राहत भरा बदलाव
नई सदी के 25 बरस बीत गए। इन 25 बरसों का तकनीकी बदलाव का लेखा-जोखा आपने शानदार तरीके से दिया। 20 जनवरी की आवरण कथा, ‘सुविधा पचीसी’ अपने वक्त के महत्वपूर्ण बदलाव को सटीक ढंग से रेखांकित करती है। कई बदलाव रहे, जिन्होंने हमारी जिंदगी में सार्थक बदलाव किए। इसमें ऑनलाइन फूड डिलिवरी को शामिल करना वाकई बदलाव पर बारीक नजर रखने का सबूत है। मेरा निजी तौर पर मानना है कि ऑनलाइन फूड डिलिवरी कामकाजी महिलाओं के लिए वरदान है। पहले महिला कितनी भी थकी हुई हो, घर आकर उसे रसोई में लगना ही पड़ता था। लेकिन अब कम से कम यह सुविधा तो है, किसी आपात स्थिति में न भूखे रहना पड़ेगा, न थकान के बावजूद किचन में जाना पड़ेगा। बाहर रहने वाले बच्चों को भी अब इसके कारण खाने के कई विकल्प मिल गए हैं। किसी भी अच्छे रेस्तरां से खाना आपके घर आ जाता है। वहां तक जाने और भीड़ में अपनी बारी आने का इंतजार करने का वक्त बचता है। मोबाइल एप्प के बाद खानपान की संस्कृति वाकई एक झटके में बदल गई। यह सोचने में ही कितना अच्छा लगता है कि अब घर बैठे खाने का ऑर्डर दिया जा सकता है। अचानक मेहमान आने पर आसानी से खाना मंगवाया जा सकता है। इससे महिलाओं को भी भले ही कम लेकिन राहत तो मिली है।
मंगला पांडे | बाराबंकी, उत्तर प्रदेश
बदल गया इंसान
20 जनवरी की आवरण कथा, ‘सुविधा पचीसी’ पढ़ कर एक ही वाक्य दिमाग में आया, कितना बदल गया इंसान। वाकई इन बदलावों ने इंसानी फितरत ही बदल दी। घर बैठे खाना मंगवा लो, घर बैठे तमाम तरह के बिल भर दो। एक क्लिक पर दुनिया टिकी हुई है। उत्तर प्रदेश का आदमी कश्मीर में, पूर्वोत्तर का व्यक्ति दक्षिण में बैठ कर एक क्लिक पर पैसे का लेन-देन कर सकता है। 25 बरस में हमारी जिंदगी ने क्या रफ्तार पकड़ी है, यह इस लेख को पढ़ कर समझ आता है। रोजमर्रा के कई काम जो पहले कठिनाई से भरे थे, वो इतने आसान हो गए हैं कि विश्वास नहीं होता। 2016 में लॉन्च हुआ यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआइ) ने भारतीय खुदरा अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे बढ़ाया। लेकिन इसका एक बड़ा नुकसान यह है कि इससे लोगों में खर्च करने की आदत ज्यादा हो गई। लोग बिना सोचे-समझे खर्च करने लगे। डिजिटल क्रांति ने कई लोगों के घर का बजट बिगाड़ कर रख दिया है। स्कैन करो और भुगतान करो के दौर में मध्य वर्ग पर आर्थिक बोझ बढ़ा है।
कीरत रघुवंशी | गंजबासौदा, मध्य प्रदेश
उजाले की खोज
20 दिसंबर के अंक में, ‘पहली चौथाई के अंधेरे’ जैसे भारत के पूरे इतिहास और वर्तमान की झलक दिखा देता है। भारतीय संस्कृति, भारतीय राजनीति, भारतीय समाज इन सब पर बड़ी-बड़ी बातें तो होती हैं लेकिन दरअसल बदलाव, वैमनस्य, कीचड़ होती राजनीति पर इतने सटीक ढंग से कोई बात नहीं होती। अब राजनीति हिंदुत्व पर आकर टिक गई है। हिंदुत्व का एक घेरा है और सभी को अनिवार्य रूप से इस घेरे में रहना है। जो इस घेरे में बाहर है, वह देशद्रोही है। दरअसल यह लेख बिना किसी एजेंडे या आतंकित करने वाली बौद्धिक भाषा से परे सच्चे ढंग से देश के बदलाव पर बात करता है। इस देश का दुर्भाग्य ही रहा कि यहां देश के जन्म के साथ ही धर्म की बात हुई। नागरिक यहां