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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

रोजी-रोटी के सवाल

हाल ही में एक देश एक चुनाव की चर्चा चली। लेकिन यदि ऐसा हो गया तो फिर मीडिया का क्या होगा। एक चुनाव का ही तो मौसम है, जब मीडिया पूरे शबाब पर होता है। यह तो उसकी रोजी-रोटी से जुड़ा सवाल है। आउटलुक की आवरण कथा (‘हारे तो बड़ी लड़ाई मुश्किल’, 2 अक्टूबर) चुनावी राज्यों का लेखा-जोखा है। राज्यों की कमजोरी और शक्ति पर बहुत अच्छे से बात की गई है। लेकिन भारत में अब चुनाव सरकार बनाने और चुनाव जीतने का खेल बिलकुल बदल गया है। पिछले कई चुनावों से सभी देखते आ रहे हैं कि चुनाव कोई भी जीते, सरकार कोई भी बनाए, जनादेश किसी को भी मिले कुछ महीनों बाद सब कुछ उलट-पुलट जाता है। फिर टीवी पर लंबी-लंबी बहस चलती हैं। जाहिर सी बात है, इनमें कुतर्क ज्यादा होता है। यही बहसें ही टीवी पत्रकारों की रोजी-रोटी भी चलाती हैं। सतही मुद्दों पर एंकर बहस कर अपनी मोटी तनख्वाह को सही ठहराने की कोशिश करते हैं। बेहतर हो कि कम से कम प्रिंट मीडिया चुनावों पर बात करना ही बंद कर दे। अब चुनावों में कुछ भी बाकी नहीं रह गया है।

जयंत जाधव | पुणे, महाराष्ट्र

 

लोकतंत्र का उत्सव

आउटलुक के 2 अक्टूबर की आवरण कथा, ‘हारे तो बड़ी लड़ाई मुश्किल’ अच्छी लगी। लेख में सही लिखा गया है कि चुनाव भले ही कहीं भी हों लेकिन हिंदी पट्टी की बात ही अलग है। यही वजह है कि राजस्‍थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं। आगामी संसदीय चुनाव पर भी इन राज्यों के नतीजों का असर होगा यह कहना गलत नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ ही दिनों बाद ऐसे प्रचार करने लगेंगे जैसे देश में पहली बार चुनाव हो रहे हों! भारतीय जनता पार्टी के सभी नेता, मंत्री हर काम छोड़ कर चुनाव प्रचार में लग जाएंगे और सब कामकाज ठप हो जाएंगे। चुनाव हमारे यहां लोकतंत्र का उत्सव कहा जाता है लेकिन ये बस कुछ बाहुबलियों का उत्सव बन कर रह गया है। चुनाव लोकतंत्र सहेजने का नहीं बल्कि धन-बल का प्रदर्शन का जरिया बन गए हैं।

अंशुमाली रस्तोगी | बाराबंकी, उत्तर प्रदेश

 

कड़ा मुकाबला

आउटलुक की आवरण कथा, ‘हारे तो बड़ी लड़ाई मुश्किल’ (2 अक्टूबर) चुनावी फिजा की पूर्वपीठिका है। चुनाव की तारीख की घोषणा के साथ ही तैयारी विधानसभा चुनाव की नहीं बल्कि लोकसभा चुनाव की हो रही है। विधानसभा के नतीजे अपने पक्ष में करने के लिए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ही खूब मेहनत कर रही हैं लेकिन यह सब ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटें हथियाने के लिए है। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और राजस्थान में अशोक गहलोत की अच्छी पकड़ है इसलिए इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को चिंता करने की जरूरत नहीं है। रही बात मध्य प्रदेश की तो यदि मेहनत की जाएगी, तो कांग्रेस इस राज्य को भी भाजपा से छीन सकती है। अब मतदाता भाजपा के झांसे में आएंगे नहीं यह मुख्यमंत्री शिवराज चौहान भी जानते हैं। व्यक्तिगत तौर पर भी उनकी चमक फीकी हो गई है। इसलिए उनके लिए तो यह हार वाकई बड़ा झटका होगी।   

नवीन मेघानी | जयपुर, राजस्थान

 

