जीवन की डोर
आउटलुक के 24 जुलाई के अंक की आवरण कथा, ‘कैंसर से बड़ा जीवन’ की शुरुआत बहुत सकारात्मक है। इसे पढ़ कर लगा कि जीवन की नाजुक डोर को एक न एक दिन टूटना है लेकिन इसके लिए मन को मजबूत रखना जरूरी है। कैंसर आजकल महामारी की तरह फैल रहा है। इसे लेकर कई तरह की भ्रांतियां भी हैं। इस तरह के लेखों, बीमारी भोग चुके या बीमारी से ग्रस्त लोगों के अनुभव उन लोगों को फायदा पहुंचाते हैं, जो इससे गुजर रहे हैं। ऐसे लेख आत्मविश्वास बढ़ाते हैं। इसमें कई लोगों ने अपने अनुभव साझा किए हैं, जो बताते हैं कि हिम्मत रखी जाए, तो हर स्थिति से पार पाया जा सकता है।
पुष्पा मिश्रा | बरेली, उत्तर प्रदेश
कठिन लड़ाई
कैंसर की लड़ाई बहुत कठिन है, इसमें कोई दो राय नहीं है। यह बीमारी व्यक्ति को तन, मन और धन तीनों ही रूपों में बहुत हानि पहुंचाती है। 24 जुलाई की आवरण कथा में ‘कैंसर से बड़ा जीवन’ में बहुत से लोगों ने अपने अनुभव साझा किए हैं। इन्हें पढ़ कर बीमारी से जूझ रहे लोगों को हिम्मत आएगी ही। लेकिन यह ऐसी बीमारी है, जिसके इलाज में खर्च बहुत ज्यादा होता है। अच्छा होता यदि ऐसी कुछ संस्थाओं, सरकारी मदद या अन्य तरह की सुविधा के बारे में भी जानकारी होती, ताकि पीड़ित मरीज वहां से सहायता प्राप्त कर सकते। क्योंकि इस बीमारी में संबल देने वाले फिर भी बहुत हैं लेकिन पैसे की जरूरत को पूरा न करने वाले कम ही लोग हैं। यदि एक बार मनुष्य आर्थिक लड़ाई जीत ले तो फिर मानसिक मजबूती हासिल कर ही लेता है।
नीतेश शर्मा | हिसार, हरियाणा
प्रेरक कहानियां
24 जुलाई के अंक में ‘जो लड़कर रहे विजेता’ उम्दा लगा। कैंसर जैसी घातक बीमारी का नाम सुन कर ही व्यक्ति डर जाता है। जो लोग इसे भोगते होंगे, उनके बारे में क्या कहें। इस तरह के लेख हिम्मत जगाने का काम करते हैं। सच्ची कहानियां हमेशा से प्रेरक रहती हैं। कैंसर पीड़ितों के पढ़ कर हर उस व्यक्ति को हिम्मत मिली होगी, जो बीमारी के दौर से गुजर रहा है।
लता परमार | बीकानेर, राजस्थान
नेता, अभिनेता और क्रिकेट
‘जो लड़कर रहे विजेता’ लेख उत्साह जताता है। 24 जुलाई का अंक बहुत विशेष है। बीमारियों पर बात करना कम ही लोग पसंद करते हैं। ऐसे में यदि आउटलुक कैंसर जैसी बीमारी पर लोगों के अनुभव के साथ सामग्री प्रकाशित करता है, तो यह बहुत बड़ी बात है। जन साधारण के सरोकारों से संबंधित विषय तो अब मीडिया में गायब ही गए हैं। मीडिया में जगह सिर्फ तीन ही विषयों के लिए बची है। राजनीति, फिल्म और क्रिकेट। तमाम वेबसाइट्स, अखबार, न्यूज चैनल या तो नेताओं को दिखा कर खुश हैं या फिल्म या क्रिकेट से जुड़ी हस्तियों के निजी क्षण दिखा कर। लगता है जैसे यदि क्रिकेट खिलाड़ी उनकी पत्नियां और फिल्मी सितारों के बच्चे न हों तो भारत का मीडिया खाली हो जाएगा। उसके पास दिखाने को कुछ और बचेगा ही नहीं। ऐसे नाजुक दौर में आउटलुक हमेशा से नए-नए विषयों पर आवरण कथाएं लेकर आता है। पत्रिका को पढ़ कर आश्वस्ति होती है कि आम लोगों के जीवन की कोई तो है, जो सुध ले रहा है। यह अंक कैंसर की बीमारी से जूझ रहे लोगों की हिम्मत को दर्शाता है। ऐसे न जाने कितने लोग होंगे, जिनके लिए इस अंक ने संजीवनी का काम किया होगा। इस तरह के विषयों को भी यदि मीडिया में जगह मिलती रहे, तो बीमार व्यक्ति को हौसला रहता है कि कोई है, जो उनके बारे में सोच रहा है।
