हाथी और ड्रैगन की दोस्ती
15 सितंबर के अंक में, ‘नई धुरी की ताकतवर तिकड़ी’ 21वीं सदी के नए रुझानों को दर्शाती है। भारत-चीन ने एससीओ के बहाने सीमा मुद्दे के निष्पक्ष, उचित और पारस्परिक सहयोग से समाधान की दिशा में जो सहमति जताई है वह न केवल दूरदर्शी बल्कि स्वागत योग्य और समयानुकूल कदम है। यूरेशिया की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाएं- चीन, भारत और रूस ने व्यापार के लिए किसी वैकल्पिक व्यवस्था का ऐलान करती हैं, तो वह न सिर्फ ताकतवर अमेरिकी डॉलर का विकल्प बनेगी बल्कि ट्रम्प की टैरिफ धौंसपट्टी का भी करारा जवाब होगी। द्विपक्षीय व्यापार और निवेश के साथ हाथी (भारत) और ड्रैगन (चीन) को साथ मिलकर जश्न मनाने की बात चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कही है। यह पुरानी दोस्ती, हिंदी-चीनी भाई-भाई के नए संस्करण की शुरुआत है। निस्संदेह यह मिसाल बनेगी।
डॉ. हर्षवर्द्धन कुमार | पटना, बिहार
नई राहें
15 सितंबर के अंक में, ‘नई धुरी की ताकतवर तिकड़ी’ राजनैतिक समीक्षावादी विश्लेषण है। पहले दुनिया राजनैतिक रूप से दो ध्रुवीय व्यवस्था (शीतयुद्ध) के आधार पर सोवियत संघ और अमेरिका में बंटी हुई थी। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के टैरिफ बम फोड़ने से दुनिया फिर से आर्थिक रूप दो भागों में बंटी हुई नजर आ रही है। एक तरफ अमरीका और यूरोपीय देश तथा दूसरी तरफ रूस, चीन, भारत तथा ब्राजील जैसे देश हैं। अगर भारत जैसा देश में टैरिफ बम का जवाब देने लिए रूस और चीन की तरफ झुकता है, तो सिर्फ विश्व आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि राजनय (क्वाड) में भी बदलाव देखने को मिलेगा। अगर रूस, चीन, भारत की धुरी तैयार होती है, तो कहीं न कहीं अमेरिका की विश्व राजनीति के वर्चस्व को धक्का लग सकता हैं। इससे डॉलर को भी नुकसान पहुंचेगा। विश्व राजनीति में भारत की भूमिका सिर्फ राजनैतिक क्षेत्र में नहीं बल्कि आर्थिक क्षेत्र में भी नकारी नहीं जा सकेगी।
विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली
नैतिक जिम्मेदारी
15 सितंबर का अंक बहुत अच्छा लगा। खासकर ‘महज फसाना मकसद’ अच्छा था। लेख पढ़कर लगा कि आखिर क्यों संविधान में संशोधन की जरूरत महसूस हुई। ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय राजनीति में कई नेताओं का आचरण पिछले दशक की तुलना में निचले स्तर पर आ चुका है। संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि गंभीर अपराधों के आरोपी मंत्री, मुख्यमंत्री जेल जाने के बाद भी बेशर्मी से कुर्सी से चिपके रहेंगे और सलाखों के पीछे से सरकार चलाएंगे। जेल विभिन्न श्रेणी के पुलिस पदाधिकारियों के अधीन होता है। जब कोई नेता जेल में होते हुए मंत्रीपद पर बना रहता है और जेल के अंदर से सरकार चलाता है, तब वह किस नैतिक आधार पर अधिकारियों का मार्गदर्शन सकता है। क्या वे उस आरोपी मंत्री या मुख्यमंत्री का सम्मान कर पाएंगे। उस स्थिति में कार्यपालिका का पंगु होना स्वाभाविक है। चुनी हुई सरकार का मूल उद्देश्य जनसेवा है। उसमें किसी प्रकार की बाधा आए, तो उसे दूर करना आवश्यक है।
शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश
शोर के सिवा कुछ नहीं
