सबके लिए शायरी
1 मई के अंक में आवरण कथा, ‘ये जो हल्का हल्का सुरूर है’ उम्दा है। शायरी को लेकर जो भी भ्रांतियां थीं वह इसे पढ़ कर दूर हो गईं। दर्शन से लेकर प्रेम और आध्यात्म से लेकर प्रतिरोध और क्रांति तक शायरों का दायरा फैला हुआ है। और यही बात इसे आज तक लोगों के दिलों में रखे हुए हैं। मशहूर अदबी शायर शीन काफ़ निज़ाम के इस वाक्य से बिलकुल सहमत हूं कि “बहुत मुमकिन है कि उर्दू शायरी में आज के युवाओं को अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति मिलती हो।” संवाद का सारा मसला ही अभिव्यक्ति का है। जो बोला जा रहा है, लिखा जा रहा है यदि वह ठीक ढंग से दूसरों तक पहुंचे ही न तो सब बेकार है। पूरी गजल किसी को याद हो न हो लेकिन कुछ शेर ऐसे मारक होते हैं, जो जेहन से जाते नहीं हैं। बात पर जब वजन देना हो तो शायरी इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जो लोग उर्दू और शायरी को सिर्फ किसी खास वर्ग की ज़बान से जोड़ कर देखते हैं, उन्हें भी यह आवरण कथा पढ़ कर समझ आ गया होगा कि अदब किसी खास भाषा या वर्ग का नहीं होता।
सुषमा सांगवान | हिसार, हरियाणा
आज तक खुमारी कायम
मेडिकल कॉलेज के दिनों में हमारे एक प्रोफेसर लेक्चर के बीच-बीच में शायरी सुनाया करते थे। तब से शायरी का जो चस्का लगा, वह आज तक जारी है। खोज-खोज कर अच्छे शेर पढ़ना और उन्हें दोस्तों को सुनाना आज मेरा पहला शौक है। पहले किताबें खोजना मुश्किल था, लेकिन जब से यूट्यूब आया, किसी भी शायर की गजलें आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। इंटरनेट को लोग बहुत गंभीर माध्यम नहीं समझते। माना जाता है कि यहां तो हर तरह की सामग्री उपलब्ध रहती है। लेकिन जब आउटलुक जैसी गंभीर पत्रिका में उर्दू शायरी, (1 मई, ‘ये जो हल्का हल्का सुरूर है’) पर आवरण कथा प्रकाशित करे, तो लगता है कि वाकई शायरी का चलन बढ़ा है। इससे पहले ‘जश्न ए रेख्ता’ और ‘जश्न ए अदब’ जैसे आयोजनों से भी शायरी का माहौल बना। कुछ तो बात है इस विधा में कि लोगों की दीवानगी इसके प्रति बढ़ती जा रही है। इसी अंक में मेरे प्रिय शायर शीन काफ़ निज़ाम का लेख, ‘शायरी को मुशायरों ने खोया’ ने बहुत अच्छे ढंग से युवाओं के बीच तक पहुंच रही शायरी और मुशायरों के माहौल के बारे में बात की।
डॉ. अमित खन्ना | पटियाला, पंजाब
अच्छा संकेत
नए अंक में, ‘शायरी को मुशायरों ने खोया’ ने इस पर बहुत तफसील से बात की। मुशायरों की अपनी प्रतिष्ठा, संभ्रांत लोगों का इससे जुड़ाव और बाद में इसका जनता के बीच पहुंचना बताता है कि इसमें जनता को आकर्षित करने का माद्दा था। लेकिन जैसा कि हर विधा के साथ होता है, दरबारों या रईसों के घर में कोई भी विधा नहीं पनप सकती, जब तक कि इसमें आम जनता प्रतिभागी न बने। यही किसी विधा के लिए सबसे अच्छा होता है, क्योंकि तभी वह लंबे समय तक जिंदा रह पाती है। लेकिन जब कोई भी भाषा या विधा बहुसंख्यक लोगों तक पहुंचती है, तो इसमें हर कोई अपने अनुसार बदलाव करता है और यही शायरी के साथ भी हुआ। लेख में सही लिखा गया है कि “श्रोताओं की पसंद दाद की शक्ल में पाना, शायरों का उद्देश्य हो गया। फब्तियां और फ़िक्रे कसे जाने लगे।” लेकिन इन सबके बीच भी अच्छी बात यही रही कि मुशायरों की लोकप्रियता कम नहीं हुई। रही बात ‘अखाड़े’ की तो यह हर अच्छी बात के साथ जुड़े हुए हैं। यह हर विधा का दुर्भाग्य ही रहा चाहे वह कविता हो, कहानी या शायरी कि अपने आप अखाड़े बनते रहे। यह तो खैर है ही कि शेर तो वही अच्छा है, जो कान के रास्ते दिल में उतरे और दिल से तुरंत ही एक वाह निकल जाए। लेकिन इस सबके बीच भी यदि शायरी युवाओं को लुभा रही है तो यह अच्छा संकेत है।