कांति देसाई | अहमदाबाद, गुजरात
मौके की तलाश
नोटों के झरने के नीचे नेता नहा रहे हैं। राजनीति में इससे अच्छा मंजर और क्या होगा। ‘महातोड़ सियासत’ (24 जुलाई) लेख में कुर्सी की जोड़-तोड़ का अलग ही रंग समझने को मिला। पदलोलुपों का हाई वोल्टेज ड्रामा मीडिया के लिए ही ठीक है। आम आदमी को इतनी फुर्सत कहां कि वह इस पर ध्यान दे कि कौन किस पार्टी में चला गया है, किसने किस पार्टी को छोड़ पटखनी दे दी। इस सबके बीच संविधान शब्द सबसे निर्रथक लगता है। भारतीय लोकतंत्र कहां से कहां पहुंच गया है। इसमें सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए शायद जगह बची है, जो बस मौके की तलाश में रहें और जहां मौका मिले फुर्ती से कूद जाएं। आज के नेताओं को कुर्सी के सिवा अब कुछ नहीं चाहिए।
पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान
कैसे हो सुलह
बात सिर्फ मणिपुर की ही नहीं है। 24 जुलाई के अंक में जिस मणिपुर की, ‘अपने हिस्से की धरती की लड़ाई’ लेख के अंतर्गत बात की गई है, उस पर सिर्फ लिखना या बात करना ही काफी नहीं है। राज्य सरकारें लगातार हर जगह स्थानीय समुदायों से दुर्व्यवहार कर रही हैं। उनसे उनका सब कुछ छीना जा रहा है। आदिवासी समुदाय हर जगह परेशानी में है। मणिपुर में कुकी-मैती के बीच सुलह न कराने के पीछे भी सरकारों की मंशा यही है कि दोनों आपस में हमेशा लड़ते रहें। फौरी तौर पर भले ही इसे आरक्षण का मसला बताया जा रहा हो लेकिन सच्चाई तो यही है कि दो समुदायों के बीच लड़ाई चलने पर फायदा सरकार को ही होता है।
चार्ली उरांव | बोकारो, झारखंड
शांति बहाल हो
24 जुलाई के अंक में, ‘अपने हिस्से की धरती की लड़ाई’ अच्छा लेख है। यह दो समुदायों की नहीं बल्कि सभी के हक की लड़ाई है। अगर हिंसा हो रही है, तो जाहिर है कोई एक पक्ष यह नहीं कर रहा। दोनों ही पक्ष शांति बहाल करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। पहाड़वासी कुकी समुदाय का दावा है कि मैती लीपुन और अरामबाई तेंगगोल जैसे नवगठित मैती संगठन सरकारी बलों की मदद से उनका कत्लेआम कर रहे हैं। इम्फाल घाटी और उसके आसपास बसने वाले मैतियों का दावा है कि हिंसा के पीछे कुकियों के वे उग्रवादी संगठन हैं जिनके ऊपर सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस (एसओओ) का निर्देश अब भी लागू है। बात चाहे जो हो लेकिन इतना तो तय है कि केंद्र सरकार यह हिंसा रोकने में विफल रही है। खुद कुछ कर नहीं पा रहे हैं और राहुल गांधी को वहां जाने से रोक रहे हैं। यह तो वही हुआ कि अपनी विफलता का ठीकरा भी दूसरों के सिर फोड़ दो। जो भी है लेकिन सरकार को अब हर तरीके से शांति बहाल की व्यवस्था करना चाहिए।
नीलरमण जुनेजा | भोपाल, मध्य प्रदेश
भारत का लोकतंत्र