हमेशा दोयम दर्जे का रहा। कांग्रेस अपने हिंदू मंतव्य को कभी स्पष्ट ही नहीं कर पाई और भारतीय जनता पार्टी ने उसे खाने-पीने और ओढ़ने-बिछाने लगी। अगर कांग्रेस शुरू से ही हिंदू मंतव्य को सिर्फ धर्म न मानकर लोगों की भावना मानती, तो आज देश के हालात इतने खराब न होते। कांग्रेस को सत्ता चलाना भी आता था और संतुलन साधना भी। लेकिन इस पार्टी की चूक ने हमें अब धर्म के अंधे कुएं में धकेल दिया है। राजनीति को धर्म से दूर करने का पार्टी को तो नुकसान हुआ ही देश भी इस यातना को भोग रहा है।
एस.एन.काव | ऊधमपुर, जम्मू
बदला सब कुछ
20 दिसंबर के अंक में, ‘पहली चौथाई के अंधेरे’ बदलाव के कई पहलुओं से अवगत कराती है। दरअसल भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से ही राजनीति में बदलाव शुरू हुआ है। ‘‘भाजपा ने अपने मातृ संगठन आरएसएस के एजेंडे पर चलते हुए धर्म को राजनीति का खूंटा बना लिया’’ यह कहना इसलिए भी पूरी तरह सही नहीं है क्योंकि एक बड़ा वर्ग ऐसे ही बदलाव की बाट जोह रहा था। आरएसएस ने ही इन सभी को संगठित किया यह नहीं कहा जा सकता। क्योंकि आरएसएस का ही यदि यह एजेंडा होता, तो वह कब का ऐसा कर चुका होता। लेकिन भारत में धर्म के नाम पर लंबे समय से चले आ रहे उपेक्षा को नरेंद्र मोदी नाम के शख्स ने एक दिशा दे दी। कई लोगों का कहना है कि भाजपा आरएसएस के नेटवर्क से जीतती है। यह नेटवर्क तो पहले भी था। लेकिन लोगों के अंदर यह भरोसा नहीं था कि वे भाजपा को वोट देते। मोदी ने राम के नाम पर लोगों की भावनाएं जगा दीं। बार-बार केदारनाथ जाकर दिखाया कि भारत इन्हीं देवताओं की भूमि है। राम, शिव, हनुमान से हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से जुड़ा रहता है। पहले इस बात पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था लेकिन राजनीति को इन्हीं के नाम पर अब इतना आक्रामक बना दिया गया है कि निकट भविष्य में किसी पार्टी के लिए कोई गुंजाइश नजर नहीं आती है। लेख में यह बिलकुल सही लिखा गया है कि कांग्रेस के पास इसकी कोई काट नहीं है। वामपंथी अपने ही विचारों में मगन रहे। उन्हें अंदाजा भी नहीं हुआ कि कब कारवां लुट गया। अगर वे ही लोग समय पर चेत जाते, तो राजनीति आज अलग ढंग की होती।
शांता रमेश पाटील | नागपुर, महाराष्ट्र
तानाबाना नष्ट हो रहा
20 जनवरी की आवरण कथा, ‘पहली चौथाई के अंधेरे’ पढ़ कर पूरे देश की विश्वसनीयता पर शंका होती है। अगर सब राजनीति है, तो हमारे जैसी आम जनता कहां जाएगी। कोई अपनी मातृ संस्था की विचारधारा चला रहा है, किसी को अपने वोट बैंक की चिंता है। कोई संस्कृति के नाम पर ही पूरा खेल खेल रहा है। धर्म को मानवतावाद के बजाय लोगों को बांटने के काम में लाया जा रहा है। एकल पर जोर के बारे में कभी इतनी गंभीरता से नहीं सोचा था। लेकिन इस लेख ने नए सिरे से सोचने पर मजबूर किया। विविधता और बहुलता की हम बात जरूर करते हैं लेकिन जब यह लेख पढ़ा तो लगा कि यह दोनों बातें तो हैं ही नहीं। वाकई जो है, वह एक आदमी के हाथ ही पूरे राष्ट्र की चाभी का मामला है। सिर्फ पढ़ने या भाषणों में ही गंगा-जमुनी तहजीब दिखाई पड़ रही है वरना तो देश का सारा तानाबाना ही नष्ट हो चला है। संघ के विद्वानों की सोची-समझी साजिश इस देश के सांस्कृतिक नैरेटिव को बदले दे रहा है। जो संस्कृति सामाजिक ताने-बाने को सदियों से बचाए हुए थी वह खतरे में पड़ गई है। यह चिंताजनक है।
