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10 जून 2024 · JUN 10 , 2024

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

वजूद पर संकट

27 मई की आवरण कथा, ‘करो या मरो के मैदान’ क्षेत्रीय पार्टियों और उनका नेतृत्व कर रहे नेताओं पर सटीक ढंग से बात करती है। वाकई क्षेत्रिय पार्टियों के प्रमुखों के सामने दोहरा संकट है। उन्हें न सिर्फ लोकसभा चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी को चुनौती देनी है, बल्कि अगले एक-दो वर्षों में विधानसभा चुनावों में भी उससे लोहा भी लेना है। यह वाकई कड़ी चुनौती है। महाराष्ट्र में तो इसी साल आखिर में, बिहार में अगले साल और उत्तर प्रदेश तथा बंगाल में उसके बाद के साल में राज्य में चुनाव तय हैं। अगर ये लोग इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए, तो इनके वजूद पर संकट छा जाएगा। एनडीए लगातार बढ़त बनाए हुए हैं। अगर इस बार मोदी लहर नहीं है, तो नाराजगी भी ऐसा नहीं है कि चिंता करनी पड़े। महाराष्ट्र में शिवसेना और रांकपा में टूट, उत्तर प्रदेश में अखिलेश की बेरुखी और मायावती का सक्रिय न होना एनडीए के पक्ष में है। अगर क्षेत्रीय दलों को सियासी वजूद कायम रखना है, तो उन्हें मेहनत करना होगी।

संदेश उपाध्याय | मेरठ, उत्तर प्रदेश

एक ही को दोष क्यों

आउटलुक की 27 मई की आवरण कथा, ‘करो या मरो के मैदान’ के मैदान में एक लाइन अखर गई। लेख में है कि, ‘‘भाजपा अपने राजनैतिक दबदबे के लिए इन क्षेत्रीय दलों को खत्म करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद हर चाल चलती रही है। किसी को केंद्रीय एजेंसियों का भय दिखाकर तो किसी के पाले में तोड़फोड़ करा कर।’’ अब ये बताइए कि सियासत में ऐसी कौन सी पार्टी है, जो बिना तोड़फोड़ कर ईमानदारी से चलती है। कहते ही हैं कि प्रेम और जंग में सब जायज है। सियासत भी एक तरह की जंग ही है। क्या विपक्षी नेता अपनी सांसदी बचाने के लिए जोड़-तोड़ नहीं करते? क्या बिक जाने वाले विधायक या सांसद हमेशा अपने लिए नहीं सोचते? तब ऐसे में सिर्फ भाजपा पर आरोप लगाना ठीक नहीं है।

शिव दुबे | रायपुर, छत्तीसगढ़

दावे ही दावे

आउटलुक की 27 मई की आवरण कथा, ‘बड़े मोर्चा पर घमासान’ उम्दा लगी। दरअसल विपक्ष के नेताओं के दावों में आत्मविश्वास कम, जोश ज्यादा है। लेकिन चुनाव सिर्फ जोश और जनता को बरगलाने से नहीं जीते जाते। विपक्षी दल के नेता अपनी सभाओं में इस बात पर शोर मचा रहे हैं कि इस बार मोदी हार जाएंगे। यह बात वे इतने आत्मविश्वास से बोलते हैं कि कभी कभी लगता है इन दावों में कुछ तो दम होगा। लेकिन अगर पांच साल पहले किए गए दोनों तरफ के दावों की तुलना करें, तो समझ में आ जाएगा कि विपक्षी नेताओं के जीत के दावे कैसे हैं। मोदी हर दिन विपक्षी दलों को मुश्किल में डालने वाला नया तरीका या नया मुद्दा ढूंढ़ लाते हैं।

शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

नया कश्मीर

‘चुनावी जंग गजब रंग’ (27 मई) कश्मीर के हालात बताती है। कश्मीर में हो रहा बदलाव, चुनाव से बड़ा है। कितने साल बीत गए, जब कश्मीरी लोग खुली हवा में सांस नहीं ले पाते थे। अब कम से कम इतना तो हुआ है कि वहां लोग बाहर निकल रहे हैं, फिल्म देख रहे हैं। बच्चे खेल रहे हैं, स्कूल जा पा रहे हैं। रही बात विधानसभा चुनाव कराने की तो यह भी हो ही जाएगा एक दिन। मतदान की तारीख बढ़ने पर शक तो होता है, मगर विपक्षी नेताओं को जुझारूपन दिखाना चाहिए। कश्मीर नया बन रहा है और इस पर किसी तरह का शक नहीं किया जाना चाहिए।