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विदेशों में जाकर भारतीय लोकतंत्र की तारीफ करते नहीं थकते। वह भारत की ऐसी छवि पेश करते हैं जैसे, इस देश की महानता के आगे सब गौण हैं। इसके बाद जब महाराष्ट्र जैसी घटनाएं होती होंगी, तो भला वहां का मीडिया क्या सोचता होगा। 24 जुलाई के अंक में सत्ता हथियाने की कथा, ‘महा तोड़ सियासत’ पढ़ कर भारतीय लोकतंत्र से ज्यादा तो मोदी की छवि की चिंता हुई! भाजपा की सरकार आने के बाद तो चुनाव और उसके परिणाम हास्यास्पद हो गए हैं। बेहतर हो कि भारत में चुनाव कराने बंद ही कर दिए जाएं। करोड़ों रुपये खर्च कर, लाखों कर्मचारियों को परेशान करने का आखिर क्या तुक है। परिणाम कुछ भी हो जब सरकार भारतीय जनता पार्टी को ही बनाने है, तो फिर पहले उन्हें ऐसे ही मौका दे दिया जाए। बल्कि सबसे अच्छा तो यह है कि जिस तरह छह-छह महीने मुख्यमंत्री का फार्मूला होता है वैसे ही पांच-पांच साल का फार्मूला बना लिया जाए। पांच साल पूरे होने पर बिना चुनाव के ही सत्ता दूसरी पार्टी को हस्तांतरित हो जाना चाहिए। इससे देश के करदाताओं का अनावश्यक लगने वाला पैसा बचेगा और किसी और पार्टी को वोट देने वाली जनता भी दुखी नहीं होगी।
श्रुति कानिकटकर | पुणे, महाराष्ट्र
नाम ही बाजार है
10 जुलाई की आवरण कथा, ‘बेवफाई का बाजार’ पढ़ी। जब आपने बाजार शब्द का उपयोग ही कर लिया, तो फिर इस पर कहने को कुछ बाकी नहीं रहता। बाजार अपने आप में ऐसा शब्द है, जहां हर बात की नुमाइश है। वहां भावनाओं की, परंपरा की, संस्कृति की कोई जगह नहीं है। इस बाजार शब्द ने हर जगह को दूषित कर दिया है। रंग-बिरंगी रोशनी में हर व्यवस्था की अपनी कीमत है। डेटिंग ऐप ने दूसरों से संबंध रखने की मूल भावना को पकड़ा और इसको विस्तार दे दिया। इस विस्तार ने उन लोगों का भी नुकसान किया जो अब तक इस व्यवस्था से बाहर थे। इन लोगों ने विवाहेतर संबंधों के बारे में सुना था लेकिन उन्हें इस बारे में कोई पक्की जानकारी नहीं थी। ऐप आने से अब ये लोग भी इसकी जद में आ गए। उन्हें भी पता चल गया कि बेवफाई या कहें उत्सुकता का यह बाजार कहां फलता-फूलता है। अब हर किसी को पता है कि कहां किससे और कैसे संपर्क साधा जा सकता है। यही बाजार है, जो लोगों को जकड़ लेने का कोई मौका नहीं छोड़ता।
स्नेहलता राठौर | जयपुर, राजस्थान
पुरस्कृत पत्र: असली नायक
नायक सच में ऐसे ही होते हैं जैसे, रवि प्रकाश। 24 जुलाई के अंक में, मौत का अब मुझे डर नहीं का एक-एक शब्द जिंदा रहने की मिसाल है। मौत सामने खड़ी है लेकिन रवि प्रकाश हैं कि जीवन का आनंद ले रहे हैं। यही असली जीवन है जो, मनुष्य को साधारण से असाधारण बना देता है। उनका लिखा सिर्फ हौसला ही नहीं देता बल्कि बताता है कि जीने के लिए सांसों से ज्यादा उसकी कीमत समझना जरूरी है। जो वक्त का सार्थक इस्तेमाल कर ले वही असली विजेता है। बहुत से लोग हैं, जिन्हें सांसों की गिनती नहीं करना पड़ती, जिन्हें करना पड़ती है वे कई बार नैराश्य में डूब जाते हैं। ऐसे में रवि प्रकाश जैसे लोग अंधेरे में चमकती लौ के समान हैं।
आत्माराम बघेल | झांसी, उत्तर प्रदेश
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आपकी यादों का शहर
आउटलुक पत्रिका के लोकप्रिय स्तंभ शहरनामा में अब आप भी अपने शहर, गांव या कस्बे की यादें अन्य पाठको से साझा कर सकते हैं। ऐसा शहर जो आपके दिल के करीब हो, जहां की यादें आपको जीवंतता का एहसास देती हों। लिख भेजिए हमें लगभग 800 शब्दों में वहां की संस्कृति, इतिहास, खान-पान और उस शहर के पीछे की नाम की कहानी। या ऐसा कुछ जो उस शहर की खास पहचान हो, जो अब बस स्मृतियों में बाकी हो।
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