दिल्ली की जंग
17 फरवरी के अंक में दिल्ली चुनाव पर बहुत अच्छा विश्लेषण है। यह आलेख पढ़ कर लगा कि केजरीवाल ने मिले हुए मौके को व्यर्थ गंवाया है। जनता ने उन पर बहुत भरोसा किया और उन्होंने जनता को धोखे में रखा। दिल्ली की जनता के लिए वे बहुत कुछ कर सकते थे।
नेहा चहल | कानपुर, उत्तर प्रदेश
स्टार कल्चर
17 फरवरी के अंक में, ‘खेल बड़ा या खिलाड़ी?’ एकदम सटीक लेख है। क्रिकेट की दुनिया समय के साथ बहुत बदल गई है। खिलाड़ियों ने भी वक्त के साथ अपनी प्राथमिकताएं बदल ली हैं। अब क्रिकेट सिर्फ खेल ही नहीं, बल्कि स्टार कल्चर बन गया है। खिलाड़ी से ज्यादा लोग उनके स्टारडम का आनंद लेते हैं। जो जितना बड़ा खिलाड़ी वह उतने ही बड़े ब्रांड का विज्ञापन करता नजर आता है। इससे प्रशंसकों के बीच उनकी अलग ही छवि बनती जा रही है। क्रिकेट में खिलाड़ियों में हमेशा से ही स्टारडम रहा है। अब न्यू मीडिया आ जाने से इनका हल्ला बहुत हो जाता है। विराट कोहली, महेंद्र सिंह धोनी, रोहित शर्मा से पहले भी सुनील गावस्कर, कपिल देव, के. श्रीकांत जैसे खिलाड़ियों की बहुत चर्चा रहती थी। अब सोशल मीडिया ने खिलाड़ियों की लोकप्रियता को अलग ही मुकाम दे दिया है। अब खिलाड़ी अपने खेल के कौशल से ज्यादा सोशल मीडिया पर फॉलोअर की संख्या से ज्यादा जाना जाता है। करोड़ों रुपये के विज्ञापन इसी आधार पर इनको मिलते हैं। खेल में इनका बल्ला चले या न चले लेकिन ऐसे खिलाड़ियों की हमेशा बल्ले-बल्ले रहती है।
सुशांत राज | जयपुर, राजस्थान
घरेलू क्रिकेट की अनदेखी
पहले एक होते थे खिलाड़ी। अब होते हैं, स्टार। 17 फरवरी के अंक में, ‘खेल बड़ा या खिलाड़ी?’ इस बात का सटीक विश्लेषण करता है। सिर्फ क्रिकेट ही क्यों अब तो हर खेल में खिलाड़ियों पर स्टारडम हावी है। एक बार कोई खिलाड़ी कहीं चमका नहीं कि सब उनके पीछे भागने लगते हैं। खिलाड़ी भी खुद को अलग समझने लगते हैं। इस सबका प्रभाव उनके खेल पर भी पड़ता है। लेकिन एक बार जो चमक गया, सो चमक गया। लंबे समय तक वे अपनी उसी प्रसिद्धि को भुनाते रहते हैं। क्रिकेट में तो यह बहुत ज्यादा होता है। स्टार खिलाड़ी घरेलू क्रिकेट को कुछ नहीं समझते। घरेलू स्पर्धाएं उन्हें हैसियत से कम लगती हैं। यह दुखद ही है कि विराट और रोहित जैसे खिलाड़ियों को रणजी ट्रॉफी में लाने के लिए बीसीसीआइ को दबाव बनाना पड़ता है। आइपीएल में हर खिलाड़ी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता है। टीम इंडिया के खिलाड़ियों का कहना है कि उनके पास तीनों फॉर्मेट में खेलने के लिए समय नहीं है। अगर ऐसा ही है, तो वे लोग क्यों नहीं किसी अंतरराष्ट्रीय या आइपीएल से खुद को बाहर कर लेते। वे लोग ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि वहां खूब पैसा है।
वसंत शेल्के | नासिक, महाराष्ट्र
रोमांच की कमी
