रचनात्मक प्रचार
इसमें दो राय नहीं कि मीम आजकल हास्य का पर्याय हैं। हंसी-हंसी में जो कह दिया जाता है, वैसा किसी और ढंग से कहना मुश्किल होता है। यही वजह है कि आजकल प्रचार का यह सबसे सशक्त माध्यम बन गया है। रचनात्मक विज्ञापन हर किसी को पसंद आते हैं। ऐसे में यदि हास्य का तड़का भी लग जाए, तो कहने ही क्या। मीम इतना बड़ा बाजार बन गया है यह आउटलुक की आवरण कथा (मीम हकीम, 17 अक्टूबर) से ही समझ आया। वाकई आजकल हर मर्ज की दवा मीम ही है। यह हकीम का ही काम कर रहा है। अब तक हम मीम को कुछ शरारती और फुर्सत में बैठे युवाओं की कारस्तानी मानते थे। हमें पता ही नहीं था कि जो लोग इतना रचनात्मक सोचते हैं, वे इससे पैसे भी कमा रहे हैं। मीम देख कर हंसना और फिर उसे आगे भेज देना ही हमारा काम था। इसके जरिए लोग लाखों कमा रहे हैं, कंपनियां कम खर्चे में अपने उत्पाद की जानकारी ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा रही है और अजीज खान, काइल फर्नांडीस, सुरील जैन और मनीष जालान जैसे युवा खुद तो स्वावलंबी हुए ही हैं, बल्कि दूसरे लोगों को भी रोजगार मुहैया करा रहे हैं। यह सभी जानकारियां बहुत ही दिलचस्प थीं। अब जब भी कोई मीम देखेंगे, अलग नजरिए से देखेंगे।
चारू साहू | राजनांदगांव, छत्तीसगढ़
युवाओं की खास पसंद
आउटलुक अब जरूरी पत्रिका हो गई है। 17 अक्टूबर का अंक बहुत पसंद आया। मीम लंबे समय से देखते आ रहे हैं, लेकिन इतनी विस्तृत जानकारी नहीं थी। भारत में भी मीम समुदाय बढ़ता जा रहा है। गूगल ट्रेंड्स के विश्लेषण से भी इसका संकेत मिलता है। हालांकि मीम 2013 से धीरे-धीरे भारत में लोकप्रियता हासिल करने लगा था लेकिन पिछले दो साल से तो यह एकदम चरम पर है। मीम को प्रचलित करने का श्रेय सिर्फ जोमाटो और स्विगी जैसे ब्रांड को ही नहीं जाता बल्कि तमाम बड़े ब्रांड्स मीम का सहयोग ले रहे हैं। अब तो इसका प्रचलन इतना बढ़ गया है कि पूरा भारत ही इन्हें देखने और सराहने लगा है। इसमें कोई शक नहीं कि कोरोना महामारी के दौरान सोशल मीडिया पर लोगों ने बहुत समय बिताया और इससे मीम को बहुत स्पेस मिला। युवाओं के बीच यह खास तौर पर लोकप्रिय है। लेकिन अब तो हर वर्ग मीम का आनंद लेने लगा है। अब तो किसी परिचित को संदेश के जवाब में भी लोग मीम खोज कर उसके माध्यम से उत्तर देते हैं। रजनीकांत और सीआइडी के जोक्स तो खासकर हर वर्ग में पसंद किए जाते हैं। मीम सिर्फ प्रचार ही नहीं बल्कि मनोरंजन का भी सबसे बड़ा जरिया बन गया है।
आवेश त्रिपाठी | लखनऊ, उत्तर प्रदेश
विज्ञापन के लिए वरदान
पंचायत वेबसीरीज में बिनोद बने अशोक पाठक और बनराकस बने दुर्गेश कुमार के इंटरव्यू (17 अक्टूबर) अच्छे लगे। दोनों का अभिनय बहुत ही सधा हुआ और एकदम वास्तविक लगता है। दर्शक अब ऐसे ही किरदार परदे पर देखना पसंद करते हैं, जो आम लोगों के जीवन को हूबहू परदे पर उतार सकें, न कि जिम में जाकर बनाए गए शारीरिक सौष्ठव का प्रदर्शन करे। ग्रामीण पृष्ठभूमि को तो छोड़िए, शहरी लोगों को भी दोनों का अभिनय खूब पसंद आया है। पहले भी ऐसे कई कलाकार हुए हैं लेकिन उनके सादगी भरे अभिनय पर चमक-दमक वाले लोग भारी पड़ गए थे। अब नई तकनीक, नए तेवर में ऐसे ही नायक चमकेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि आने वाले समय में अशोक-दुर्गेश की जोड़ी खूब रंग जमाएगी। नए जमाने में मीम ने वाकई ऐसे कलाकारों को हर घर तक पहुंचाया है। कई बार मीम बनते हैं, तो उसके संदर्भ मालूम नहीं होते। आजकल लोग मीम देख कर उसकी पृष्ठभूमि पता करने की कोशिश करते हैं। अशोक-दुर्गेश के साथ भी यही हुआ है। उनके वायरल हुए मीम के कारण कई लोगों ने पंचायत देखा, ताकि समझ सकें। यह नई तकनीक का ही कमाल है कि उन दोनों को अपने प्रचार के लिए पैसा नहीं खर्च करना पड़ रहा है और हर उम्र का व्यक्ति उन्हें जान पा रहा है। मीम विज्ञापन और कलाकारों दोनों के लिए वरदान है।