कमलकांत द्विवेदी | संभल, उत्तर प्रदेश
किसानों को उचित दाम मिले
20 जनवरी के अंक में ‘एमएसपी के लिए मौत से जंग’ पढ़ा। देश के अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन वितरण दर्शाता है कि देश की बड़ी आबादी भर पेट भोजन खरीदने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में एमएसपी को कानूनी रूप देने से खाद्य पदार्थ महंगे हो सकते हैं जिससे गरीब आदमी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। शायद इस वजह से भी सरकार एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की मांग मानने से कतरा रही है। किन्तु किसानों को भी उनकी उपज का वाजिब दाम मिलना चाहिए। इन हालात में आधुनिकीकरण से खेती की लागत घटा कर उत्पादन बढ़ाया जाए। बिचौलियों का सफाया हो, कृषि उपज का उचित भंडारण हो और उनकी बर्बादी रुके। ऐसा होने पर किसानों को एमएसपी भी दी जा सकेगी और उत्पादन उपरांत वाली लागत घटने से खाद्य पदार्थ महंगे भी नहीं होंगे।
बृजेश माथुर | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
फसल परिवर्तन उपाय
20 जनवरी के अंक में ‘एमएसपी के लिए मौत से जंग’ लेख पंजाब के किसानों का हाल बताता है। वहां के किसान फसल के भाव की गारंटी लेकर भूख हड़ताल पर बैठे हैं। उनकी मांग है कि सरकार सभी फसल खरीद कर उसका उचित भाव दें। सरकार की कोई कोशिश नहीं दिखती कि इसका कोई समाधान निकले। जब से देश को आजादी मिली है, तब से लेकर आज तक गेहूं और चावल को छोड़कर बाकी सभी फसलों को निजी व्यापारी ही खरीदते हैं। वे लोग फसलों का हमेशा दाम कम ही रखते हैं। इस समस्या का समाधान फसल परिवर्तन कर दाल और फल उत्पादन को बढ़ावा दे कर किसानों को खुशहाल किया जा सकता है।
अमरजीत सिंह | बठिंडा
मंदिरों की हो रक्षा
आउटलुक के 6 जनवरी के अंक में, ‘संभल की चीखती चुप्पियां’ पढ़कर लगा कि जैसे हर शहर में जमीन के अंदर कहीं न कहीं मंदिर दबे हुए हैं। सोचिए अगर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के एक प्रमुख शहर में ऐसी स्थिति बनी, तो उसके क्या कारण हो सकते हैं।
शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी | फीरोजाबाद, उत्तर प्रदेश
पुरस्कृत पत्रः लाजवाब अंक
20 जनवरी की आवरण कथा, ‘सुविधा पचीसी’ बहुत शानदार लगी। 25 साल की 25 चीजें याद दिला कर आपने पुराना दौर याद दिला दिया। जब इन उत्पादों, सेवाओं या कहें बदलाव के बारे में पढ़ा, तब ध्यान आया कि वाकई इन चीजों को आए बहुत कम समय हुआ है। लेकिन हम लोग तकनीक के इतने गुलाम हो गए हैं कि हमें लगता है कि इससे पहले जैसे जीवन था ही नहीं। स्मार्ट फोन के बिना जीवन की कल्पना इस पीढ़ी के बच्चे कर ही नहीं सकते। जब फोन नहीं था, तब भी जीवन चलता ही था। लेकिन अब तो हर पीढ़ी के लोग चंद मिनट भी बिना फोन के रह जाएं, तो घबराहट होने लगती है। फोन के बिना लगता है, जीवन सूना हो गया है। 25 साल में हर क्षेत्र में क्रांति लाने का पूरा श्रेय बेशक फोन को ही जाता है।
नीरजा रानी|रोहतक, हरियाणा