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भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

खास छवि

नायक को खास छवि में कैद कर रखना बॉलीवुड ने शुरू से किया है। इसकी वजह से कई साधारण चेहरे-मोहरे वाले नायक पीछे रह गए। उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन न हो सका। आउटलुक की आवरण कथा (‘अपने जैसे लगते नायक’, 4 सितंबर) उन कलाकारों के हक में बात करती है, जिनमें प्रतिभा है और उन्हें अब मौके मिलने लगे हैं। अगर यह पहले से होता रहता तो सचिन पिलगांवकर, अमोल पालेकर जैसे कलाकार ऑफ बीट फिल्मों के हीरो होकर न रह जाते। बेशक दोनों कलाकारों ने बहुत अच्छी फिल्मों में काम किया, उन्हें नाम भी मिला लेकिन उन्हें वह शोहरत नहीं मिली जो उनके समकालीन दूसरे नायकों को हासिल हुई। दरअसल बॉलीवुड में हमेशा से ही परिवारवाद रहा। उद्योग चुनिंदा लोगों के हाथ में रहा और उन लोगों ने उसी को मौका दिया, जिसका परिवार कहीं न कहीं फिल्मों से जुड़ा रहा। यही वजह है कि कई प्रतिभाशाली कलाकारों की प्रतिभा ने बेवक्त दम तोड़ दिया। अब यह सब इसलिए भी हो पा रहा है क्योंकि अब ओटीटी जैसा माध्यम आ गया है, जहां फिल्म प्रदर्शित की जा सकती है। फिल्म बना कर उसे दर्शकों तक पहुंचा पाना हर किसे के बूते का काम नहीं था। वेबसीरीज ने भी कई कलाकारों को प्रतिभा दिखाने का मौका मिला। साधुवाद आउटलुक इस विषय पर लिखने के लिए।

श्वेता तिवारी | गंजबासौदा, मध्य प्रदेश

 

बाहरी प्रतिभाएं

बॉलीवुड की छवि पिछले दिनों काफी बदली है। 4 सितंबर की आवरण कथा, ‘अपने जैसे लगते नायक’ उसी की एक कड़ी है। पकंज कपूर से लेकर पंकज त्रिपाठी तक भारतीय फिल्म उद्योग के पास प्रतिभाओं की कभी कमी नहीं रही। बस पहले होता यह था कि पंकज कपूर चरित्र अभिनता तक सिमट कर रह गए और पंकज त्रिपाठी एकदम नायक छवि वाले अक्षय कुमार के सामने अव्वल साबित हुए। इतने अव्वल की उनका बाहरी होना भी इसके आड़े नहीं आया। भारतीय सिनेमा को सौ साल से ज्यादा होने को आए हैं। इस यात्रा में साधारण कलाकारों को मौके मिलना सबसे खास है। स्टार सिस्टम लाने वाले खुद इस बदलाव को देख कर हैरान होंगे। लेकिन इसमें दो राय नहीं कि पंकज त्रिपाठी, कुमुद मिश्रा, संजय मिश्रा, बृजेंद्र काला जैसे कालाकार अपनी प्रतिभा दिखा ही इसलिए पा रहे हैं क्योंकि अब एक और नया माध्यम ओटीटी मौजूद है। इन अभिनेताओं की प्रतिभा ओटीटी की वजह से रेखांकित हो रही है। यह बदलाव आउटलुक ने पकड़ा और इसे आवरण कथा में जगह दी यह भी महत्वपूर्ण है। इससे तमाम छोटे शहरों और कस्बों के साधारण चेहरों वाले लोगों को हौसला मिलता है। उन्हें लगता है कि वे भी नायक बन सकते हैं या अभिनय के पेशे में उतर सकते हैं। वरना अभी तक ऐसे लोगों के लिए फिल्म उद्योग दूर की कौड़ी हुआ करती थी। अब तक ऐसे अभिनेताओं के लिए रंगमंच ही एकमात्र सहारा था। अब ये लोग रंगमंच से निकल कर अपनी प्रतिभा उस दर्शक तक पहुंचा पा रहे हैं, जिन्हें अच्छा और सार्थक अभिनय देखना पसंद है।

नवीन जोगी | भिलाई, छत्तीसगढ़

 

