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21 जुलाई 2025 · JUL 21 , 2025

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

यात्रियों की सुरक्षा

7 जुलाई की आवरण कथा, ‘बचाओ...बचाओ...सब स्वाहा’ भयावह घटना की सारी परतें खोलती है। एयर इंडिया  के विमान का आवासीय क्षेत्र में गिरना बहुत बड़ी घटना है। इसमें प्लेन में सवार लोग तो मारे ही गए, जहां यह गिरा वहां भी कई लोग चपेट में आ गए। यह भयावह और दिल दहलाने वाली घटना हवाई यात्रा की सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल खड़े करती है। अब यह पता लगाया जाए कि दुर्घटना किस वजह से हुई और इसके लिए कौन जिम्मेदार है। एयर इंडिया के साथ नागरिक उड्डयन महानिदेशालय को भी गंभीरता से इस हादसे के कारणों का पता लगाना और उसका निवारण करना होगा। इसलिए भी क्योंकि हवाई यात्रा की सुरक्षा को लेकर प्रश्न उठते ही रहते हैं। सरकार को निश्चित करना होगा कि इन प्रश्नों का समय पर सही उत्तर मिले क्योंकि अहमदाबाद की दुर्घटना ऐसे हवाई यात्रा के प्रति लोगों के भरोसे को डिगा सकती है। अब देश में विमान सेवाओं का संचालन मुख्यतः निजी कंपनियां कर रही हैं इसलिए यात्रियों की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं होना चाहिए। कहा जा रहा था कि टाटा के हाथ में आने के बाद सुविधाओं और सुरक्षा के मामले में एयर इंडिया की हालत सुधरेगी और विमानों का संचालन सुगमता से होगा। लेकिन अहमदाबाद की दुर्घटना ने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया। इस राष्ट्रीय त्रासदी ने विमान निर्माता कंपनी बोइंग पर भी सवालिया निशान खड़े किए हैं।

शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

 

अभागी उड़ान

7 जुलाई के अंक में, ‘पीड़ित परिवारों का दर्दनाक इंतजार’ बहुत मार्मिक है। जिन लोगों ने इस हादसे में अपने परिजन खोए हैं, उन्हें अब उनके शव के लिए भी एक और परीक्षा से गुजरना है। इस लेख में डीएनए सैंपल रूम की आंखों देखी तस्वीर के बारे में पढ़ कर मन उदास हो गया। पोस्टमार्टम करने वाले डीएनए के लिए रक्त के नमूने लेने वाले अपने काम में जुटे हैं, ये लोग लगातार काम कर रहे हैं लेकिन उनकी भी अपनी सीमाएं हैं। सरकार को चाहिए था कि वहां ज्यादा से ज्यादा लोग लगा देते, ताकि काम जल्दी होता। परिवारवालों का  बेचैन होना स्वाभाविक है, क्योंकि परिजन को खो देने के बाद वे उसी माहौल में और कितने दिन रह कर इंतजार कर सकते हैं। इस लेख में जुनैद के रिश्तेदार के बारे में पढ़ कर दिल भर आया। डेढ़ साल की मासूम बच्ची की यह आखिरी उड़ान साबित हुई। ऐसी तमाम कहानियां खत्म हो गईं और परिजनों को अपनों से मिलने का इंतजार इंतजार ही रह गया। बेहतर हो कि सरकार इस काम में तेजी लाए ताकि परिवारवाले अपने परिजनों के शव को लेकर घर जा सकें।

स्वाति देशमुख | मुंबई, महाराष्ट्र

 

स्वार्थ का रिश्ता

आउटलुक के 7 जुलाई के अंक में, ‘ट्रम्प-मस्क यारी खत्म?’ लेख अच्छा था। यह तो दीवार पर लिखी इबारत थी कि ट्रम्प और मस्क एक न एक दिन झगड़ेंगे जरूर। न ट्रम्प को अक्ल है, न मस्क को। दोनों ही अपने को बहुत होशियार, समझदार और काबिल समझते हैं। इन दोनों में झगड़ा भी इसलिए हुआ कि दोनों में एक बात समान है, बिना बात का अहंकार। एक झटके में दोनों अलग भी इसलिए हो गए, क्योंकि दोनों ही स्वार्थ से जुड़े हुए थे। एक दुनिया का सबसे ताकतवर नेता है, तो दूसरा सबसे अमीर शख्स। ऐसे लोगों के बीच रिश्ते कड़वे हो जाना बहुत हैरानी की बात नहीं है। सभी जानते थे कि दोनों अलग होंगे और कड़वाहट के साथ होंगे। इस टकराहट से इन दोनों का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, मगर दुनिया की सियासत और वित्त व्यवस्था जरूर कुछ दिनों के लिए पटरी से उतर जाएगी। ऐसे लोग साथ न रहें, तो ही अच्छा है।

