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4 अगस्त 2025 · AUG 04 , 2025

पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

चुनावी राजनीति

आउटलुक के 21 जुलाई के अंक में, ‘मैं, मध्यस्थ!’ लेख में ट्रम्प के बारे में बहुत जरूरी बातें की गई हैं। ट्रम्प वाकई गजब हैं। वे हर दिन अपना रंग बदल रहे हैं। उन्हें खुद ही नहीं पता कि आखिर वे क्या करना चाहते हैं। उन्हें समझना किसी के बूते की बात नहीं है। वे दबंगई दिखाना तो चाहते हैं लेकिन उनमें वह सामर्थ्य नहीं है। उनके काम पर नजर डालें, तो यही समझ में आता है कि वे भी चुनावी राजनीति में फंसे हुए हैं। उन्हें बस किसी भी तरह नोबल पुरस्कार चाहिए है। यह सब वे इसलिए कर रहे हैं। सोच कर ही दुख होता है कि ऐसा बहुरूपिया शख्स दुनिया के सबसे ताकतवर देश को चला रहा है। अमेरिका अब जल्द ही अपना मजबूती का दर्जा खो देगा। अमेरिका को खुद पर बहुत दंभ था और उसकी दादागीरी चलती थी। उसे लगता था कि पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में है। लेकिन ट्रम्प ने बता दिया कि अब वे इस सबको नष्ट करने के बाद ही चैन लेंगे।

सुधाकर सिंह | मोहाली, पंजाब

अमेरिका का पतन

वे दिन बीत गए, जब दुनिया की समूची सियासत अमेरिका के इर्द-गिर्द घूमती थी। 21 जुलाई के अंक में, ‘मैं, मध्यस्थ!’ लेख में ट्रम्प के बड़बोल बयानों, ऊटपटांग हरकतों, चौधरी बनने की ख्वाहिशों को सिलसिलेवार ढंग से बताया गया है। उनकी इन्हीं मूर्खताओं की वजह से दुनिया में अमेरिका का रसूख कम हो रहा है। पहले दुनिया का हर देश अमेरिका की ओर देखता था। उसके कई निर्णय पत्थर पर लकीर की तरह होते ते। लेकिन अब ट्रम्प ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने देश की साख को बट्टा लगा दिया है। वे नौसिखिए की तरह हर जगह न सिर्फ कूद जाते हैं, बल्कि फालतू बातें भी बोलते हैं। उनके लिए कायदे-कानून जैसी कोई चीज नहीं है। आश्चर्य होता है कि वे दोबारा जीत कैसे पाए। दिमागी रूप से इतने अस्थिर व्यक्ति को अमेरिका जैसे बड़े देश की बागडोर सौंप देना चिंता का विषय है। यह बंदर के हाथ में उस्तरे की तरह है। वे अपने बयानों से उनके देश के लोगों को ही नहीं चौंकाते, बल्कि पूरी दुनिया में कभी-कभी एक चिंता की लहर भी उठा देते हैं। बेहतर हो कि उनके हाथ में सत्ता ही न रहे, वरना सबकुछ बर्बाद होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।

सचिन बिजघावणे | छतरपुर, मध्य प्रदेश

गुरु गुड़

21 जुलाई के अंक में, ‘अजित की जीत के मायने’ दिलचस्प है। चाचा को पटखनी देकर अजीत पवार ने आखिर अपना डंका बजवा ही लिया। हमारे यहां पता नहीं क्यों नेता रिटायर होना नहीं चाहते। उन्हें अंतिम सांस तक अपना वर्चस्व चाहिए रहता है। अगर शरद पवार रिटायर हो जाते, तो उनकी साख बची रहती। हमारे यहां कहते भी हैं, बंद मुट्ठी लाख की। शरद पवार ने वह मौका छोड़ दिया। अजित पवार ने बारामती में मालेगांव सहकारी चीनी मिल चुनाव जीतकर बता दिया है कि वे भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं। सोच कर देखिए कि जो सीट पिछले चार दशकों से उनकी पहुंच से बाहर थी, उस पर कामयाबी पाना कितनी बड़ी जीत है। अजित पवार इससे सियासी बढ़त लेकर अपने गुरु से आगे बढ़ गए हैं।

