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13 मई 2024 · MAY 13 , 2024

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

डबल इंजन की महत्ता

आउटलुक के 29 अप्रैल के अंक में आवरण कथा, ‘बहुमत छूने की बाजी’ पढ़ी। यह सवाल उठना स्वाभाविक है, जब भाजपा जीत को लेकर इतनी आश्वस्त है, तो फिर वह इतने गठबंधन क्यों कर रही है? क्यों वह दूसरी पार्टी के लोगों को थोक के भाव अपने यहां ला रही है? सहयोगियों के साथ सीटें साझा करना अलग बात है, लेकिन उनके लिए हर तरह की सुविधा मुहैया कराना अलग। लोकसभा चुनाव का दांव वाकई बड़ा होता है लेकिन इस बार चुनौतियां दूसरे तरह की है। कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव साथ हो रहे हैं और कुछ राज्यों के लोकसभा के तत्काल बाद होने हैं। ऐसे में मोदी कोई बाजी हारना नहीं चाहते, क्योंकि वे जानते हैं कि डबल इंजन सरकार की महत्ता क्या है। यह तो सभी जानते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच जुगलबंदी हो तो कई एजेंडे सुविधाजनक तरीके से हो जाते हैं। जाहिर सी बात है, इसके लिए मोदी को व्यापक बहुमत की आवश्यकता है। लेकिन चुनाव महज पार्टियों या उनके बड़े नेताओं की सोच से नहीं चलते।

शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

अंदरूनी कलह

29 अप्रैल के अंक में, ‘कांग्रेसियों के भरोसे भाजपा’, लेख से पता चलता है कि पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है। हरियाणा में 9 साल छह महीने का कार्यकाल पूरा करने वाली मनोहरलाल खट्टर की डबल इंजन सरकार के बाद भी वहां स्थिति ठीक नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के 400 पार लक्ष्य में हरियाणा की 10 सीटें अहम हैं। यह मोदी का भाग्य ही है कि कांग्रेस में भी बागी रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। अशोक तंवर का जाना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है। पार्टी को नवीन जिंदल को भी रोकने की कोशिश करनी चाहिए थी। पूर्व केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्रसिंह हुड्डा के बीच की लड़ाई जगजाहिर है। यह सब देख कर ही लग रहा है कि कांग्रेस जीतने के लिए कोई मेहनत नहीं कर रही है।

मीना धानिया | दिल्ली

संवैधानिक संस्थाओं पर नियंत्रण

29 अप्रैल के अंक में आलेख ‘लोकतंत्र का यह कैसा अखाड़ा’ पढ़ा। लोकसभा चुनाव 2024 भारतीय राजनीति में व्यक्ति केंद्रित राजनीति और लोकप्रियता के झूठे दावों तक सीमित है। यह लेख इसका सटीक चित्रण पेश करता है। इसके लिए आउटलुक की संपादकीय टीम तारीफ के काबिल है। जहां हर तरफ गोदी मीडिया सत्ता चालीसा पढ़ने में व्यस्त हैं, तब आउटलुक ने इस लेख को जगह दी। संवैधानिक संस्थाओं पर नियंत्रण कर, अपनी आवाज को  लोकप्रियता के चरम पर ले जाना सत्ता-लोलुपता को दिखाता है। 400 पार का नारा जीत के लिए नहीं बल्कि विपक्ष के खात्मे के साथ घमंड की स्थापना के लिए दिया जा रहा है। 1984 के चुनाव में भी 400 पार हुआ था मगर तब विपक्ष के खात्मे का दावा नहीं था। देखते हैं, निर्णायक की भूमिका में कौन होगा, मतदाता या सत्ता के चापलूस।