प्रशासन की विफलता

आउटलुक के नए अंक 4 सितंबर को प्रकाशित लेख, ‘सतह के नीचे लगातार सुलगता मेवात’ में उस मौके का सटीक विश्लेषण है। नूंह 75 साल से हिंदू-मुस्लिम धार्मिक सौहार्द का हरियाणा और देश के लिए जीवंत उदाहरण रहा है। अब उसी नूंह के जिन मेवाती मुसलमान के ऊपर सवाल खड़े किए जा रहे हैं वे एक जमाने में अपने क्षेत्र को बचाने के लिए बाबर से लड़े हैं। नूंह में हिंसा का मुख्य कारण सरकार और पुलिस प्रशासन की असफलता रही है। इन सभी घटना के पीछे मुख्य आरोपी मोनू मानेसर था जिसके भाषण और हरकतों की सरकार और प्रशासन ने अनदेखी की। दंगों के बाद सरकार और प्रशासन ने कार्रवाई के नाम पर कई अल्पसंख्यकों के घरों और दुकानों को उजाड़ दिया जबकि उनके पास दुकान और जमीन के वास्तविक कागज मौजूद थे। अभी भी हरियाणा के अंदर हिंसा की चिंगारी पूरी तरह से दबी नहीं है। अभी भी वहां भड़काऊ भाषण और धार्मिक यात्राओं की प्रक्रिया जारी है। हरियाणा सरकार और पुलिस प्रशासन को भड़काऊ भाषण और ऐसी धार्मिक यात्राओं पर रोक लगानी चाहिए, जिससे राज्य के अंदर धार्मिक सौहार्द न बिगड़ सके।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

 

देवियों का देश

आउटलुक के 21 अगस्त के अंक में ‘जमीन की लूट में पहला शिकार’ लेख पढ़ कर मन बहुत आहत हुआ। इस तरह की घटनाएं सभ्य समाज पर कलंक की तरह हैं। हर काल में महिलाएं ही हिंसा की पहली शिकार होती हैं। यह हमारे लिए शर्म की बात है जो आज भी हमें किसी महिला में डायन दिख जाती है। दंगों में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और उनकी आबरू लूट कर निर्वस्त्र कर घुमाने पर भी हमारे चेहरे शर्म से नहीं झुकते। ऐसे किसी भी कृत्य में शामिल लोगों को फांसी से कम सजा होनी ही नहीं चाहिए। सख्त सजा ही महिलाओं के प्रति ऐसे अपराधों पर लगाम लगा सकेगी। वरना कन्या पूजन और नौ दिन देवी की आराधना तो हम सदियों से करते आ रहे हैं, लेकिन लोग की मानसिकता नहीं बदलती।

किशोर चौधरी | रोहतक, हरियाणा

 

हिंसा का आसान शिकार

महिलाओं के प्रति हर देश में हिंसा बढ़ रही है। भारत में भी अब हर राज्य में ऐसे मामले हर दिन सामने आ रहे हैं। 21 अगस्त की आवरण कथा, ‘जमीन की लूट में पहला शिकार’ आदिवासी महिलाओं की बात करती है लेकिन शहरी महिलाएं भी इस तरह की हिंसा से बची हुई नहीं हैं। मणिपुर की घटना दिल दहलाने वाली है। इतनी बड़ी घटना के बाद भी भारत में रोष का, क्रोध का जो उबाल आना चाहिए था वह नदारद था। सरकार तो घटना के दोषियों को सजा जब दिलाए, तब दिलाएगी लेकिन समाज को भी चाहिए कि वह हर भाव से ऊपर उठ कर आक्रोश दिखाए। हम सभी को याद रखना चाहिए, आम आदमी का आक्रोश ही अंततः अपराधियों को सजा की दहलीज तक लाता है। यदि समाज चुप बैठ गया, तो महिलाओं के प्रति हिंसा में कभी भी कम नहीं आएगी और हम सब बस राजनीति की बात कर चुप बैठ जाएंगे। हजारों की भीड़ में दिनदहाड़े एक युवती और एक अधेड़ महिला को निर्वस्त्र घुमाया जाना कोई छोटी मोटी बात नहीं है। सोच कर देखिए कि हमारे मन कितने कठोर हो गए हैं, जो उन दो महिलाओं में भी वहां मूक दर्शक बने वीडियो बनाते लोगों को एक खास समुदाय ही दिखता रहा। इतने असंवेदनशील होकर आखिर हम कहां जाएंगे। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सभी के दिमाग में राजनीति का जहर है। एक समुदाय को दूसरे का दुश्मन दिखाया जा रहा है। इसलिए हर किसी को सोचना चाहिए कि वैचारिक मतभिन्नता अपनी जगह है। लेकिन कम से कम महिलाओं को तो बदला लेने के हथियार के रूप में इस्तेमाल न किया जाए। जो सदियों से होता आया है, उसे कम से कम आज के पढ़े-लिखे, समझ सकने वाले नौजवान, महिलाएं रोकने की कोशिश करें। 

