में छोटे शहर की एक या दो फिल्में क्या चल गईं पूरा बॉलीवुड ही ऐसी कहानियों के पीछे दौड़ने लगा। अब दर्शकों के पास मनोरंजन के लिए ओटीटी जैसा सशक्त माध्यम है। उस पर खान बंधु अपने से आगे किसी को कुछ समझते नहीं। जाहिर सी बात है, मुंह की तो खाएंगे ही।

नितिन त्रिपाठी | सोनीपत, हरियाणा

 

कड़ा सबक

19 सितंबर के अंक में, ‘बॉलीवुड का बुरा दौर दुष्प्रचार या हकीकत’ में हर बिंदू पर ठीक तरह से रोशनी डाली गई है। कोरोना महामारी, थिएटर की कमी, अच्छी कहानियों का टोटा। वाकई फिल्में फ्लॉप होने का कोई एक कारण नहीं है। बहुत से कारण मिल कर फिल्मों को सुपर हिट बनाते हैं। ठीक उसी तरह बहुत से कारण मिल कर फिल्म को फ्लॉप कराते हैं। जहां तक सोशल मीडिया में दुष्प्रचार या बायकॉट की बात है, यह बात बेमानी है कि इसका असर है। भारत में फिल्मों के इतने शौकीन हैं कि यदि कोई फिल्म अच्छी बनेगी, तो उसका प्रचार लोग खुद करेंगे और चाहे कोई कितना भी कहे कि फिल्म का बायकॉट करो, कोई नहीं सुनेगा। कुछ साल से बॉलीवुड ने यह तरकीब निकाल ली है कि जिस भी फिल्म के चलने में जरा भी शक हो, उसे नकारात्मक प्रचार के जरिये लोगों तक पहुंचा दो। जैसा कि पद्मावत के साथ हुआ। फिल्म स्तरहीन थीं। जितने अच्छे ढंग से उसे बनाया जा सकता था उसे नहीं बनाया गया। लेख में सही लिखा है भारत में तो प्रशंसक अपने नायक, नायिकाओं के मंदिर बना लेते हैं। फिर बायकॉट क्या चीज है।

रागिनी नायक | कटनी, मध्य प्रदेश

 

न माया मिली न राम

19 सितंबर के अंक में, ‘क्या रेवड़ी, क्या कल्याणकारी’ लेख अच्छा लगा। यह समझने की बात है कि खैरात और सब्सिडी में अंतर होता है। रेवड़ी कल्चर पर यह सारगर्भित लेख है। भारत की तमाम राजनैतिक पार्टियों ने चुनावी माहौल में जनता को लुभाने के लिए समय-समय पर अपने घोषणापत्रों में बेबुनियाद रेवडियां बांटने या यूं कहें सरकार बनाने के लिए जल, बिजली, स्वास्थ, रोजगार और घर जैसे झूठे वादे किए हैं। ऐसी बेबुनियाद बातों पर सुप्रीम कोर्ट ने भी सख्त ऐतराज जताया है। लेकिन राजनैतिक पार्टियों अपनी आदतों से लाचार हैं। पार्टियों की सरकारें तो सालों साल सत्ता में रहीं लेकिन जनता को अपना घर मिलना तो दूर जहां वे रह रहे हैं वहां तक बिजली-पानी नहीं पहुंचा। ऐसे में जनता जनार्दन को न तो रेवड़ियां मिली न खैरात। सरकारें तो इस पर कुछ नहीं करेंगी, न्यायपालिका को ही कड़े कदम उठा कर इस पर नियंत्रण लगाना होगा।

डॉ. जसवंतसिंह जनमेजय | नई दिल्ली

 

