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पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

भयावह तस्वीर

29 सितंबर के अंक की तस्वीर, ‘बादल रौद्र राग’ बारिश की त्रासदी की कहानी कहती है। यह तस्वीर ही अपने आप में संपूर्ण है। इसके बाद कुछ और पढ़ने या समझने को बाकी नहीं रह जाता। जब आवरण पर नजर गई, तो एक क्षण के लिए लगा सब ठहर गया है। ये हम कहां से कहां आ पहुंचे हैं। हमें न अपनी फिक्र है, न अपने आसपास के वातावरण की। जो त्रासदी इस तस्वीर में दिख रही है, उससे लगता है कि मनुष्य प्रजाति ने पूरी कोशिश की है कि पृथ्वी नष्ट हो जाए। इस तस्वीर में दिख रही तबाही ने कई घंटे निःशब्द रखा। दुर्गम तीर्थयात्राओं को भी मनोरंजन और रील्स बनाने का ठिकाना बना लिया है। भीड़ को नियंत्रित करने के बजाय हम उस भीड़ को सुविधा देने की खातिर प्रकृति से छोड़छाड़ कर रहे हैं।   

नीरजा नाफड़े | इंदौर, मध्य प्रदेश

 

बाढ़ की विभिषिका

29 सितंबर के अंक में बाढ़ की विभिषिका के बारे में पढ़ा। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और असम सभी जगह पानी ने गजब ढा दिया है। उत्तराखंड का धराली हो या जम्मू-कश्मीर का किश्तवाड़, अचानक तेज बारिश ने सैकड़ों जिंदगियां लील ली है। हिमाचल प्रदेश की कहानी और भी बुरी है। चंबा से लेकर मनाली तक हिमाचल प्रदेश इस बार भीषण मानसूनी तबाही का सामना कर रहा है। आखिर यह हो क्या रहा है। सबकी समझ से बाहर की बात है। सड़क से लेकर ट्रेन तक यातायात का हर साधन ठप पड़ा हुआ है। सिक्किम, असम और अरुणाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्यों में भी यही हाल है।

के.के. शर्मा | बनारस, उत्तर प्रदेश

 

ढाक के तीन पात

आउटलुक के 29 सितंबर के अंक में, ‘आपदा की जबावदेही तय करना जरूरी’ पूरी आवरण कथा का निचोड़ है। इस लेख में बिलकुल सच लिखा है कि ‘‘बाढ़ ‘अप्रत्याशित प्राकृतिक त्रासदी’ नहीं, गलत फैसलों, लापरवाह नीतियों और ढीली जवाबदेही का नतीजा है।’’ यह बिलकुल सच है कि भारत में आने वाली हर आपदा पर बाद में सिर्फ हाथ झाड़ लिए जाते हैं। किसी की कभी कोई जवाबदेही तय नहीं की जाती है। कायदे से तो बाढ़ के लिए पहले से तैयारी की जानी चाहिए। हर साल बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात परेश्‍ाानी झेलते हैं लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहता है। जब भी किसी राज्य में बाढ़ की समस्या सामने आती है, तो कुछ दिनों के लिए वहां राहत सामग्री पहुंचाई जाती है, लोगों की जान-माल का नुकसान होता है और फिर सब पहले की तरह हो जाता है।

मालती सिंह | बहादुरगढ़, हरियाणा

 

पानी का बदला

29 सितंबर के अंक में, बाढ़ विभिषिका के बारे में पढ़ा। हमारे यहां समस्या यह है कि एक बार कोई त्रासदी हुई, उसके बाद सब भूल जाते हैं। अगले साल फिर वही कहानी दोहराई जाती है। जलवायु परिवर्तन की वजह से बारिश के पैटर्न बदलने की भी अलग ही कहानी है। यह समझना होगा कि यह आपदा आने की अकेली वजह जलवायु परिवर्तन नहीं है। नदियों के कैचमेंट एरिया की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। पहले बारिश के पानी को जंगल, घास के मैदान, वेटलैंड और तालाब रोक लेते थे। पानी को जमीन में रिसने का मौका मिलता था फिर यह पानी धीरे-धीरे नदी तक पहुंचता था। अब ऐसा नहीं हो पाता क्योंकि कैचमेंट एरिया हमने लगभग खत्म ही कर दिया है। अगर हम अब भी नहीं चेते तो हालात बदतर होते जाएंगे।

प्रणीता भंडारी | बीकानेर, राजस्थान

 

रोकी जा सकती है आपदा

29 सितंबर के अंक में, ‘आपदा की जबावदेही तय करना जरूरी’ सबसे जरूरी लेख है। बारिश के दिनों में ‘बादल फट गए’, सामान्य रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला वाक्य है। इस पर कोई बात नहीं करता कि दरअसल बादल फटना होता क्या है। भारत में भारी बारिश को अक्सर ‘बादल फट गए’ कह कर टाल दिया जाता है। सच्चाई यह है कि इसका सटीक डेटा हमारे पास है ही नहीं। बादल फटने का पूर्वानुमान लगाना भी कठिन होता है क्योंकि यह बहुत छोटे इलाके में बेहद तेज बारिश के रूप में होता है और मौसम विभाग के पारंपरिक राडार और उपग्रह इसे पकड़ नहीं पाते हैं। अगर इस पर काम किया जाए तो ऐसी स्थिति को रोका जा सकता है। जरूरत है तो इच्छाशक्ति के साथ सचेत रहने की।