जी.एल. गुप्ता | बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

 

आदिवासियों के हित

आउटलुक की 21 अगस्त की आवरण कथा, ‘जमीन की लूट में पहला शिकार’ बहुत ही सधे शब्दों में अपनी बात रखती है। इस लेख में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के जो आंकड़े दिए गए हैं, वह महिलाओं खास कर आदिवासियों के प्रति अत्याचार की खुद ही कहानी कहते हैं। सब कहते हैं कि यह उस देश में हो रहा है, जहां औरतों को देवी का दर्जा दिया जाता है। लेकिन यह समझना जरूरी है कि अनुसूचित जनजाति की महिलाओं और पुरुष भी हमेशा से जुल्म के शिकार रहे हैं। भारत में हमेशा से ही किसी खास वर्ग को लेकर असहिष्णुता रही है। सरकार चाहे कोई भी रही हो, आदिवासी हमेशा से ही हाशिए पर रहे हैं। वे लोग इतने पढ़े-लिखे भी नहीं होते कि अपने लिए लड़ाई लड़ सकें। जो उनके लिए लड़ने जाता भी है, उसके अपने स्वार्थ होते हैं। उनके हितों की बात करने वाले कई बार उन्हें भरमा देते हैं। वहां जाकर वे लोग सिर्फ फोटो खिंचवाते हैं, उनके नाम पर विदेशों से फंड इकट्ठा करते हैं और खुद की हालत सुधारते हैं। आदिवासियों की हालत वहीं की वहीं रह जाती है। थाने भी उनके लिए अत्याचार की जगह ही साबित होता है। दूसरी बड़ी समस्या उनके पास मौजूद खनिज संपदा है, जिस पर सभी बड़े उद्योगपतियों की नजरें लगी हुई हैं। आदिवासियों की भलाई के लिए किसी को कुछ नहीं करना है, लेकिन उनसे उनकी जमीन, जंगल, खनिजों से भरी खदानें सभी को चाहिए। जमीन पर कब्जे की लड़ाई का पहला शिकार वही महिलाएं होती हैं, जिनके परिवार जमीन देने का विरोध करते हैं। अगर इस पर काम नहीं किया गया, तो यह सिलसिला चलता रहेगा।

तारा सांघी | बोकारो, झारखंड

 

पुरस्कृत पत्र: अहम बदलाव

यह विडंबना ही है कि पहले जब समाज में बहुसंख्यक लोग साधारण थे, तब फिल्मों में नायक की खास छवि पेश की जाती थी। सुदर्शन, मोहक से दिखने वाले युवक ही नायक बन पाते थे। बाकी साधारण शक्ल-सूरत के लोग या तो विदूषक बन कर रह गए या फिर चरित्र अभिनेता। लेकिन अब इस नए दौर में ज्यादातर लोग अपने पहनावे, दिखने के अंदाज पर ध्यान देने लगे हैं, तब नायक साधारण शक्ल-सूरत के भी होने लगे हैं। यह समाज के लिए अच्छा संकेत है। आउटलुक हर बदलाव पर नजर रखती है और अपनी आवरण कथा में स्थान देता है। (‘अपने जैसे लगते नायक’, 4 सितंबर) में जगह भी दी। हालांकि क्षेत्रीय सिनेमा में तो पहले भी साधारण चेहरों को जगह मिल जाती थी।

देबबाणी बर्मन | दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल

 

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