आउटलुक के 15 सितंबर अंक में, ‘बिहार का सवाल’ पढ़ा। लगातार तीन आम चुनावों में पस्त विपक्ष के पास सत्ता के लिए अपनी दावेदारी के लिए कई मुद्दे हो सकते हैं। सार्वजनिक आम चुनाव की खुली प्रक्रिया को ही झूठ बताने वाले, सप्रमाण शपथ पत्र देकर सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने का नैतिक साहस क्यों नहीं करते? पिछले ग्यारह साल में विपक्ष किसी राष्ट्रीय मुद्दे की लड़ाई नहीं लड़ सका है। अपने आप में यही समग्रता में भाजपा की वैचारिक जीत है। गरीबी से निजात पाने के लिए बिहार किसी उद्धारक को तलाश रहा है, क्रांतिकारी को नहीं। यह बात विपक्षियों को समझना होगी। विपक्ष के पास जब मुद्दे ही नहीं हैं, तो वह शोर के सिवा और क्या कर सकता है।
अरविंद पुरोहित | रतलाम, मध्य प्रदेश
व्यावहारिकता से निकले हल
आउटलुक के 15 सितंबर अंक में सड़क के आवारा कुत्तों की समस्या पर लेख पढ़ा। आवारा कुत्तों के कारण सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। सिर्फ शहर ही नहीं गांवों में भी आवारा कुत्तों की समस्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। सिर्फ नसबंदी कर देना इस समस्या का हल नहीं है। नसबंदी के बाद ये कुत्ते फिर उन्हीं मोहल्लों या सोसायटी में वापस आ जाते हैं। इससे समस्या जस की तस रहती है। आक्रामक कुत्ते बच्चों को काट रहे हैं, बुजुर्गों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इसलिए बेहतर है कि उन्हें हमेशा के लिए शेल्टर होम में ही ले जाया जाए। कायदे से तो रिहाइशी क्षेत्रों में आवारा कुत्ते रहना ही नहीं चाहिए। जिन्हें उनसे प्रेम है, उन्हें ऐसे कुत्तों को गोद लेकर अपने घर में रखना चाहिए। सरकार को इस तरह का नियम ही बना देना चाहिए। वरना आम जनता इन कटखने कुत्तों के भय से तो त्रस्त रहती ही है, इन कुत्तों को प्रेम करने वालों से भी परेशान होती रहती है। ऐसे कुत्तों को भगाने पर पशु प्रेमी व्यक्ति या संगठन आम लोगों पर केस करने की धमकी देते हैं। आवारा कुत्तों का हल केंद्र और राज्य सरकारों को स्थानीय निकायों के साथ मिलकर खोजना होगा। संवेदनशीलता और व्यावहारिकता के साथ ही इस समस्या को हल निकलेगा।
रूबी चतुर्वेदी | जयपुर, राजस्थान
जनसंख्या नियंत्रण जरूरी
15 सितंबर के अंक में, ‘आवारा समस्या’ लेख इस समस्या पर नई रोशनी डालता है। अदालत को अपना फैसला पलटना पड़ा, यह खुशी की बात है। दरअसल पशुओं को बहुत करुणा से देखने की जरूरत है। खासकर कुत्तों को। कुत्ते हमेशा से ही समाज का हिस्सा रहे हैं। इसलिए इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि आखिर कैसे उनकी संख्या इतनी बढ़ रही है और ये क्यों इतने आक्रमक हो रहे हैं। इसके लिए बहुत हद तक पशु कल्याण कार्यकर्ता, पशु प्रेमी भी दोषी हैं। पहले घर के बाहर के कुत्तों को बचा हुआ खाना दे दिया जाता था। लेकिन पशु प्रेमियों ने कुत्ते के लिए बनने वाले विशेष भोजन, चिकन, मटन की ऐसी आदत डाल ली है कि अब वे सामान्य खाना नहीं खा पाते। बिस्किट जैसी चीजें उनके लिए थीं ही नहीं लेकिन यह भी उन्हें दी जाने लगीं। इससे अक्सर वे भूखे रह जाते हैं और भूख उन्हें आक्रमक कर देती है। यह सही है कि डॉग शेल्टर में उन्हें रखना कोई ठोस उपाय नहीं है। यह भी सवाल है कि रेबीज संक्रमित कुत्तों की पहचान आसान नहीं। तब किस आधार पर अदालत ने कहा कि इन्हें अलग रखा जाएगा। आवारा कुत्तों को सड़कों पर पूरी तरह से हटाने की पैरवी करना अपने आप में ऐसी मांग है, जो कभी पूरी नहीं की जा सकेगी। इसलिए जरूरी है कि इनकी जनसंख्या नियंत्रण पर काम किया जाए और सामान्य खाना खाने को दिया जाए।