नीलम श्रीवास्तव | इलाहबाद, उत्तर प्रदेश
उम्मीदों का अंक
नए अंक में, ‘यह उर्दू शायरी का सुनहरा दौर है’ बहुत सी उम्मीदें जगा गया। यह इंटरनेट का ही जादू है, जो आज की युवा पीढ़ी वसीम बरेलवी, बशीर बद्र, मजरूह सुल्तानपुरी, दुष्यंत कुमार, अहमद फ़राज़, फैज अहमद फैज, जौन एलिया, परवीन शाकिर और बशीर बद्र के न सिर्फ नाम पहचानती है बल्कि उनके काम से भी वाकिफ है। परवीन शाकिर और जौन एलिया तो इंटरनेट पर सबसे ज्यादा पढ़े और सुने जाते हैं। सोशल मीडिया की यह बहुत अच्छी बात है कि मुशायरों के माध्यम से ही उर्दू शायरी की जो पहुंच है, वह अब और आगे बढ़ गई है। सोशल मीडिया ने नए शायरों को बहुत मौके दिए हैं। यहां किसी से कहने की जरूरत नहीं है। यदि आपके पास अच्छे शेर हैं, तो आप खुद ब खुद लोगों तक पहुंच जाएंगे। वह दिन हवा हुए जब चुनिंदा शायरों और आयोजकों का एकछत्र राज था। सोशल मीडिया क्रांति का यह बहुत बड़ा फायदा है। इस लेख में उर्दू शायरी और मुशायरों की यात्रा पर बहुत तार्किक ढंग से बात की गई है। यह सच है कि गुजरे जमाने में उर्दू शायरी सुनने वाले बहुत पढ़े-लिखे या बुद्धिजीवी लोग नहीं होते थे। किसी शहर, गांव, कस्बे में कोई मेला लगता था और वहां मुशायरा पढ़ा जाता था। लेकिन धीरे-धीरे वक्त बीता और मुशायरों की काया ही पलट गई। जिन लोगों के लिए मुशायरा मनोरंजन का जरिया होता था अब वे भी मानने लगे हैं कि उर्दू शायरी को जानने के लिए मुशायरों से अच्छा कोई मंच नहीं है। यह सिर्फ उर्दू मुशायरों की ही मुश्किल नहीं है जिसमें मजहबी बातें, चुटकुले और द्विअर्थी टिप्पणी होने लगी थी और ऐसे ही लोगों को प्रशंसा मिलती थी। बल्कि हर गंभीर विधा को ऐसी परेशानियों से गुजरना पड़ता है। साहित्य की दुनिया में संवेदनशील और गंभीर किस्म के लेखकों-शायरों को अपनी जगह बनाने के लिए अतिरिक्त मेहनत करना ही पड़ती है। चूंकि अब ऑनलाइन इतने साधन हैं कि स्तरीय चीजें भी आसानी से मिल जाती हैं और उर्दू के साथ जो शब्दों के अर्थ की दिक्कत थी वह भी ऑनलाइन डिक्शनरी ने खत्म कर दी है। यह वाकई उर्दू शायरी के लिए सुनहरा दौर है।
मंजीत मतवाला | धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश
मिला नया मंच
1 मई की आवरण कथा, ‘ये जो हल्का हल्का सुरूर है’ पढ़ने को मिला। दमदार अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई और साधुवाद। साहित्यिक क्षेत्र हो या कोई भी क्षेत्र सूचना एवं प्रौधोगिकी क्रांति ने आज हरेक क्षेत्र को अपने आगोश में ले लिया है। निश्चित रूप से उर्दू शायरी और शायरों को सोशल मीडिया ने बहुत फायदा पहुंचाया है। इससे उर्दू जबान को भी जबरदस्त पहचान और नई दिशा मिली है। सोशल मीडिया के कारण आज हर लेखक, हर शायर को एक नया मंच मिल पाना संभव हो पाया है। इसमें दो राय नहीं कि इससे प्रतिभाओं को तो सामने आने के नए अवसर मिले ही लेकिन इसका एक नुकसान यह हुआ कि उर्दू के कॉन्टेंट, वर्तनी और व्याकरण पर ध्यान कम हो गया क्योंकि यह कट, कॉपी, पेस्ट का जमाना ज्यादा है। इससे भाषा की गुणवत्ता खत्म होती जा रही है। लेकिन परेशानी यह है कि आज के दौर में, जो वायरल है वही हिट है। इस वजह से संजीदा लेखकों और अच्छे कॉन्टेंट को वह स्थान नहीं मिल पा रहा जो कि वास्तव में उन्हें मिलना चाहिए। आज अधिकांश लेखक मशहूर होने के लिए लिख रहे हैं, न कि साहित्य में कुछ इजाफा करने के लिए। आवरण कथा ऐसे हर पहलू पर रोशनी डालती है।
सुनील कुमार महला | पटियाला, पंजाब
शायराना अंदाज