प्रियदर्शिनी प्रिया | पटना, बिहार

 

भयानक दौर

‘बीस महीनों के सबक’, 7 जुलाई के अंक में आपातकाल पर बहुत अच्छी सामग्री दी गई है। इस लेख से आपातकाल एक बार फिर किसी फिल्मी रील की तरह आंखों के सामने से गुजर गया। क्या कुछ नहीं हुआ था उन दिनों। आश्चर्य होता था कि भारत में भी ऐसा कुछ हो सकता है। तब प्रधानमंत्री का दफ्तर ही सब कुछ था। कैबिनेट तक की कोई हैसियत नहीं थी। हालांकि अभी भी कांग्रेस पार्टी में चापलूसी को ही तरजीह दी जाती है लेकिन उस वक्त यह इस कदर हावी थी कि उनके वफादारों को भारत की बराबरी पर इंदिरा गांधी को रखते हुए जरा भी लाज नहीं आई थी। पी.एन. हक्सर ने तो उन दिनों अति कर रखी थी। रही सही कसर संजय गांधी पूरी कर लेते थे। जगजीवन राम जैसे नेता को इस्तीफा देना पड़ा था। आज की पीढ़ी तो सोच भी नहीं सकती कि वह क्या कठिन दौर था। इंदिरा के खिलाफ बोलने वाला हर व्यक्ति जेल भेज दिया जाता था। लगता था कि सारा विपक्ष ही जेल में बंद है। इंदिरा ने जयप्रकाश नारायण को भी नहीं छोड़ा था, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी, जबकि 1971 की जंग के दौरान वे इंदिरा गांधी के अनुरोध पर दुनिया भर में घूमकर बांग्लादेश के पक्ष में माहौल बनाने का काम कर चुके थे। लेकिन इंदिरा ने किसी का लिहाज नहीं किया था।

एम.के. कुलकर्णी | पुणे, महाराष्ट्र

 

परिवार का भी दोष

7 जुलाई के अंक में बहुचर्चित राजा रघुवंशी हत्याकांड पर ‘एक हत्या और कई सवाल’ लेख पढ़कर मन में एक ही बात आई कि क्या इस सबके लिए सिर्फ सोनम रघुवंशी अकेली दोषी है। बेशक सोनम ने बहुत ही गलत काम किया है और उसे उसकी सजा भी मिलनी चाहिए लेकिन उसके साथ उसका पूरा परिवार भी इसके लिए दोषी है। सबसे पहली बात तो यही कि बेटी की मर्जी के खिलाफ उसकी शादी करना बड़ी गलती थी। समाज में शादी करने की जो खब्त है, उस वजह से एक की जिंदगी चली गई, बाकी का जीवन बर्बाद हो गया। बच्चों को अपनी ओर से समझाने का प्रयास करना चाहिए लेकिन उनके साथ जबरदस्ती करना बुरा है। समाज का दबाव खुद पर हावी करने से बात ऐसे ही बिगड़ती है। परिवारों को इसके बारे में सोचना होगा।

रंजीत विश्वकर्मा | इंदौर, मध्य प्रदेश

 

कड़ी सजा मिले

राजा रघुवंशी की हत्या ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया है। आउटलुक में 7 जुलाई को प्रकाशित लेख, ‘एक हत्या और कई सवाल’ सामाजिक तानेबाने में बच्चों की जिद पर प्रकाश डालता है। पहले माता-पिता बच्चों की जिद को खास तवज्जो नहीं देते थे। बच्चे भी थोड़ी जिद कर मान जाते थे। लेकिन अब छोटी बातों की यह जिद बच्चों ही नहीं, युवाओं के स्वभाव का हिस्सा बन गई है। इस जिद के कारण ये लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। दरअसल अभी भी दबाव देकर शादी कराई जा रही हैं। फिर चाहे लड़का-लड़की कुछ समय बाद ही तलाक ले लें। माता-पिता का दंभ होता है कि बच्चे उनकी मर्जी से ही शादी करें। हालांकि सोनम ने हर हद को पार किया है। उसे कड़ी सजा होना चाहिए ताकि भविष्य में कोई लड़की ऐसा भयानक कदम न उठाए।