मनीष श्रीमाली | जोधपुर, राजस्थान

लड़ने से पहले हार

29 अप्रैल का अंक हर मायने में खास है। यह बहुत ही संतुलित अंक है, जिसमें हर पक्ष के बारे में बात की गई है। इसी अंक का लेख, ‘खोई जमीन पाने की लड़ाई’ बहुजन समाज पार्टी की स्थापना और उसके संघर्ष को बखूबी दिखाती है। उत्तर प्रदेश में पहली बार 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में सरकार बनाने से लेकर आज अस्तित्व के लिए जूझने तक पार्टी ने कई पड़ाव हासिल किए हैं। कांशीराम ने बहुत सोच समझ कर मायावती को राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया था। मायावती ने बहुत हद तक इस फैसले का मान भी रखा। लेकिन इस बात पर सभी एकमत होंगे कि मायवती ने समझदारी से अपना उत्तराधिकारी नहीं चुना। अपने भतीजे को पार्टी की कमान देना गलत है। इससे पार्टी बहुजन समाज पार्टी में वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा हुई। उस पर भी वे और उनका भतीजा पूरे दम के साथ पार्टी की साख बचाने में नहीं जुट रहे हैं। उन्हें देख कर लगता ही नहीं कि वे कभी गरीब, दलितों की जुझारू नेता रही हैं। पार्टी का लोकसभा जैसे महत्वपूर्ण चुनाव में इतना शांत रहना अखर रहा है।

सुलक्षणा टीएस | जमशेदपुर, झारखंड

कठिन लक्ष्य

29 अप्रैल के अंक में, ‘खोई जमीन पाने की लड़ाई’ अच्छा लेख है। बसपा सुप्रीमो मायावती का कहना है कि केंद्र में उनकी पार्टी की सरकार आती है, तो उनकी पार्टी दल-बदल कानून बनाएगी। लेकिन उनकी पार्टी जीतने के लिए केंद्र में सरकार बनाने के लिए आखिर कर क्या रही है। यह सच है कि पार्टियों में तोड़फोड़, विधायकों, सांसदों की खरीद-फरोख्त से लोकतंत्र को नुकसान पहुंचता है। पार्टी तोड़ने वालों में मुख्य रूप से भाजपा को जिम्मेदार ठहराते हुए मायावती का कहना है कि भाजपा पूंजीपतियों के लिए काम कर रही है। लेकिन जब वे सत्ता में थीं, तब उन्होंने किसके लिए काम किया, वे ये भी बताएं। बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती के हर कथन से सहमति है लेकिन आज के समय में दल-बदल कानून को बदलना या इसे बहुत सख्त बना देना किसी पार्टी के वश की बात नहीं है।

एमएम राजावत | शाजापुर, मध्य प्रदेश

नया रूप शानदार

आइपीएल का नया सीजन वाकई अदभुत है। 29 अप्रैल के अंक में, आइपीएल के नए संस्करण पर लेख अच्छा लगा। यह अपने सबसे बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है। महेंद्र सिंह धोनी, रोहित शर्मा, विराट कोहली के न होने पर भी नए चेहरों शुभमन गिल, ऋतुराज गायकवाड, पैट कमिंस ने रंग जमाया है। गौतम गंभीर की केकेआर में वापसी भी शानदार रही। आइपीएल के इस सत्रहवें संस्करण में जैसा नयापन दिखाई दे रहा है, उसने खेल के प्रति फिर रुचि जगा दी है। ऋषभ पंत की कप्तानी में दिल्ली कैपिटल्स में वापसी ने आइपीएल के इस सीजन को वाकई खास बना दिया।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

राजनीति का खेल

आउटलुक के 29 अप्रैल के अंक में ‘हिरासत में मौत’ लेख पढ़ कर लगा कि अपराध की दुनिया का अंत हमेशा बुरा ही होता है। जिन लोगों को लग रहा है कि मुख्तार से सहानुभूति है, उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि उसने अपराध की दुनिया से पैसा कमाया था, न कि समाजसेवा से। अपराध और राजनीति का मेल खतरनाक होता है। उसने इस मेल का भरपूर फायदा उठाया। राजनीतिक दलों ने अपने फायदे के लिए उसे आगे बढ़ाया और उसी की बदौलत वह पूर्वांचल में संगठित अपराध की बुनियाद मजबूत कर सका। एक सत्ता वह थी, जिसने उसे फलने-फूलने का मौका दिया, दूसरी सत्ता यह है जिसने उसके साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया है। अपराधी में भी धर्म और जाति देखने वालों को शर्म आनी चाहिए। कुछ लोगों का कहना है कि वह खास वर्ग से था इसलिए सरकार उसकी दुश्मन थी। ऐसा करने से पुलिस का मनोबल टूटता है और इसका नुकसान समाज को ही उठाना पड़ता है।

