Advertisement
27 मई 2024 · MAY 27 , 2024

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

हर जगह फासला

आउटलुक हिंदी के 13 मई के अंक में, ‘चुनावी फासले’ रिपोर्ट उम्दा है। यह रिपोर्ट पुष्टि करती है कि ‘अबकी बार चार सौ पार’ अति आत्मविश्वास पर आधारित है और इसका कोई ठोस आधार नहीं है। भाजपा समझ रही है कि यह चुनाव एकदम आसान है। लेकिन उन्हें वस्तुस्थिति का अंदाजा नहीं है। मोदी और अमित शाह भी जानते हैं कि उनके लिए तीसरा कार्यकाल लाना इतना आसान नहीं है। लेकिन दोनों मीडिया के माध्यम से यह भ्रम पैदा कर रहे हैं। यही कारण है कि उन्होंने योजना बनाकर पहले ही अपनी तैयारी शुरू कर दी है। इसके लिए उन्होंने क्षेत्रीय दलों के साथ गलबहियां भी शुरू कर दी हैं। उत्तर भारत में भी उन्होंने चुनावी रणनीति बदली है। अब यह कितना काम आएगी यह तो वक्त ही बताएगा। उन्हें अपने पारंपरिक वोट बैंक को साधे रखने की आवश्यकता है। लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं है।

शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

बेमानी उम्मीद

13 मई के अंक में आवरण कथा, ‘चुनावी फासले’ इस बार के चुनावी परिदृश्य का सटीक विश्लेषण करता है। मोदी इस बार अपने कार्यकर्ताओं, मतदाताओं में उत्साह को बहुत भर रहे हैं लेकिन लगता नहीं कि नतीजे उनकी उम्मीद के मुताबिक आएंगे। उनका लक्ष्य 400 पार है, लेकिन ये 400 की संख्या आएगी कहां से इस बारे में उन्हें कुछ पता नहीं है। लग गया तो तीर वरना तुक्का तो है ही। मोदी इसी तर्ज पर चल रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मोदी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की पहचान बनाई है। लेकिन मुद्दा यह है कि क्या सिर्फ अंतरराष्ट्रीय पहचान से भारत के लोगों का पेट भर जाएगा। एक राष्ट्राध्यक्ष के नाते उन्हें पहले भारत में रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। इस बार उन्होंने दक्षिण में भी दांव खेला है। लेकिन वहां की छोटी पार्टियों से गठबंधन कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। दक्षिण की राजनीति में पैठ बनाना उनके लिए इतना आसान भी नहीं होगा।

कनिका राजपूत | चारखेड़ा, मध्य प्रदेश

बिन प्रचार सब सून

चुनाव और विज्ञापन का चोली दामन का साथ है। आउटलुक के नए अंक में ‘राजनीतिक विज्ञापनों का अर्थशास्त्र’ (13 मई) इस विषय पर गहराई से पड़ताल करता है। देश में सबसे बड़ा राजनीतिक त्योहार लोकसभा चुनाव जारी है। इन चुनावों में बड़े पैमाने पर विज्ञापनों की भूमिका स्पष्ट दिखाई दे रही है। सभी राजनीतिक दल चाहे वह राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय, विज्ञापन के माध्यम से खुद को दूसरी पार्टियों से अलग दिखाने की कोशिश में लगे हुए हैं। ऐसे विज्ञापन बनाए जा रहे हैं, जिससे आम जनता का असली मुद्दों से ध्यान भटकाया जा सके। पार्टी अपने वादों और उद्देश्यों को बताने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर रही हैं। चुनाव में लगने वाला भारी धनबल में यह भी एक कारण है। पार्टियों का बड़ा हिस्सा विज्ञापन पर खर्च होता है। चुनावी मौसम में विज्ञापन के विभिन्न तरीके बदल गए हैं। बैनर-पोस्टर के दिन अब लद गए हैं। अब सारा दारोमदार डिजिटल प्रचार पर है। अखबार, टीवी, सोशल मीडिया इन प्रचार सामग्रियों से भरे पड़े हैं। 2019 के लोकसभा के चुनाव के तुलना में 2024 के लोकसभा के चुनाव में विज्ञापन की भूमिका बढ़ गई है। एक तरह से आजकल विज्ञापन ही आम राजनीतिक दलों की आवाज बनी हुई है और इस आवाज के माध्यम से हर राजनीतिक दल आम जनता तक पहुंचना चाहती है।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