छोड़ना होगा नियंत्रण

19 सितंबर के अंक में ‘जुड़ो या टूटो’ अच्छा लेख है। लंबे वक्त से कांग्रेस संघर्ष कर रही है या बुरे दौर से गुजर रही है ऐसा कहना बेमानी है, क्योंकि कांग्रेस खुद नहीं चाहती कि यह बुरा दौर खत्म हो। बल्कि इसे यूं कहा जाए कि कांग्रेस की कमान अपने हाथ में रखने वाली सोनिया गांधी नहीं चाहतीं कि कांग्रेस अपने पुराने मजबूत स्वरूप में दोबारा खड़ी हो। राहुल गांधी को पार्टी से पूरी तरह बाहर करने के बाद ही इसका भला हो पाएगा। ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी काबिल नहीं हैं। लेकिन राजनीति में तो यकीनन उनकी काबिलियत नहीं है। हो सकता है किसी अन्य क्षेत्र में वे बेहतर काम कर पाएं। उनकी भारत जोड़ो यात्रा से भी कुछ हासिल होने वाला नहीं है। भारत के कुछ शहरों में घूम लेने भर से कांग्रेस का उद्धार नहीं होगा। गांधी परिवार खुद को पूरी तरह हटा ले फिर कोई गैर-गांधी जमीनी स्तर से काम शुरू करे तो पार्टी जरूर उठ खड़ी होगी। लेकिन सोनिया पुत्र मोह में यह फैसला नहीं ले पा रही हैं। आने वाले दिनों में पार्टी में अध्यक्ष पद का चुनाव है। लेकिन पहले भी देखा गया है कि चुनाव के परिणाम वही ढाक के तीन पात जैसे होते हैं। जरूरी है कि सोनिया, प्रियंका और राहुल तीनों राजनीति से संन्यास ले लें। फैसलों में दखल देना बंद करें, तभी पार्टी में जान आएगी।

कौशल डहेरिया | राजनांदगांव, छत्तीसगढ़

 

ईश्वर तुल्य

अन्य देशों का तो नहीं मालूम लेकिन भारत जरूर ऐसा देश है जहां हर तरह की चिंता होती है सिवाय पर्यावरण के। धरती को कैसे बचाना है, पानी संभल कर खर्च करना है, प्राकृतिक संसाधनों का दुरपयोग नहीं करना है आदि पर कोई बात करना नहीं चाहता। जो अमीर हैं उन्हें लगता है कि वे विदेश में बस जाएंगे। जो गरीब हैं उन्हें लगता है वे पहले से ही इतने बदहाल हैं, तो उनके जीवन पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसे समय में 5 सितंबर के अंक में जल, जंगल और जमीन को बचाने वालों के बारे में पढ़ कर मन भर आया। इतनी बड़ी आबादी में ये मुट्ठी भर लोग हैं, जो अपना जीवन लगा रहे हैं और बहुसंख्यक लोग हैं, जो सिर्फ पर्यावरण को बर्बाद करने में लगे हुए हैं। पर्यावरण प्रेमियों के लिए साइमन उरांव, प्रवीण सांगवान, प्रदीप डिसूजा और कमल चक्रवर्ती जैसे लोग ईश्वर से कम नहीं हैं।

शालिनी गुप्ता | गोंडा, उत्तर प्रदेश

 

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पुरस्कृत पत्र: सिर्फ खुशफहमी

आउटलुक 19 सितंबर का अंक बहुत जरूरी मुद्दे पर है। जरूरी इसलिए क्योंकि पिछले कुछ दिनों से विशुद्ध मनोरंजन भी विचारधारा के दायरे में आ गया है। फलां कलाकार ने यह कहा था, तो फिल्म मत देखो। फलां निर्देशक ने कभी कुछ बोल दिया, तो बहिष्कार करो। एक वर्ग विशेष के कलाकारों के प्रति तो खैर वैमनस्य की कौन कहे। बायकॉट जितनी बड़ी सच्चाई है उतनी ही बड़ी सच्चाई यह भी है कि फिल्में उस स्तर की नहीं बन रहीं। इसलिए दर्शकों ने भी दूरी बना ली है। बायकॉट या ओटीटी की वजह से फिल्मों को इतना नुकसान हो रहा है, यह पूरी तरह सच नहीं है। ऐसे में बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा है। बायकॉट वाले फूले नहीं समा रहे कि उनकी वजह से फिल्में फ्लॉप हो रही हैं।

सुरभि चांदीवाला | मुंबई, महाराष्ट्र

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