सोनाली शर्मा | जींद, हरियाणा

बड़ी जीत

अजित पवार ने बेहद अहम शक्कर सहकारी संस्था पर दबदबा हासिल कर लिया है। शरद पवार को उनके गढ़ बारामती में हरा कर अजीत ने जीत की नई इबारत लिखी है। शरद पवार नेतृत्व वाली राकांपा गुट का लंबे समय से बारामती गढ़ रहा है। अजित ने इस बार सहकारी संस्था के चुनाव के लिए बहुत मेहनत की और यह मेहनत उनकी जीत में दिखाई भी पड़ रही है। अजित की पार्टी ने शरद पवार को तगड़ा झटका दिया है। 21 में से 20 सीटें जीतना बच्चों का खेल नहीं है। इस चुनाव की खास बात यह रही कि शरद पवार का खाता तक नहीं खुल पाया। शरद पवार के लिए इससे खराब बात और क्या होगी। सियासी दुनिया ऐसी ही होती है। कल तक जो लोग शरद पवार को सलाम करते थे, अजित के ताकतवर होते ही उन्हें सलाम करने लगें। (‘अजित की जीत के मायने’, 21 जुलाई।)

एम.के. कुलकर्णी | पुणे, महाराष्ट्र

एक और अंतरिक्ष उपलब्धि

‘41 साल बाद ऊंची छलांग’, 21 जुलाई के अंक में अच्छा लेख है। शुभांशु शुक्ला की यह उपलब्धि वाकई गर्व करने लायक है। वे अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन की यात्रा करने वाले पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री बन गए हैं, यह इसी लेख से पता चला। अभी तक हम भारतवासी सिर्फ राकेश शर्मा का नाम ही गर्व से लेते थे। अब हमारे लिए एक और नाम शुभांशु शुक्ला आ गया है। इस उपलब्धि को बड़ा इसलिए माना जाना चाहिए कि लखनऊ ठेठ हिंदी बेल्ट माना जाता है। अगर इस क्षेत्र से निकल कर कोई यह उपलब्धि हासिल करता है, तो इससे हिंदी क्षेत्र में रहने वाले लोगों में अलग तरह का आत्मविश्वास आता है। यह जानकर खुशी हुई कि उनके स्कूल ने इस अवसर पर एक कार्यक्रम आयोजित किया था। शुक्ला अंतरिक्ष से सुरक्षित वापस आएं और अपने अनुभव बताएं इसका सभी को इंतजार रहेगा।

सारा प्रभाकर | कानपुर, उत्तर प्रदेश

बिहार चुनाव

आउटलुक के 7 जुलाई के अंक में, ‘चुनावी वजूद के गहरे सवाल’ राजनैतिक समीक्षावादी लेख था। भारत में राजनैतिक दलों का सबसे बड़ा सरोकार चुनाव और उसकी जीत से होता है। देश के अंदर दो-तीन साल में कई महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके बाद लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो जाएगी। विधानसभा चुनावों का सबसे पहला बिगुल अक्टूबर-नवंबर में बिहार में बजने वाला है। बिहार के चुनाव परिणाम सिर्फ बिहार पर ही नहीं, देश की राजनीति पर भी गहरा प्रभाव डालेंगे। हाल ही में देश में घटित कुछ घटनाएं (ऑपरेशन सिंदूर, जाति जनगणना) बिहार के चुनाव पर कुछ बड़ा प्रभाव डाल सकती हैं। अभी जो हालात हैं, उन्हें देख कर तो लग रहा है कि बिहार में एनडीए को इस बार जीत के लिए एडी चोटी का जोर लगाना पड़ेगा। बिहार के मुख्यमंत्री और एनडीए का सबसे बड़ा चेहरा नीतीश कुमार की छवि कुछ वर्षों में धूमिल हुई है। प्रशांत किशोर अपनी सुराज पार्टी के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं। संभव है कुछ विधानसभा सीटों पर वे कब्जा कर लें। दूसरी तरफ राजद के तेजस्वी यादव हैं, जो अपने गठबंधन के साथ सामाजिक संरचना (दलित, यादव, मुस्लिम) को भांपते हुए पहले की तुलना में अपनी स्थिति और अधिक मजबूत कर सकते हैं। बिहार के अंदर, जो सामाजिक ढांचा है उसका पूरा फायदा वहां की प्रमुख विपक्षी पार्टी (राजद) उठाने की कोशिश करेगी। बिहार का चुनाव से पहले देश की रणनीति में कई सामाजिक और राजनैतिक बदलाव आ सकते हैं, एक बार चुनावों की तारीख आ जाए, तो पता चले कि बिहार की हवा में किसका नाम बह रहा है। इस बीच नए वोटर लिस्ट का भी मामला है।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