रूद्र पहाड़िया | जयपुर, राजस्थान

 

जंगल राज

ऐसी घटनाएं हमें चेतावनी दे रही हैं कि हमें सावधान होने की जरूरत है। समाज में हम रह जरूर रहे हैं लेकिन मानवीय संवेदनाओं से कोसों दूर हैं। यह घटना बताती है कि इंसान के तौर पर भी हमने सोचना छोड़ दिया है, वरना क्या वजह है कि एक लड़की शादी के लिए मना करने के बजाय, शादी का पूरा नाटक करती है और बिना वजह एक लड़के को मौत के घाट उतार देती है। ऐसे संवेदनाओं रहित समाज में रहते हुए आखिर हम कहां पहुंचेंगे। बिना भावना के तो पशु भी नहीं रहते। अगर इंसान ऐसी हरकतें करने लगेंगे, तो कैसे काम चलेगा। इस घटना से लगा जैसे हम पाषाण युग में हैं या यह जंगल राज है। सब लोग माता-पिता पर दोष दे रहे हैं लेकिन माता-पिता अपनी तरफ से जो संस्कार दे सकते हैं, देते ही हैं। किस परिवार को लगता है कि उसकी बेटी सिर्फ लड़का पसंद न होने पर उसे मार डालेगी। अब जरूरत है कि बड़ी-बड़ी डिग्री के लिए पढ़ने भेजने के बजाय बच्चों को मानवीय संवेदनाएं सिखाई जाएं। (‘एक हत्या और कई  सवाल’, 7 जुलाई।)

चंदन यादव | बलरामपुर, उत्तर प्रदेश

 

दिखावे से दूर

अभी भी समय है कि हम चेत जाएं। रिश्तों को मजबूत करने के लिए जितने हो सके जतन करना चाहिए। 7 जुलाई का लेख, ‘एक हत्या और कई  सवाल’ वाकई अपने पीछे कई सवाल छोड़ गई है। नई पीढ़ी यदि हत्या को सामान्य मानती रही, तब तो प्रलय की जरूरत ही नहीं, यही प्रलय है। संवाद इसमें सबसे अहम भूमिका निभाएगा। इसके लिए दिखावे वाली शादियों से भी दूरियां बनाना बहुत जरूरी है। माता-पिता समाज में अपने अपनी हैसियत दिखाने के लिए शादियां करने लगे हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है कि लड़की खुश रहेगी या नहीं। इस जमाने में भी यदि लड़की की शादी जबरदस्ती की जाने लगेगी, तो ऐसी घटनाएं होती रहेंगी।

चारू शर्मा | गुवाहाटी, असम

 

पुरस्कृत पत्रः दर्दनाक हादसा

आज भी भारत में विदेश जाने की अलग ही खुशी होती है। ऐसे में जब कोई अपनी नई जिंदगी शुरू करने जा रहा है, किसी को किसी रिश्तेदार से मिलने की आस हो, किसी को आगे पढ़ने की चाहत हो, इन सबके बीच जब चंद सेकंड में ये खुशी मातम में बदल जाए, तो बहुत दुख होता है। जब हम लेख में दूसरों की कहानियां जानकर इतने दुखी हैं, तो घरवालों के दुख का ऐहसास किया ही जा सकता है। चंद सेकंड में ही एक विमान हादसे ने कितनी जिंदगियां खत्म कर दीं। इस पर जांच बैठाने का कोई फायदा नहीं होगा। जांच सालोसाल चलेगी लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलेगा। जिनके सदस्य चले गए हैं, अब उन्हें उनके परिवार वालों के शव बिना किसी परेशानी के मिल जाएं, सरकार को इस बात का खयाल रखना चाहिए। (‘बचाओ...बचाओ...सब स्वाहा’, 7 जुलाई)

पूनम जुगरान|अंबाला, हरियाणा

 

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