सियासी घमासान

आउटलुक की 2 अक्टूबर की आवरण कथा, ‘हारे तो बड़ी लड़ाई मुश्किल’ चुनावों की तैयारी की बात के बीच सियासी दांव पेच भी बताती है। यदि भारतीय जनता पार्टी हारती है, तो यह पार्टी की नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार होगी। क्योंकि भाजपा तो पंचायत चुनाव भी नरेंद्र मोदी की अगुआई में लड़ती है। इसलिए चुनाव जीतेंगे तो भी मोदी और हारेंगे तो भी मोदी ही। क्योंकि इसी अंक में एक और लेख, घोसी जनादेश के सियासी संकेत खुद ही सारी कहानी कह देता है। तीनों ही हिंदीभाषी राज्यों में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है। दोनों पार्टियों सियासत पर फिर काबिज होना चाहती हैं। राज्य से नतीजे ही केंद्र तक पहुंचाएंगे। अगर कांग्रेस तीनों राज्य जीत लेती है, तो मतदाताओं में भी पार्टी के प्रति भरोसा बढ़ जाएगा। वैसे मोदी का जादू खत्म हो रहा है और यह घोसी उपचुनाव में दिख गया है। हवा का रुख बदल रहा है। ऐसे में कांग्रेस को चाहिए कि वह पूरा जोर लगा दे। सभी वरिष्ठ जमीन पर काम करें, तभी पार्टी बेहतर प्रदर्शन कर पाएगी।

कंचन सांघी | देवास, मध्य प्रदेश

 

चुनाव की जमीन

विधानसभा चुनाव सिर पर हैं और लोकसभा के लिए कमर कसी जा चुकी है। ऐसे में आउटलुक ने चुनावी राज्यों का विश्लेषण कर बहुत सराहनीय काम किया है। 2 अक्टूबर के अंक में ‘सेमीफाइनल के सेनापति’ में चुनाव की तैयारी और चुनौती दोनों पर ही बात की गई है। लेकिन अब चुनाव निराश करते हैं। एक वक्त था जब चुनाव को लेकर उत्साह रहता था। लगता था कि हमारा एक वोट सरकार को मजबूत करेगा। लेकिन अब जब देखते हैं कि महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे किसी भी विषय पर न पार्टी बात करना पसंद करती है और न ही उम्मीदवार। मतदाता भी इन विषयों को नजरंदाज कर धर्म, मंदिर, मूर्तियों के पीछे दीवाने हो रहे हैं। किसी पड़ोसी देश को निशाना बना कर ही यहां चुनाव हो जाते हैं। छोटे उद्योग लगातार बंद हो रहे हैं। काम-धंधों में मंदी है और यहां की जनता है कि किसी मंदिर के कॉरीडोर पर ही खुश है। केंद्र के खिलाफ सत्ता-विरोध कहीं दिखाई नहीं देता।

जयवीर सिंह | जोधपुर, राजस्थान

 

बस इश्तेहारों में

आउटलुक के 2 अक्टूबर के अंक, ‘सेमीफाइनल के सेनापति’ में मध्य प्रदेश पर लेख चौहान की चुनौती चौतरफा पढ़ी। इसे पढ़ कर बस यही लगा कि मध्य प्रदेश केवल इशतेहारों में चमक रहा है। शिवराज सिंह जी कभी ये नहीं बताते कि प्रदेश के दूर दराज के देहात की इतनी बुरी हालत अभी तक कैसे है। गांव और शहर में महिलाओं की शिक्षा की क्या स्थिति है? स्वास्थ्य की क्या स्थिति है? महिलाओं के खिलाफ अपराध की क्या स्थिति है? वह ये भी नहीं बताते कि जिस प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं उस प्रदेश में रेप के हर रोज ही मामले दर्ज हो रहे हैं। ये बातें वे जनता को नहीं बताएंगे। जनता के लिए यही मौका है, जब वे अपने लिए सही सरकार का चुनाव करे और सारे हिसाब-किताब बराबर कर ले।

डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

चुनावी शंखनाद

2 अक्टूबर के अंक में, ‘घोसी जनादेश के सियासी संकेत’ बहुत कुछ कहता है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव की बेला में यह नतीजे बताते हैं कि भाजपा का जादू धीमा पड़ रहा है। कांग्रेस को खुद समझ जाना चाहिए कि नए अध्यक्ष आने के बाद कितना सकारात्मक बदलाव हुआ है। इस जीत के पीछे के कारण खोजने जाएंगे, पार्टी आलाकमान को भी इस नई के पीछे सांगठनिक ऊर्जा और मजबूती ही महसूस होगी। घोसी उपचुनाव के नतीजे न केवल कांग्रेस में जान फूंकने का काम करेंगे बल्कि आगे के परिणाम को भी बहुत हद तक प्रभावित करेंगे। समाजवादी प्रत्याशी सुधाकर सिंह की भारी मतों से विजय सिर्फ उनकी जीत नहीं है, बल्कि यह भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ चुनावी शंखनाद है। यह यात्रा ऐसे ही चलती रहे, तो देश की राजनीति में भी बदलाव जल्द होगा।

प्रत्युष राय | आजमगढ़, उत्तर प्रदेश

 

मंथन करना होगा

समाजवादी प्रत्याशी ने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार को हरा कर नई इबारत लिख दी है। 2 अक्टूबर के अंक में, ‘घोसी जनादेश के सियासी संकेत’ बताते हैं कि मेहनत की जाए, तो नतीजे अपने पक्ष में करना जरा मुश्किल नहीं है। पूर्व मंत्री दारा सिंह चौहान तब हारे हैं, जब उनके प्रचार में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित तकरीबन पूरी यूपी कैबिनेट उतर गई थी। इतने नेता-मंत्रियों के मैदान में उतरने के बाद भी यदि भाजपा को शिकस्त मिली है, तो उन्हें इन नतीजों पर सोचना चाहिए। राजभर मतदाताओं को साधने के लिए ओमप्रकाश राजभर, निषादों के लिए संजय निषाद, भूमिहारों के लिए एके शर्मा, कुर्मियों के लिए स्वतंत्रदेव सिंह और आशीष पटेल, ब्राह्मणों के लिए ब्रजेश पाठक, मौर्य-कुशवाहा के लिए केशव प्रसाद मौर्य और पसमांदा के लिए दानिश अंसारी घोसी में प्रचार में उतरे और फिर भी नतीजा सिफर रहा। पार्टी को सोचना चाहिए कि क्या इनमें से एक भी नेता का जादू नहीं चला। क्या एक भी नेता की ऐसी पकड़ नहीं है कि वह मैदान में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर भीड़ को वोट में तब्दील कर सके। पार्टी इस पर मंथन करेगी, तो ही आगामी लोकसभा चुनाव में उसे ज्यादा से ज्यादा सीट की उम्मीद करनी चाहिए। वरना कांग्रेस ऐसे ही बढ़त लेती रहेगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 2024 का फिर सत्ता में लौटने का सपना टूट जाएगा।

अंजली कौशिक | बीकानेर, राजस्थान

 

पुरस्कृत पत्रः रेवड़ियों का मौसम

भारत में जो कभी नहीं हो पाता वो चुनाव के मौसम में हो जाता है। आउटलुक ने भी चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं। आउटलुक के 2 अक्टूबर के अंक में, ‘हारे तो बड़ी लड़ाई मुश्किल’ आगामी चुनाव के बारे में अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत करती है। अब कुछ ही दिनों में घोषणाओं की बारिश होगी और इसकी फुहार में मतदाता भीग कर खुद को कृतार्थ समझेंगे। मतदाताओं को लगने लगेगा कि अब बस उनकी दुनिया बदलने वाली है और वे घोषणावीर नेताओं को वोट से लाद देंगे। भारत में नेता यह भी कह सकते हैं कि अगली बार प्रज्ञान जैसे रोवर में उनके इलाके के लोगों को बैठा कर चांद की सैर कराई जाएगी। दिलचस्प है कि मतदाता ऐसी घोषणाओं पर भरोसा भी कर लेते हैं।

आशिमा शर्मा | पंचकूला, हरियाणा

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