नाम के नेता

13 मई के अंक में, ‘बेदम स्टारडम’ पढ़ कर हंसी ही आ गई। आउटलुक की नजर हर जगह पहुंचती है। अब तक इस बात पर किसी का ध्यान नहीं गया कि फिल्मी सितारे संसद में कितने कमजोर होते हैं। पर्दे पर सब कुछ तय होता है। संवाद कोई और लिखता है, निर्देशन कोई और करता है उसके बाद भी संपादन होता है, तब इनकी फिल्म दर्शकों के सामने आती है। लेकिन चुनाव के बाद जब वास्तविक रूप में इन्हें बोलने का मौका मिलता है, तो ये लोग डर जाते हैं। इन्हें गांव या कस्बों में वोट ही इसलिए मिल जाता है, कि जनता समझती है ये लोग जैसे परदे पर होते हैं, वैसे ही असल में भी होंगे। फिर उसी भोली-भाली जनता से किए वादे पूरा करने या उनकी आवाज संसद में उठाने की बारी आती हैं, तो ये लोग फ्लॉप हो जाते हैं। सनी देओल तो आज तक अपनी संसदीय क्षेत्र में गए ही नहीं। इससे बड़ा दुर्भाग्य किसी मतदाता के लिए क्या होगा। इनको तो यह भी नहीं पता होगा कि इनके क्षेत्र में अस्पताल है या नहीं, स्कूलों की क्या हालत है, स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता का क्या हाल है। पर दिक्कत तो यह भी है कि जनता इनसे हिसाब नहीं मांगती। अब मतदाता को ग्लैमर को नहीं बल्कि सही व्यक्ति को चुनना चाहिए।

हर्षद मेहता | अहमदाबाद, गुजरात

जित देखो, तित दर्शन

आउटलुक के 13 मई के अंक पर आवरण चित्र पर दृष्टि अटक गई। मोदी जी की फोटो देख कर यही लगा कि प्रचार में उनसे आगे अभी कोई नहीं है। वे प्रचार की जीती जागती मिसाल हैं। ‘मन की बात’ को उन्होंने इतनी तवज्जो दी कि आज उनका नाम हर बच्चे की जुबान पर है। भले ही मोदी ने दस साल में किसी मीडिया को कोई इंटरव्यू न दिया हो पर उनका नाम सभी की जबान पर रहता है। हर जगह वे अपना फोटो छपवाते हैं। करोना काल में बड़े-बड़े बैनर हों या मुफ्त अनाज का झोला ऐसी कौन सी जगह है, जहां उनका फोटो नहीं है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को भी इतना प्रचार नहीं मिला।

बद्री प्रसाद वर्मा | गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

चौंकाने वाले परिणाम

आउटलुक के 29 अप्रैल के अंक में ‘लड़ाई कांटे की’ पढ़ा। वैसे तो राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस दो दलों का वर्चस्व रहा है मगर इस चुनाव में वामपंथी दल माकपा, क्षेत्रीय दल रालोसपा और दक्षिण राजस्थान के आदिवासी अंचल में नवगठित भारतीय आदिवासी पार्टी भी कड़ी टक्कर में है। इंडिया गठबंधन से राजस्थान के दूसरे दल एकजुट हुए हैं इससे रोचक परिणाम सामने आएंगे। विशेष रूप से सीमांत बाड़मेर जैसलमेर सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में ताल ठोक रहे रविन्द्र सिंह भाटी ने भी राजस्थान की राजनीति में गर्माहट बढ़ा दी है, अब राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों का परीणाम काफी चौंकाने वाला होगा।