वर्षा त्यागी | मेरठ, उत्तर प्रदेश
शानदार जीत
आउटलुक के 15 सितंबर के अंक में, ‘स्त्री दावेदारी से हड़कंप’ पुरुष वर्चस्व की पोल खोलता है। मलयालम मूवी आर्टिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष पद के लिए पर्चा भरने के तुरंत बाद इस पद के लिए चुनाव लड़ने वाली श्वेता मेनन के खिलाफ जो कुछ किया गया वह निंदनीय है। लेकिन इस सबके बावजूद भी क्या हुआ, श्वेता आखिरकार चुनाव जीत ही गईं। इसका मतलब साफ है कि यदि महिलाएं एकजुट हो जाएं, तो उन्हें कोई नहीं हरा सकता। श्वेता के प्रति जन-समर्थन बढ़ता गया और नतीजा सबके सामने है। मलयालम सिने उद्योग को इस तरह पहली महिला अध्यक्ष मिल ही गई। अब श्वेता मेनन को चाहिए कि वे इस जीत को ऐतिहासिक बदलाव से अमर कर दें। उन्हें जूनियर आर्टिस्ट से लेकर शीर्ष महिला कलाकारों तक, सबके लिए काम करना चाहिए। उन्हें जिताने वाले हर व्यक्ति को लगना चाहिए कि श्वेता उनकी आवाज हैं। इस जीत के मायने बहुत बड़े हैं।
सुरेखा अहिरवार | जींद, हरियाणा
कठघरे में आयोग
आउटलुक के 1 सितंबर अंक में, ‘मुद्दा आयोग’ लेख चुनाव आयोग की मौजूदा स्थिति बताता है। 7 अगस्त को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर राहुल गांधी ने वोट चोरी का एटम बम फोड़कर, चुनाव आयोग पर आरोप लगाया था, वहीं भाजपा के नेता अनुराग ठाकुर ने छह लोकसभा क्षेत्र के आंकड़े प्रस्तुत कर, विपक्ष को घेरने की कोशिश की। लेकिन इस ऊहापोह में वे यह भूल गए कि राहुल गांधी, जिस वोट चोरी की बात कह रहे हैं, वही बात भाजपा नेता भी कह रहे हैं। इस आरोप-प्रत्यारोप के घेरे में चुनाव आयोग ही आ रहा है। उल्टे भाजपा ने राहुल गांधी के आरोपों की तस्दीक कर दी की, जी हां, वोट चोरी हुई है। साफ जाहिर होता है कि आयोग निष्पक्षता की बजाय पक्षपाती रूप से काम कर रहा है। आयोग को अपनी निष्कलंक छवि के लिए पारदर्शिता और निष्पक्षता से काम करना चाहिए।
हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश
पुरस्कृत पत्रः पूरे भारत की कहानी
15 सितंबर के अंक में, मलयालम फिल्म उद्योग की बखिया उधेड़ता आलेख, ‘स्त्री दावेदारी से हड़कंप’ अनकहा भी बहुत कुछ कहता है। यह बात सिर्फ वहां की नहीं पूरे भारत की है। महिलाएं पुरुषों की हरकतों से डरती हैं, पुरुष महिलाओं की दृढ़ इच्छा शक्ति से डरते हैं। महिलाएं यदि ठान लें, तो वे पुरुषों की हर चुनौती का जवाब दे सकती हैं। श्वेता मेनन की जीत किसी संस्था के अध्यक्ष पद की जीत नहीं है। यह समूची व्यवस्था पर स्त्री अस्मिता की जीत है। जिस तरह मलयालम फिल्म उद्योग की महिलाएं आगे आईं, उसी तरह सभी क्षेत्रों की महिलाओं को आगे आकर अपनी बात रखनी चाहिए। पता नहीं मुंबई फिल्म उद्योग, पत्रकारिता, कॉरपोरेट और राजनीति की महिलाएं कब इतनी बहादुर होंगी और मुखर हो कर यहां काबिज पितृसत्ता को चुनौती देंगी।
निष्ठा कनौजिया|लखनऊ, उत्तर प्रदेश