17 फरवरी के अंक में, ‘खेल बड़ा या खिलाड़ी?’ से क्रिकेट के दिग्गजों की असलियत पता चली। भारतीय क्रिकेट में रणजी ट्रॉफी, सैयद मुश्ताक अली ट्रॉफी और विजय हजारे ट्रॉफी जैसे घरेलू टूर्नामेंट भारतीय क्रिकेट की रीढ़ माने जाते हैं। लेकिन आम जनता को यह पता ही नहीं होगा। नई पीढ़ी तो बस आइपीएल और टी20 के बारे में जानती है। इसकी सीधी सी वजह क्रिकेट के बड़े खिलाड़ी हैं, जो इन टूर्नामेंट को तवज्जो नहीं देते हैं। इन्हीं खिलाड़ियों की वजह से इन टूर्नामेंट्स को वह सम्मान और महत्व नहीं मिल पाता, जो उन्हें मिलना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट, आइपीएल और टी20 खेलने के लिए युवा खिलाड़ी लालयित रहते हैं। इनका जोर और प्रचार-प्रसार इतना रहता है कि दर्शक भी घरेलू क्रिकेट के बजाय वही मैच देखना पसंद करते हैं। इसकी सीधी सी वजह रोमांच है। जब बड़े और अच्छे खिलाड़ी खेलेंगे ही नहीं, तो रोमांच आएगा कहां से। सभी जानते हैं कि क्रिकेट का सीधा संबंध रोमांच से है। दर्शकों की सांसे थम जाएं, ऐसा खेल उन्हें जहां देखने को मिलेगा, वे वहीं भागेंगे। घरेलू क्रिकेट इसी वजह से मात खा रहा है। आइपीएल और अंतरराष्ट्रीय मैचों की लोकप्रियता ने घरेलू क्रिकेट को हाशिए पर डाल दिया है। सोशल मीडिया में अगर घरेलू क्रिकेट की भी ऐसी ही चर्चा होने लगे, तो घरेलू क्रिकेट के दिन भी फिर जाएंगे। तभी बात बनेगी।
मयंक श्रीवास्तव | कानपुर, उत्तर प्रदेश
संबंध बहाली पर जोर
3 फरवरी के अंक में, ‘लिबरल सत्ता का चौंकाऊ अंत’ अच्छा लगा। आज नहीं तो कल ट्रुडो को जाना ही था। भारत के खिलाफ जो, संगीन आरोप उन्होंने लगाए थे उसका उनके पास कोई सबूत नहीं था। कनाडा की आंतरिक समस्याएं और अर्थव्यवस्था की असफलता को छुपाने के लिए ट्रुडो ने भारत के खिलाफ यह सब किया ताकि कनाडा के लोगों का ध्यान बांटा जा सके। इस चक्कर में उन्होंने न केवल कनाडा के भारत के साथ संबंधों को ताक पर रख दिया बल्कि अमेरिका के साथ भी अपने संबंध खराब कर लिए। यह विडंबना नहीं तो क्या है कि जिन खालिस्तानी समर्थकों के बलबूते उन्होंने 4 साल सरकार चलाई उन्होंने ही ट्रुडो को प्रधानमंत्री पद छोड़ने पर विवश कर दिया। इतिहास ने खुद को दोहराया है। ट्रुडो के पिता को भी इसी तरह पद छोड़ना पड़ा था। यह तय है कि कंजर्वेटिव पार्टी ही अगले चुनाव में जीत हासिल करेगी।
बाल गोविंद | नोएडा, उत्तर प्रदेश
प्रतिभाओं का विस्फोट
3 फरवरी के अंक में आवरण कथा, ‘सुनहरे कल के नए सितारे’ खेलों के भविष्य की संभावनाओं को सही ढंग से दर्शाया गया है। पिछले कुछ सालों में बैडमिंटन, कुश्ती, शतरंज, टेबल टेनिस में हमारे खिलाड़ियों ने बहुत बढ़िया प्रदर्शन किया है। सरकारी प्रोत्साहन और प्रशिक्षण की बेहतर सुविधाओं ने भारत में खेल संस्कृति बिलकुल बदल कर रख दी है। भारत अब 2030 तक खेल की दुनिया में बड़े बदलाव के लिए तैयार है। भारतीय खेल ऐसा क्षेत्र है, जिसने कुछ साल पहले की तुलना में ऊंची छलांग लगाई है। इसमें सार्वजनिक और निजी दोनों ही क्षेत्रों का बड़ा योगदान रहा है। ओलंपिक में भी हमारा प्रदर्शन धीरे-धीरे सुधर रहा है। हमारे देश में भी प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। बस जरूरत है, तो उन्हें खोजने और तराशने की। यही काम अब शुरू हो चुका है। 2024 भारतीय खेलों में क्रिकेट, ओलंपिक, पैरालंपिक, शतरंज ओलंपियाड और फिडे विश्व चैंपियनशिप में मिली सफलता के लिए याद किया जाएगा। क्रिकेट से लेकर टेनिस, हॉकी, शतरंज के अलावा भारत ने पेरिस ओलंपिक और पैरालंपिक में भी अपना लोहा मनवाया। भारत का इन खेलों में बेहतरीन प्रदर्शन रहा जिससे समस्त देशवासी गौरवान्वित हुए।
विजय सिंह अधिकारी | नैनीताल, उत्तराखंड
स्कूल आगे आएं
3 फरवरी के अंक में आवरण कथा, ‘सुनहरे कल के नए सितारे’ खेलों में भारत की ताकत को दर्शाती है। चीन, अमेरिका, जापान हमसे खेलों में इसलिए आगे हैं क्योंकि वहां खिलाड़ियों को शुरुआत से ही कई सुविधाएं दी जाती हैं। इन सभी देशों में खेल की मजबूत संस्कृति है। यहां यूं ही नहीं विश्व स्तरीय एथलीट पैदा हो जाते हैं। ये देश अपने बच्चों के साथ बहुत मेहनत करते हैं। जिस तरह भारत में कम उम्र से ही माता-पिता डॉक्टर, इंजीनियर बनाने पर जोर देते हैं उसी तरह अन्य देश बच्चों पर खेल में नाम कमाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। भारत में खेल की दुनिया बड़ी रिस्की है। अगर कोई खिलाड़ी ओलंपिक तक नहीं पहुंच पाया, तो उसका भविष्य अंधकारमय हो जाता है। यही वजह है कि माता-पिता खेल के बजाय पढ़ाई पर ही बच्चे को ध्यान देने को कहते हैं। वैसे भी खेल में प्रतिभा निखारने के लिए बहुत पैसा और विश्व स्तरीय सुविधाएं चाहिए होती हैं, जो भारत में संभव नहीं है। फिर भी अब जमीनी स्तर पर खेल को लेकर काम होने लगा है और यह अच्छा संकेत है।
मनीष बिजगावणे | सागर, मध्य प्रदेश
खत्म हो गुटबाजी
3 फरवरी के अंक में, ‘कांग्रेस का संगठन-संकट’ पार्टी की दयनीय हालत को उजागर करता है। चुनाव हारने के बाद भी कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा है कि यदि अभी वह आंतरिक कलह से नहीं उभर पाई, तो फिर कभी नहीं उबर पाएगी। संगठन के लोग यदि छिटक कर यहां-वहां चले गए, तो फिर सबको इकट्ठा करना पार्टी के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा। यह भी हैरत की बात है कि 90 सदस्यीय विधानसभा में 37 विधायक कांग्रेस के होने के बाद भी कांग्रेस मजबूत विपक्ष की भूमिका अदा नहीं कर रही है। कांग्रेस आलाकमान को चाहिए कि वह गुटबाजी रोके। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा को चाहिए कि वे पार्टी हाई कमान की बात सुनें।
मीना धानिया | दिल्ली
पुरस्कृत पत्र: बुजुर्ग योद्धा
17 फरवरी के अंक में, ‘किसानों के लिए जान की बाजी’ में बुजुर्ग किसान जगजीत सिंह दल्लेवाल के बारे में जाना। कैंसर से जूझ रहे दल्लेवाल में अभी भी किसानों को लेकर भावनाएं बाकी हैं। वे जानते हैं कि अब उनकी वापसी नामुमकिन है। तभी उन्होंने अपनी वसीयत भी तैयार करा दी है। जिस व्यक्ति को कैंसर जैसी बीमारी हो, जिसने अपनी पत्नी को खो दिया हो फिर भी वह किसानों के भूख हड़ताल कर रहा हो, ऐसे व्यक्ति के लिए आदर अपने आप आ जाता है। इस तरह बिना स्वार्थ के कितने लोग होंगे, जो दूसरों के लिए सोचते होंगे। इस महान योद्धा का बलिदान खाली नहीं जाएगा। सरकारी तंत्र को शर्म आनी चाहिए कि एक बीमार बूढ़ा किसान अपनी बिरादरी के लिए इतना बड़ा बलिदान देने को तैयार है और सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही।
मोनिका साहनी|दिल्ली