चारू मंडल | भुवनेश्वर, ओडिशा

कड़ा मुकाबला

13 मई के अंक में, ‘वजूद बचाने की जंग’ बढ़िया लेख है। तेलंगाना की अपनी अलग चुनौतियां हैं। आंध्र प्रदेश दो हिस्सों में बंटकर तेलंगाना बना। तब से यहां की राजनीति में अलग रंग रहा है।  मौजूदा लोकसभा चुनाव में क्या होगा, यह देखने वाली बात होगी। यह चुनाव राज्य के लिए कड़ा मुकाबला होगा। भारतीय जनता पार्टी का एनडीए और कांग्रेस का इंडिया गठबंधन आने वाले समय में लोकसभा चुनाव में क्या गुल खिला पाएगा, यह समय ही बताएगा।

मीना धानिया | दिल्ली

परवाह किसे है

शिमला में कटते देवदारों पर आउटलुक ने संज्ञान लिया यह बहुत अच्छी बात है। नए अंक में (27 मई, उखड़ते देवदार उजड़ती शिमला) देवदार के नष्ट होने पर शिमला के वजूद पर संकट गहराने को लेकर अच्छा लिखा गया है। लेख से ही पता चला कि शिमला में देवदार के पेड़ों का इतिहास बहुत पुराना है। यह समझ से परे है कि मैदान के शहरों को छोड़ कर शिमला को स्मार्ट सिटी बनाने का क्या तुक है। हां इतना जरूर किया जा सकता है कि नए बन रहे भवनों को सुव्यवस्थित तरीके से बनाने की प्रकिया की जाए। अनावश्यक निर्माण न किया जाए। हाल ही में शिमला ने बड़ी तबाही देखी है। क्या इसके बाद भी प्रशासन सो रहा है। सीमेंट और स्टील यहां की सेहत बिगाड़ देगा। फ्लाइवे, लकड़ी की रेलिंग को नक्काशीदार स्टील से बदला जाना, नए फुटब्रिज और सीमेंट के पैदल रास्ते बनाना शिमला को विनाश की ओर धकेलना है। इन सब के लिए हरे-भरे देवदारों को काटने को अपराध की श्रेणी में डालना चाहिए।

रवीन्द्र नेगी | भिलाई, छत्तीसगढ़

एकतरफा नजरिया

आउटलुक के नए अंक (27 मई, बनारस में विरोधाभासी रंग) में बनारस पर लेख एकतरफा लगा। काशी कॉरीडोर बनने से कितने लोगों को रोजगार मिला इसका भी कोई आंकड़ा होता, तब तो समझ आता कि वहां विकास होने से फायदा ज्यादा हुआ या नुकसान। वहां पर्यटन बढ़ा है। पर्यटकों के आने से आमदनी का जरिया बढ़ता है। ऐसा नहीं है कि कॉरीडोर बनने से सिर्फ नुकसान ही हुआ है। पुराने शहर का स्वरूप बदलना है, तो थोड़ा बदलाव करना ही होगा।

शांति स्वरूप त्रिपाठी | वाराणासी, उत्तर प्रदेश

जमीन-आसमान का फर्क

13 मई के अंक में, ‘सिनेमा से बनती-बिगड़ती सियासत’ ने उत्तर और दक्षिण की सिनेमा के जरिये राजनीति पर अच्छी रिपोर्ट पेश की। दक्षिण में फिल्मी स्टारों का जैसा जलवा है, उसके बारे में उत्तर के लोग सोच भी नहीं सकते हैं। वहां फिल्मी सितारे राजनीति की दिशा बदल देते हैं। उनकी निभाई भूमिकाएं, वोट में बदल जाती हैं। उत्तर भारत का कोई भी अभिनेता, एनटी रामा राव, जयललिता की तरह राजनीति में सफल होने का ख्वाब भी नहीं देख सकता है। हमारे यहां भी सितारे चुनाव लड़ते हैं। लेकिन पार्टी इन्हें सिर्फ वोट की खातिर टिकट देती है। जीतने के बाद भी ये लोग नेता के बजाय अभिनेता बने रहना ही पसंद करते हैं। 