पूरण बघेल | भिलाई, छत्तीसगढ़

तकनीक का फायदा

15 अप्रैल के अंक में, आवरण कथा ‘लोकतंत्र पर फेक का साया’ में एआइ और डीपफेक के बढ़ते प्रचलन को बहुत सटीक तरीके से बताया गया है। भारत में चुनाव के माहौल का अंदाजा सोशल मीडिया पर छवि चमकाने और वोटर को मक्खन लगाने वाली प्रचार सामग्रियों से लग जाता है। लोगों को इमोशनली जोड़ने और तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना हो या तथ्य छुपाना हो, इन सब में अब उन्नत तकनीक का प्रयोग किया जाने लगा है। डीपफेक और एआइ ने चुनाव के पहले से ही तैयारी कर ली। एक सामान्य व्यक्ति असली और नकली फोटो वीडियो में अंतर नहीं कर पाता। चुनाव आयोग इस बार सोशल मीडिया पर फेक सामग्री के लिए विशेष गाइडलाइन के तहत जबरदस्त एक्शन में है। 

इंदु मणि | राजसमंद, राजस्थान

फिल्म माध्यम पर कब्जा

आउटलुक के 15 अप्रैल अंक में ‘विवादों का बॉक्स ऑफिस’ उम्दा और समीक्षात्मक लेख था। हाल के वर्षों में ऐसी फिल्मों का निर्माण (द कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरी, द वैक्सीन वार, आर्टिकल 370, बस्तर: द नक्सल स्टोरी, जेएनयू) ज्यादा होने लगा है। इनके साथ हिट या फ्लॉप से पहले ‘विवादास्पद’ शब्द जुड़ा हुआ है। अब ऐसा लगने लगा है कि फिल्मों का निर्माण आम दर्शकों के लिए न होकर सरकार को यह देखने के लिए किया जा रहा है कि हम आपके पक्ष में हैं। कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो ऐसी विवादित फिल्मों को आम दर्शकों ने भी नकार दिया है क्योंकि फिल्में सामाजिक संदेश, मनोरंजन के लिए होना चाहिए न कि राजनीतिक फायदे या सौदेबाजी के लिए।

संजय कराड़े | पुणे, महाराष्ट्र

 

पुरस्कृत पत्र: येन-केन प्रकारेण

29 अप्रैल के अंक में, ‘बहुमत छूने की बाजी’ उम्दा है। भारत के चुनाव पर हमेशा से ही पूरे विश्व की नजर रहती है। पिछले दो कार्यकाल से तो भारत के चुनाव में सभी की रुचि बढ़ी ही है। विपक्ष वापसी के लिए और सत्तारूढ़ दल तीसरी बार रेकॉर्ड के लिए लड़ रहा है। इस बीच मतदाता कहां है, किसी को कोई खबर नहीं है। इस पर कोई बात भी नहीं करना चाहता। सत्तारूढ़ दल का पूरा ध्यान दूसरी पार्टी के लोगों को अपने यहां लाने पर है। चुनाव जीतने के लिए हर तरह के तरीके अपनाए जा रहे हैं। चुनाव के मौके की बयानबाजी अब बस मनोरंजन करती है। जीत के लिए अपनाए जा रहे हर हथकंडे के बीच कैसे मानें कि ये चुनाव वाकई लोकतंत्र के लिए ‘लोकतांत्रिक’ तरीके से हो रहे हैं।

सत्य सुरेंद्र वर्मा|बांदा, उत्तर प्रदेश

 

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