अशोक चौधरी | जोधपुर, राजस्थान

बारी का इंतजार

29 अप्रैल के अंक में बसपा के बारे में ‘खोई जमीन पाने की लड़ाई’ लेख पढ़ा। लेख पढ़ कर यही समझ आया कि मायावती अपनी बारी का इंतजार कर रही हैं। बसपा सुप्रीमो ने कहा है कि यदि केंद्र में उनकी पार्टी की सरकार बन जाती है तो वे दल-बदल कानून को और भी सख्त बनाएंगी। यानी किसी भी पार्टी के  विधायकों एवं सांसदों को तोड़ने वालों को उचित सबक सिखाया जाएगा। मायावती का कहना है कि हर बार उनकी पार्टी के विधायकों एवं सांसदों को तोड़ लिया जाता है, अतः इस तोड़फोड़ की राजनीति के कारण देश का लोकतंत्र कमजोर होता जा रहा है। बड़ी पार्टियां छोटी पार्टियों के नेताओं, विधायकों, सांसदों को खरीद कर मनमानी करती हैं। वे सत्ता में आईं, तो बड़ी पार्टियों की ये तोड़फोड़ और मनमानी के लिए कानून बनाएंगी। ये सभी बातें सुनने में काफी अच्छी लगती हैं लेकिन इसे करना इतना आसान भी नहीं होगा। मायावती मुख्य रूप से इसके लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराती हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या वे सत्ता में आएंगी, तो अपनी सरकार बचाने के लिए ऐसा नहीं करेंगी। या फिर क्या कोई और पार्टी यह गारंटी ले सकती है कि वह सत्ता में रहते हुए विधायक-सांसद नहीं खरीदेगी। दरअसल कोई पार्टी दलितों-गरीबों के उत्थान के लिए काम नहीं कर रही है। सभी को सत्ता चाहिए और इस सत्ता के लिए उन्हें जो भी करना पड़ेगा वे लोग करेंगे। भाजपा पर अकेले दोष मढ़ देने से इसका समाधान नहीं होगा। हम बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती के सभी विचारों से सहमत हैं। लेकिन उन्हें बताना होगा कि दल-बदल कानून की उनकी अवधारणा क्या है और इसे सख्त बनाने के लिए वे क्या कदम उठाएंगी। सिर्फ हवा में बात कह देने से तो कोई फायदा नहीं है। कानून को सख्त बनाने के लिए उन्हें लंबी कवायद करनी पड़ेगी।

एमएम राजावत | शाजापुर, मध्य प्रदेश

बाहुबलियों का खात्मा

आउटलुक के 29 अप्रैल अंक में ‘हिरासत में मौत’ पढ़ा। पूर्वांचल की राजनीति में मुख्तार अंसारी का क्या कद था यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। यह विडंबना ही है कि नेताओं की वजह से ही ऐसे गैंगस्टर आगे बढ़ते हैं और फिर खुद एक दिन सियासत का हिस्सा हो जाते हैं। ऐसे गैंगस्टरों की मौत पर सवाल होने ही नहीं चाहिए। दरअसल भारतीय समाज के कुछ लोग ऐसे लोगों को रॉबिनहुड की छवि के साथ पेश करता है और फिर इन्हीं के जुल्म से तंग आकर राहत मांगता है। 

सुनिधि राणे | कोल्हापुर, महाराष्ट्र

पुरस्कृत पत्रः अलग राजनीति

सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है कि उत्तर कहां है। आउटलुक की 13 मई की आवरण कथा उत्तर और दक्षिण की खाई को बहुत अच्छे से समझाती है। दक्षिण की राजनीति के आगे उत्तर की कोई बिसात नहीं है। वहां क्षेत्रिय पार्टियों का जो दबदबा है, उसकी कल्पना यहां की पार्टियां कर भी नहीं सकती हैं। वहां जितना व्यक्तिवाद है, उसका पासंग भी उत्तर में नहीं है। वहां नेता हो या अभिनेता ईश्वर से कम उनका स्थान नहीं है। कई बार तो उनके आगे स्थानीय मुद्दे तक फीके पड़ जाते हैं। अगर सत्तारूढ़ पार्टी को लगता है कि वह दक्षिण का किला भेद पाएगी, तो वे लोग मुगालते में हैं। कुछ क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए, उत्तर भारत चुनाव में उदासीन ही रहता है। जबकि दक्षिण इसके उलट है।

संतोष कुमार|पटना, बिहार

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement