धैर्य की विजय
14 अप्रैल के आउटलुक में, ‘हकीकत जैसे सिनेमा’ में सुनीता विलियम्स की कहानी बताई। भारतीय मूल की अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स 9 महीने और 18 दिन बाद सकुशल धरती पर वापस आ गईं। धरती पर उनकी यह वापसी उनके धैर्य और दृढ़ता की विजय है। हो सकता है उनके मन में भी कभी न कभी यह आया हो कि अब वे शायद ही अंतरिक्ष से वापस लौट पाएं। लेकिन उनके आत्मविश्वास के बल पर वे वहां टिकी रहीं। उनके धैर्य ने दूसरों को भी प्रेरणा दी होगी।
विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली
आकाश की लड़ाई
14 अप्रैल के अंक में ‘धरती के पार जंग का बाजार’ में बिलकुल सही लिखा गया है कि जो अंतरिक्ष कभी अनुसंधान और ज्ञान का क्षेत्र माना जाता था, वह अब धीरे-धीरे सत्ता और सैन्य-शक्ति का नया अखाड़ा बनता जा रहा है। भारतीय मूल की नासा की अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स और उनके सहयोगियों द्वारा अंतरिक्ष से धरती पर सकुशल वापसी के बाद अंतरिक्ष की लड़ाई और बढ़ेगी। ऐसा इसलिए भी होगा क्योंकि नासा के बजाय एलॉन मस्क की कंपनी उन्हें वापस लेकर आई है। निजी क्षेत्र के आने से अंतरिक्ष संबंधित गतिविधियों में तेजी आएगी। आने वाले दिनों में कई कंपनियां अंतरिक्ष की होड़ में आ जाएंगी, सभी के लिए चिंताजनक है। अंतरिक्ष सैन्यीकरण को हल्के में नहीं लिया जा सकता। जापान, चीन और भारत जैसे देशों ने अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम शुरू कर दिए हैं, जबकि यूरोपीय संघ (ईयू) सामूहिक रूप से अमेरिका के उपग्रहों को टक्कर देने के लिए उपग्रह प्रणाली बनाने के लिए काम कर रहा है। सभी देशों को ध्यान रखना चाहिए कि अंतरिक्ष का उपयोग केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही हो।
युगल किशोर राही | छपरा, बिहार
लोकतंत्र का आधार
14 अप्रैल के अंक में प्रथम दृष्टि में, ‘आस्था बनी रहे’ अच्छा लेख था। न्यायपालिका पर हर भारतवासी का भरोसा है। ऐसे में यदि किसी न्यायाधीश के यहां से बोरी में नोट बरामद हों, तो यह चिंता का विषय है। इससे लोगों का भरोसा डगमगाता है। हालांकि ऐसी एक या दो घटनाओं से न्यायपालिका पर भरोसा कम नहीं हो जाता लेकिन भारतीय लोकतंत्र में दोबारा ऐसी घटना न हो इसका खयाल रखा जाना चाहिए। अभी घटना की जांच चल रही है इसलिए कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी लेकिन दोषियों को कड़ी सजा देने से ही न्यायपालिका पर से इसका दाग धुलेगा। यह करोड़ो लोगों के भरोसे का सवाल है। भारत में न्यायपालिका लोकतंत्र का बड़ा आधार है।
वेणु गोपाल | जयपुर, राजस्थान
बेकार विवाद
14 अप्रैल के अंक में, ‘ध्रुवीकरण का एक और एजेंडा’ पढ़ा। इस विषय को अनावश्यक रूप से तूल दिया जा रहा है। उसे दयालु शासक बताकर माहौल बिगाड़ने का काम किया जा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि औरंगजेब क्रूर, कट्टर और मतांध शासक था। लेकिन फिर भी उसकी कब्र हटाने की मांग का कोई औचित्य नहीं है। उसकी कब्र हट जाने से उसकी क्रूरता की कहानियां खत्म नहीं हो जाएंगी। जो अत्याचार उसने किए वे शाश्वत हैं, बल्कि औरंगजेब की कब्र हमें उसके अत्याचार याद दिलाती रहेगी। कब्र से हमें हमेशा याद रहेगा कि वहां ऐसा शासक दफन है, जो बेहद अत्याचारी था। औरंगजेब अकेला मुगल शासक नहीं था, जिसने अत्याचार किए हों। सभी एक से थे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर किन-किन मुगल शासकों या दूसरे आक्रमणकारियों की निशानियां हम मिटाएंगे। ऐसा करने से उनसे जुड़ी कटु स्मृतियां खत्म नहीं हो जाएंगी। बस इतना हो कि औरंगजेब का महिमामंडन न हो। जो लोग ऐसा करें, उनका सीमा में रहकर विरोध किया जाए। जिनका दामन दागदार है या जो विवादित हैं उनके काम पर बहस कर सिर्फ सामाजिक दूरियां ही बढ़ती हैं।
शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश
छिन गई सांस्कृतिक पहचान
31 मार्च के अंक में आवरण कथा, ‘होइ गवा बाजारू हल्ला’ भोजपुरी सिनेमा के अच्छे और बुरे दोनों दौर के बारे में करीने से बात करती है। एक समय था, जब भोजपुरी ने पूरे देश में अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाई थी। दुर्भाग्य से समय के साथ उसकी यह पहचान छिन गई। अपने ही समाज की उपेक्षा के कारण इसका न सिर्फ दर्शक वर्ग बदल गया, बल्कि उसकी गुणवत्ता में भी गिरावट आ गई है। कह सकते हैं कि इस भाषा की मिठास को आज अश्लीलता ने हर तरह से ढक दिया है। अब भोजपुरी फिल्मों मे अच्छाई की जगह अश्लीलता ने ले ली है। यह अश्लीलता देखने से लेकर सुनने तक फैल गई है, यानी आजकल की भोजपुरी फिल्मों में न केवल गानों में अश्लीलता है बल्कि दृश्यों में भी अश्लीलता बढ़ गई है। पहले भोजपुरी फिल्मों को पढ़ा-लिखा समाज बहुतायत में देखता था परंतु आजकल अश्लीलता पसंद करने वालों की संख्या बढ़ गई है। नए किस्म के दर्शकों ने फूहड़ता, अश्लीलता को बहुत बढ़ावा दिया है। यही कारण है कि केवल निर्माता-निर्देशक बल्कि कलाकार भी फूहड़ता को बढ़ावा दे रहे हैं। पूरे ही भोजपुरी फिल्मों के कुनबे में अश्लीलता की भांग घुल गई है।
एम.एम. राजावत | शाजापुर, मध्य प्रदेश
ऐसी सामग्री पर लगे रोक
‘होई गवा बाजारू हल्ला’ (आवरण कथा, 31 मार्च) पढ़कर लगा कि हम नैतिक और सामाजिक मूल्यों से कितने गिर गए हैं। दरअसल आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हम तमाम संस्कार, संस्कृति, नैतिकता, शर्म, मर्यादा को तिलांजलि देते जा रहे हैं। दैहिक प्रदर्शन, अश्लीलता की इस बाढ़ में शर्म-हया दलदल में समाती जा रही है। सोशल मीडिया पर फूहड़, कामुक और अश्लील सामग्री और रील्स युवाओं को बर्बादी की राह पर ले जा रही है। पैसों की लालसा ने सब गुड़ गोबर कर रखा है। हमारे संस्कार ऐसे तो बिलकुल नहीं थे, न हमारी शिक्षा-दीक्षा ऐसी थी। फिर भी पता नहीं कैसे समाज में गंदगी हावी होती जा रही है। यह गंभीर चिंता का मामला है। समय आ गया है कि ऐसी भद्दी, फूहड़, कामुक, अश्लील सामग्री पर रोक लगनी चाहिए, जो हमें शर्मसार कर समाज को पतन और भटकाव के रास्ते पर ले जा रही है। सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले ऐसे बेहूदे और फूहड़ कार्यक्रम का बायकॉट करें और उन्हीं कार्यक्रमों को देखें, जो सकारात्मक और रचनात्मक होने के साथ शिक्षाप्रद हों। वरना जिस सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता, शिक्षा-दीक्षा, शर्म मर्यादा पर हमें गर्व हैं, वह धूलधूसरित हो जाएगी। इसके जिम्मेदार हम सब होंगे।
हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश
गुदड़ी का लाल
31 मार्च के अंक में, ‘सड़क से सुर्खियों’ तक में रागिनी विश्वकर्मा के बारे में जाना। उत्तर-प्रदेश के गोरखपुर की गलियों में हारमोनियम और ढोलक की ताल पर गाने वाली रागिनी को भी शायद अंदाजा नहीं था कि उनकी आवाज एक दिन पंजाबी के रैपर हनी सिंह के साथ सुनाई देगी। जो लड़की कभी शादियों, कभी मेलों में गाना गाकर गुजरती थी आज देश में चर्चा का विषय है। महज 10 साल की उम्र में उसने गाना शुरू कर दिया था। कोरोना के दौरान उसका एक वीडियो वायरल हुआ था। उसके गाने जीवन के संघर्ष से उपजे थे, बहुत चर्चित हुए। वह सही मायने में गुदड़ी का लाल है। इन लोगों ने जो भी कमाया है, अपनी मेहनत से हासिल किया है। इन लोगों पर विवाद न करना ही अच्छा है। आखिर इस मसले पर रागिनी की क्या गलती है।
मीना धानिया | दिल्ली
कमाई का लालच
आउटलुक के 31 मार्च के अंक में, आवरण कथा, ‘होई गवा बाजारू हल्ला’ भोजपुरी की दुर्दशा पर अच्छा आलेख है। लेकिन इसे हनी सिंह प्रकरण से जोड़ना थोड़ा गलत है। क्योंकि भोजपुरी में हनी सिंह से पहले भी बाजारूपन और फूहड़ता आ चुकी थी। भोजपुरी को इस स्थिति से निकालने के लिए बिहार के शिक्षित समाज को ही आगे आना होगा। उन लोगों को एकजुट होकर दृढ़ रहना होगा कि ऐसे गाने न किसी समारोह में न बजाएंगे, न बजने देगें। न ऐसी फिल्में देखेंगे न दिखाएंगे। तभी बदलाव आएगा। सभी को मिल कर फूहड़ता भरे गानों का बायकाट करना होना। जो लोग कहते हैं कि ‘जो दिखता है, वही बिकता है’ वे गलत नहीं कहते। ये उद्योग मुनाफा कमा रहा है, लोग कमाई कर रहे हैं, तो जाहिर है इस तरह का कंटेंट बहुतायत में बनेगा। फूहड़ता पसंद करने वालों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि इसका समाज पर क्या असर पड़ रहा है। अगर इस तरह के गानों की संख्या में कमी आ जाएगी, तो खुद ब खुद महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराध में कमी भी आ जाएगी। आएगी। इसमें हनी सिंह का आना तो बस एक कड़ी है। हनी सिंह पर यदि भोजपुरी वाले एक और आरोप लगा देंगे तो उन्हें क्या फर्क पड़ेगा।
अमरनाथ गुप्ता | गोंडा, उत्तर प्रदेश
पुरस्कृत पत्रः चलो दिलदार चलो
रुमानियत का वह वक्त बीत गया, जो कहता था, ‘चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो।’ अब यह हकीकत बन गया है कि कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी को चांद की सैर करा लाए। आउटलुक की नई आवरण कथा, (धरती के पार जंग का बाजार, 14 अप्रैल) ने आश्चर्य की दुनिया की सैर कराई। अब तक हम जिसे कल्पना मान कर चल रहे थे, वह कब की हकीकत में बदल चुकी है। अब चांद छूना मुहावरा सच हो गया है। अब तक लगता था कि कुछ वैज्ञानिक ही चांद पर जा सकते हैं लेकिन अब निजी कंपनियां, हर पैसे वाले की यह ख्वाहिश पूरी करने के लिए तैयार है। हर दो-चार साल में खबरें आती हैं कि दुनिया खत्म होने को है। ऐसी खबरें पढ़ कर लगता है अब नई दुनिया चांद पर ही बसेगी और पृथ्वी नष्ट हो जाएगी। अंतरिक्ष की यह होड़ समझ से परे है।
हरशरण सिंह|फरीदकोट, पंजाब