 

टूटी दोस्ती

आउटलुक के 7 जुलाई के अंक में, ‘ट्रम्प-मस्क यारी खत्म?’ दोनों की नौटंकी पर बहुत अच्छा लेख है। इससे विश्व में अमेरिका की भद ही पिट रही है। सब जानते हैं कि अरबपति एलॉन मस्क ने अपने व्यापारिक हितों के लिए डोनॉल्ड ट्रम्प की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। न ट्रम्प की विश्वसनीयता है न ही मस्क की। इसलिए जब दोनों की दोस्ती खत्म होने की खबर आई, तो बहुत आश्चर्य नहीं हुआ। एलॉन मस्क ने राष्ट्रपति का बेहद करीबी ‘दिख’ कर व्यापार में बहुत फायदा लिया। उनकी वजह से एलॉन अमेरिकी राष्ट्रपति के बाद दूसरा बड़े ताकतवर व्यक्ति के रूप में सामने आए। राष्ट्रपति ट्रम्प भी बिना एलॉन मस्क से चर्चा किए कोई निर्णय नहीं लेते थे। इसलिए शायद एलॉन मस्क को यह भ्रम हो गया कि वे राष्ट्रपति ट्रम्प को रिमोट कंट्रोल से चला पाएंगे। लेकिन ट्रम्प उनसे ज्यादा घाघ हैं। वह सिर्फ नेता ही नहीं अलग किस्म के व्यापारी भी हैं। उन्हें अपना माल बेचना बखूबी आता है। एलॉन यदि यह न समझ पाए, तो यह उनकी बड़ी भूल थी।

अरविन्द रावल | झाबुआ, मध्य प्रदेश

काला अध्याय

7 जुलाई के अंक में, ‘बीस महीनों के सबक’, आपातकाल पर अच्छा लेख है। इंदिरा गांधी ने सत्ता बचाने के लिए 19 महिनों तक लोकतंत्र दमनकारी नीति का प्रयोग किया। इतिहास में हुई इस गलती पर युवा पीढ़ी को जानने की आवश्यकता है। राजनैतिक अस्थिरता को संविधान सम्मत बताने के प्रयास कभी सही नहीं माने जाने चाहिए। इस विषय पर संवाद आवश्यक है। आपातकाल के कारणों और परिस्थितियों का आकलन करना चाहिए।

इंदु मणि | राजसमंद, राजस्थान

पुरस्कृत पत्र: भरोसे की भाषा

हाल के दिनों में देखने में आ रहा है कि भाषा को लेकर हर जगह विवाद बढ़ता जा रहा है। पहले यह विवाद बस दक्षिण भारत में ही दिखाई देता था। अब यह विवाद पूरे भारत में फैल गया है। अब यह विवाद कश्मीर तक पहुंच गया है, यह चिंताजनक है। जहां तक सरकारी कामकाज की बात है, वहां हिंदी का ही इस्तेमाल होना चाहिए। हिंदी कामकाज की भाषा तो है ही इससे किसी को इनकार नहीं होना चाहिए। वहां के लोगों को यह बिलकुल नहीं सोचना चाहिए कि यह स्थानीय उर्दू और कश्मीरी भाषा की उपेक्षा है। वहां की पार्टियां राजनीति खेल रही हैं, यह तो सच है लेकिन इस राजनीति में भाषा का नुकसान नहीं होना चाहिए। एक दूसरे पर जो भरोसा होता है, वह भाषा से कई गुना जरूरी है। (भाषा पर घमासान, 21 जुलाई 2025)

नीरजा मंडलोई | बीकानेर, राजस्थान

 

 

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