साधना चावला | दिल्ली

उम्दा समीक्षा

13 मई के अंक में छपी पुस्तक समीक्षा, ‘आजादी पर पहरा’ बहुत अच्छी लगी। इस बहाने, ‘फ्रीडम्स मिड नाइट’ किताब के बारे में पता चला। समीक्षा में सही लिखा है कि ‘‘आज  तंत्र हावी है; गण  बैचेन  ही नहीं बेअसर है।’’ प्रांतीय राजनीति का प्रभाव दर्शाता अरविन्द मोहन का लेख पठनीय है। उनके अनुसार क्षेत्रीय दल बिना राम, राष्ट्रवाद पर केन्द्रित कदमों से  ही अपना वजूद बनाए हुए हैं।

गोविंद सिंह गहलोत | जयपुर

जनता उनके साथ

आउटलुक के 29 अप्रैल अंक में, संपादकीय ‘जनता किस करवट’ चुनाव के पूरे परिदृश्य को अच्छे से समझाता है। भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी का फिलहाल तो कोई तोड़ नहीं है। उनके आगे कोई नहीं है। उन्होंने अपनी छवि प्रखर राष्ट्रवादी नेता के रूप में स्थापित कर ली है। इस छवि को तोड़ना या इससे आगे जाने पर ही कोई खुद को स्थापित कर पाएगा। लेकिन बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि वे राष्ट्रवादी हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि वे इस बात को छुपाते भी नहीं हैं। उन्होंने खुद को काम कर के भी स्थापित किया है। उन्हें लोगों का साथ मिला हुआ है और इसकी वजह से ही वे देश का नेतृत्व इतने कुशल ढंग से कर पा रहे हैं।  उन्होंने राष्ट्र को सशक्त करने के प्रयास किए हैं। विदेश नीति पर भी उन्होंने बहुत काम किया है। स्वतंत्र भारत की प्रमुख समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, जनसंख्या विस्फोट, सांप्रदायिकता और आतंकवाद रहे हैं। भारत के अब तक के किस नेतृत्व ने इन समस्याओं के मूल में जाने का प्रयास किया था? पाकिस्तान देश के भीतर आतंकी हमले करता रहा, लेकिन हमनें रामधुन बजाने के सिवा क्या किया? आज हमने अनुच्छेद 370 समाप्त कर आतंकवाद का दरवाजा बंद कर दिया है। तीन तलाक कानून समाप्त कर, समान नागरिक संहिता की दस्तक दे दी है। विदेश नीति सशक्त हुई है। देश में अभी विपक्ष में ऐसा कोई नेता नहीं है, जो उनके सामने खड़ा हो सके।

अरविन्द पुरोहित | रतलाम, मध्य प्रदेश

पुरस्कृत पत्र: सिर्फ कयास

कम से कम भारत में तो आम चुनाव बस दावों और कयास का खेल होता है। इस बार की आवरण कथा, (27 मई, ‘करो या मरो के मैदान’) बहुत सी संभावनाओं पर बात करती है। दरअसल आम चुनाव में एक दिन पहले तक तय नहीं होता कि मतदाता कल सुबह किस पार्टी के चिन्ह वाला बटन दबा देगा। चुनाव कोई सा भी हो, कोई भी अपना वोट बेकार करना नहीं चाहता। लोग चाहते हैं कि वे जीतने वाले को ही वोट करे। ऐसे में वह जिसके पक्ष में संभावनाएं देखता है, उसी पार्टी का बटन दबा देता है। कट्टर वोट देने वालों की संख्या अब दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। जरा-जरा से निजी हित पर जनता अपनी प्रतिबद्धता से हट जाती है। यही कारण है कि परिणाम चौंकाने वाले आते हैं।

श्रीधर पुराणिक|पुणे, महाराष्ट्र

भूल सुधार

27 मई 2024 के अंक में पेज 24 पर राष्ट्रधर्म पत्रिका के 'संपादक' की जगह 'निदेशक मंडल का सदस्य' होना चाहिए। फिर, 'पूर्वांचल का प्रचार प्रमुख' की जगह 'अपने एक करीबी पत्रकार को पूर्वांचल में विद्या-भारती का प्रचार प्रमुख बनवा दिया था' होना चाहिए।  इस चूक के लिए खेद है।

संपादक

 

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