सदाशिव कुलकर्णी | मुंबई, महाराष्ट्र
संतुलन के लिए जरूरी
17 अक्टूबर के अंक में, ‘घर आया तेज धावक परदेशी’ लेख पढ़ा। उनके आने पर कहा जा सकता है, देर आए दुरुस्त आए। इन खास मेहमानों की मेहमानबाजी में भारत सरकार कोई कसर नहीं छोड़ रही है। भारत के लिए यह गर्व का समय है। चीतों के लंबे समय से विलुप्त होने के बाद उन्हें देश के इकोसिस्टम में फिर से लाया गया है। प्रकृति और जानवरों का महत्व सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा रहा है। इन परदेशियों की देखभाल के लिए 400 चीता मित्रों की तैनाती की गई है। इन्हें चीता के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। चीता मित्रों की पाठशाला लगाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चीता मित्रों से इंसान और पशु के बीच के टकराव को रोक कर चीतों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए के कहा। लेकिन चीतों का भारत आना कांग्रेस को रास नहीं आ रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि देश में महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी बढ़ रही है। सरकार इसकी चिंता छोड़ कर चीते ला रही है। चीतों पर सरकार की आलोचना करने वालों को पता होना चाहिए कि पर्यावरण संतुलन के लिए वन्यजीवों का संरक्षण भी महत्वपूर्ण है।
युगल किशोर राही | छपरा, बिहार
शब्द चित्र
17 अक्टूबर के अंक में ‘मिथिला के राम’ आलेख राम को अलग नजरिए से देखने की दृष्टि देता है। यह बहुत सुंदर तरीके से लिखा भी गया है। यह आलेख नहीं, बल्कि शब्द चित्र है। हर शब्द में राम के प्रति स्नेह है और यही वजह है कि भगवान राम, मर्यादा पुरुषोत्तम राम से इतर यहां राम का ऐसा रूप देखने को मिलता है, जिसके बारे में सोचा ही नहीं गया। पुत्र राम के बारे में तो फिर भी सुनते रहे हैं लेकिन जंवाई राम के बारे में जानना दिलचस्प लगा। भाषा ऐसी कि पढ़ कर ही संतुष्टि मिल जाए। लेखक जब लिखते हैं, “मिथिला की बूढ़ी स्त्रियां आज भी राम को उसी दृष्टि से देखती हैं जिस दृष्टि से धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाते उस सुदर्शन युवक को पहली बार माता सुनयना ने देखा था। छोह से आंखें तब भी भरी हुई थीं, नेह से आंखें अब भी भर आती हैं। उनके लिए वे अब भी पुत्र हैं, दामाद हैं” तो लगता है जैसे राम सामने ही खड़े हैं, जैसे सीता वरमाला लिए उनका इंतजार कर रही हैं और राम कनखियों से उन्हें निहार कर प्रत्यंचा चढ़ाने की तैयारी कर रहे हैं। इस पूरे वाक्य में जनक का राजदरबार जीवंत हो उठता है। राम की इससे अच्छी आराधना और क्या होगी।
पल्लवी जोशी | देवास, मध्य प्रदेश
जामाता राम
राम जी की लीला ही अलग है। राम तो समूचे जगत में बसे हैं। भारत ही नहीं भारत से बाहर भी राम की महिमा है। इस बार ‘मिथिला के राम’ (17 अक्टूबर) से परिचय हुआ। न सिर्फ परिचय हुआ बल्कि पढ़ते-पढ़ते कहीं रोएं खड़े हो गए, तो कभी आंखें भीग गईं। राम सौम्य है और उनकी यही सौम्यता उनके हर रूप में हर काम में झलकती है। ऐसा भाग्यशाली दामाद दूसरा कौन हुआ, जिसे उसके ससुराल वाले जन्म जन्मांतर से याद रखे हुए हैं, पूजते हैं, प्रेम करते हैं। मिथिला वाले इस मायने में अनूठे हैं कि उन्होंने अपने दामाद को अलग रूप में आज तक सहेज कर रखा है। कितना स्नेह है कि आज भी वहां गालियां गाई जाती हैं। यही है भारतीय परंपराएं। भारत में तो सैकड़ों परंपराएं रही हैं, लेकिन मिथिला ने इसे जीवंत रखा। इस लेख के लिए लेखक धन्यवाद के पात्र हैं।