इस बार के अंक में (1 मई, ‘ये जो हल्का हल्का सुरूर है’) आउटलुक का अलग ही अंदाज दिखाई दिया। प्रथम दृष्टि के अंतर्गत यह बात सही लगी कि सोशल मीडिया ने युवाओं को कल्पना के पंख दिए। सोशल मीडिया की वजह से विश्व समुदाय बन गया और अन्य देशों की रचनाओं के बारे में जानने का सौभाग्य मिला। आज से दो दशक पहले तक हम गांव से शहर की खाक छानकर कविता की एक किताब भी हासिल नहीं कर पाते थे। आज तो साहित्य रसिकों के लिए तो सोशल मीडिया वरदान की तरह है।
डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान
अवैध क्रांक्रीट के जंगल
आउटलुक के 1 मई अंक में प्रकाशित ‘चार धाम पर भारी पहाड़ी चुनौतियां’ में इस साल चार धाम की यात्रा में आने वाली मुश्किलों का वर्णन करके यात्रियों को आगाह करने का नेक काम आपने किया गया है। आशंका है कि इस बार चार धाम आने वाले यात्रियों की संख्या ज्यादा होगी, क्योंकि पिछले चार साल से कोरोना महामारी के कारण श्रद्धालु दर्शन के लिए नहीं पहुंच पाए हैं। लेकिन इस बार बदरीनाथ धाम तक पहुंचने में जोशीमठ आपदा बड़ी समस्या बन सकती है। सरकार इसे दुरुस्त करने के लिए युद्ध स्तर पर लगी हुई है। लेकिन सरकार के लिए भी यह काम आसान नहीं होगा। बेहतर होता कि सरकार पहले ही चेत जाती और पहाड़ों पर क्रांक्रीट के अवैध जंगल न पनपने देती। इससे पहाड़ भी सुरक्षित रहते, वहां रहने वाले भी और श्रद्धालु भी परेशान नहीं होते।
युगल किशोर राही | छपरा, बिहार
जाति जनगणना और विकास
आउटलुक के 17 अप्रैल के अंक में, मनोज झा का इंटरव्यू, ‘‘बस दो-तीन महीने इंतजार कीजिए, सब संभव है’’ पढ़ा। यह आश्चर्य का विषय है कि थोक वोट की राजनीति के लिए दल कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। जाति वर्गीकरण करने पड़े या कुछ और, नेताओं का एक ही मकसद होता है चुनावी जीत। इसमें होता यह है कि इस वर्ग के खास लोगों को ही हर तरह का फायदा मिल जाता है, वास्तविक पिछड़ों का उद्धार ही नहीं हो पाता। देश में पूंजी के साम्राज्य के पतन के बिना, भेदभाव खत्म होना सपने की तरह है। चतुर राजनीति इस समाजवादी नीति से परहेज करके पूंजी के साम्राज्य को बकरार रखना चाहती है। यही भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा सच है।
अरविंद पुरोहित | रतलाम, मध्य प्रदेश
चिंताजनक
17 अप्रैल के अंक में ‘अराजक मोड़ पर सूबा’ पढ़ कर चिंता के बादल घिर आए। पंजाब जैसा समृद्ध राज्य आतंकवाद से झुलस चुका है। जिसमें हजारों लोगों की जाने चली गई थीं। बड़ी मुश्किल से पंजाब आतंकवाद से मुक्त होकर समृद्धि और खुशहाली के रास्ते पर आगे बढ़ा है। यही बात शत्रु देशों और राष्ट्र विरोधी तत्वों को नहीं पच रही है। इसलिए वे लोग पंजाब को फिर से आतंकवाद की ओर ले जाने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं। हालांकि पुलिस और सरकार की लापरवाहियां भी बड़ी हैं। इस लेख से पंजाब की स्थिति का पता चला और कई ऐसे सवालों की तरफ ध्यान गया।
कुलदीप मोहन त्रिवेदी | उन्नाव, उत्तर प्रदेश
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पुरस्कृत पत्र : सुपरहिट अंक
इस बार का अंक (1 मई, ‘ये जो हल्का हल्का सुरूर है’) जबरदस्त रहा। युवा पीढ़ी के दिल में हर दौर में शायरी बसती थी। जबसे मोबाइल और ओटीटी माध्यम आए, तबसे लग रहा था कि शायरी गुजरे जमाने की बात हो जाएगी। लेकिन सोशल मीडिया ने इसकी दिलचस्पी कम नहीं होने दी बल्कि बढ़ा ही दी। दरअसल शायरी दिल तक पहुंचती है और कम शब्दों में अपनी बात कहने का माद्दा रखती है। यह ऐसा जरिया है, जिससे आप न सिर्फ प्यार बल्कि प्रतिरोध भी सशक्त तरीके से दर्ज करा सकते हैं। बीच-बीच में अज़ीम शायरों के शेर ने इसकी प्रस्तुति में चार चांद लगा दिए। पाक महीने माह-ए-रमजान में शायरी पढ़ने से तबीयत खिल गई। युवाओं में शायरी के क्रेज को पहचानकर इसे आवरण कथा बनाने के लिए शुक्रिया।
मोहम्मद ज़ीशान | दिल्ली