श्रीलेखा जोशी | जयपुर, राजस्थान
अब पलटेगी बाजी
‘अगली लड़ाई के मोर्चे खुले’ (आवरण कथा, 3 अक्टूबर) आने वाले लोकसभा चुनाव पर बात करती है। मौजूदा हालात को देखते हुए यह तो तय है कि इस बार बाजी पलटेगी। सत्ता में जो पार्टी अभी है, उसे लगता है कि हर जगह सरकार बना लेने से ही राज कायम हो जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है। इस बार विपक्ष की भी अच्छी तैयारी है और सभी लोग मोदी-शाह की राजनीति को समझ गए हैं। दोनों ही के पास सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अलावा और कोई दूसरी योजना नहीं होती। हर चुनाव से पहले दो समुदायों के बीच किसी बड़ी घटना को अंजाम देकर ही ये लोग पिछली दो बार से सरकार बना पाए हैं। केसीआर और नीतीश मिल जाएं, तो यह पार्टी कहां चली जाएगी, खोजना भी मुश्किल होगा। अब इनके झांसे में न पिछड़े आएंगे न अल्पसंख्यक। और अगर इन्हें लगता है कि किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री बना कर ये उनके वोट बटोर लेंगे, तो दोनों ही गलत सोचते हैं। आदिवासी ऐसे ही किसी पर अपना वोट व्यर्थ नहीं करेंगे। इनके खिलाफ तो अब जनता भी एकजुट हो गई है। भारतीय जनता पार्टी इस बार करारी हार के लिए तैयार रहे।
शैलेन्द्र शरण | सासाराम, बिहार
यहां भी व्यक्तित्ववाद
भारतीय जनता पार्टी के नेता कांग्रेस पर आरोप लगाते हैं कि यह व्यक्ति विशेष या परिवार विशेष की पार्टी है। यह आरोप लगाते वक्त क्या वे खुद अपनी पार्टी के भीतर झांक कर देखते हैं? भाजपा में भी तो जो मोदी और शाह तय कर देते हैं, वही होता है। 3 अक्टूबर की आवरण कथा, (‘अगली लड़ाई के मोर्चे खुले’, 3 अक्टूबर) में आपने मोदी-शाह बनाम की बात की है। लेकिन बाहरी पार्टियों या विपक्ष के लोगों को तो छोड़ ही दीजिए, खुद उनकी अपनी पार्टी में बहुत असंतोष पनप रहा है। आने वाले चुनाव में मोदी-शाह बाहरी लोगों से तो बाद में लड़ेंगे, पहले तो उन्हें खुद अपनी पार्टी के भीतर के लोगों से ही लड़ना होगा। मोदी जो तय कर देते हैं वही होता है। केवल दिखावे के लिए यहां संगठन और मंत्री पद हैं। वरना कोई भी खुद तय नहीं कर सकता कि उसे क्या करना है। इतनी तानाशाही के बाद इस पार्टी के लोग कहते हैं कि कांग्रेस में सोनिया गांधी के अलावा कोई फैसला नहीं लेता। पहले अपनी पार्टी को तो देखिए कि वहां भी सारे फैसले कौन लेता है। पार्टी के हर व्यक्ति पर मोदी का नियंत्रण है। मोदी ने राजनीति को भी बहुत बदल दिया है। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ जैसा कि अब है। अब तो चुनाव में उनकी पार्टी के लगभग हर नेता कुछ न कुछ गलत बयानबाजी करते ही हैं। इसी से उनके वोटों में बढ़ोतरी होती है। लेकिन अब जनता जागरूक हो गई है और वही इस बार के चुनावो में दोनों को हराएगी।
शैलमणि भास्कर | बीकानेर, राजस्थान
पुरस्कृत पत्र : हंसी-हंसी में संदेश
‘वायरल मीम के चैंपियन किरदार’ (7 अक्टूबर) लेख में गजब का संयोजन है। सोशल मीडिया पर छाए हुए इतने मीम के बीच उन चुनिंदा मीम को छांटना, जिन्हें आज भी पसंद किया जाता है, वाकई कठिन काम है। ये सिर्फ एक तस्वीर और उस पर लिखी एक पंक्ति ही नहीं है। यह तो पूरी कहानी होती है। पचपन की उम्र में मैं खुद अपने दोस्तों को जवाब देने के लिए कुछ लिखने के बजाय उस जवाब से मिलता-जुलता मीम खोजता हूं। तब महसूस कर ही सकता हूं कि युवा पीढ़ी के मन में इसे लेकर क्या दीवानगी होती होगी। यह नए जमाने की रचनात्मकता है, जो हंसाती भी है और प्रचार भी पैदा कर देती हैं। जिस पर मीम बन जाए, वह तो खैर भगवान ही हो जाता है! हंसी-हंसी में ऐसे संदेश देना गजब है।
नरेंद्र त्यागी | सहारनपुर, उत्तर प्रदेश