वीरेन्द्र खटीक | ग्वालियर, मध्य प्रदेश

 

प्रकृति का कहर

29 सितंबर के अंक में, ‘विकास के नाम तबाही न बुलाइए’ विकास की नई परिभाषा को बताता है। लेख में सही लिखा है कि ‘विकास टिकाऊ और समावेशी होना चाहिए’ लेकिन ऐसी बात सब समझते कहां हैं। यह सच है कि विकास पहाड़ों की अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिए किया जा रहा है लेकिन जब लोग ही नहीं रहेंगे, तो ऐसी अर्थव्यवस्था का क्या करेंगे। विकास के नाम पर लोगों की जान पर नहीं बन आनी चाहिए। अति संवेदनशील क्षेत्रों में पहले अध्ययन करना चाहिए फिर ही वहां कोई निर्माण कार्य होना चाहिए। यह समझदारी बरती जाएगी, तो न पहाड़ पर संकट आएगा, न पहाड़ पर रहने वालों पर। बाढ़ के बारे में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यह आपदा सिर्फ पहाड़ों पर नहीं आ रही, बल्कि शहरी क्षेत्र भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। हर साल बड़े मैदानी इलाकों बाढ़ से प्रभावित होते हैं, सैकड़ों किसानों के खेत डूब जाते हैं, फसलें बर्बाद होती हैं। लेकिन इससे न शहर वाले समझते हैं न ग्रामीण इलाकों में रहने वाले। आर्थिक नुकसान की तो क्या कहें। जिस तरह दिल्ली और गुरुग्राम पानी-पानी हो गए, उससे ही समझ में आ जाता है कि शहरों में भी बाढ़ प्रबंधन बहुत खराब है। किसी को इसे ठीक करने की परवाह भी नहीं है। सबको सुविधा और मनोरंजन का साधन चाहिए। मॉल चाहिए, सुकून नहीं। बिल्डिंगें चाहिए खाली जमीन नहीं। जब हम ही खुद के लिए नहीं सोच रहे, तब प्रकृति पर दोष क्यों लगाएं।

नारायण स्वामी | मेरठ, उत्तर प्रदेश

 

सदाबहार नग्मे

गुरु दत्त निस्‍संदेह अलग तरह के फिल्मकार थे। उनकी फिल्मों के गानों ने एक तरह का जादू जगाया। हर गाने के लिए वे अलग तरह की पृष्ठभूमि का उपयोग करते थे। ‘ये लो मैं हारी पिया’ का फिल्मांकन इतना खूबसूरत हुआ है कि इसके एक-एक शब्द पर मधुबाला की अदाएं देखने लायक होती हैं। जाहिर सी बात है, गीतकार साहिर लुधियानवी ने भी अपने शब्दों से जादू रचा, मगर गुरु दत्त की कल्पना ने इस गाने को अलग ही रूप दिया। लाइटिंग, तकनीक और कैमरा मूवमेंट हर बात बहुत संतुलित थी। यह काम गुरु दत्त ही कर सकते थे। आज इतने साल बाद भी ‘वक्त ने किया क्या हसीन सितम’ गाना सुनने में जितना सुकून देता है, देखने में भी दिल पर छा जाता है। (‘गीत जो बन गए मोती’, 29 सितंबर)

परवीन चावला | बेंगलूरू, कर्नाटक

 

बातचीत खत्म हो

15 सितंबर के अंक में, ‘नई धुरी की ताकतवर तिकड़ी’ पढ़ा। शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की 25वीं राष्ट्राध्यक्ष परिषद बैठक ऐतिहासिक साबित हुई है। इस बैठक में मंच से ट्रम्प को सीधा संदेश गया कि मोदी-पुतिन और जिनपिंग साथ आ रहे हैं। यह वैश्विक राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव की तरह है। चीन ने शायद महसूस कर लिया है कि भारत को अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह भारत की कूटनीतिक शक्ति की जीत है। हालांकि रूस ने हमेशा से ही भारत का साथ दिया है, चाहे मुद्दा कोई भी हो। हालांकि आने वाले समय में हमें चीन का यह दोस्ताना व्यवहार परखना होगा। ऐसा नहीं है कि भारत और अमेरिका के रिश्ते समाप्त हो गए हैं, या उनमें सुधार नहीं हो सकता। भारत चीन के साथ भी सावधानी बरतनी चाहिए। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि चीन हमेशा से व्यापर के मुद्दे को बॉर्डर मसलों से दूर रखना चाहता है। हमें अमेरिका के साथ बातचीत खत्म नहीं करना चाहिए और अन्य देशों के साथ भी ट्रेड डील करनी चाहिए ताकि हमारे निर्यातकों के पास ज्यादा से ज्यादा विकल्प मौजूद रहें। 

बाल गोविंद | नोएडा, उत्तर प्रदेश

 

छुपा रुस्तम

15 सितंबर के अंक में, प्रथम दृष्टि के तहत ‘बिहार का सवाल’ में बहुत ही जरूरी बातें उठाई गई हैं। इस बार चुनाव में लग नहीं रहा कि किसी को भी स्पष्ट बहुमत आएगा। सभी को राहुल और तेजस्वी पर भरोसा है, लेकिन इस स्तंभ में प्रशांत किशोर की बात की गई है। सच तो यह है कि वाकई सभी लोग प्रशांत किशोर को कमजोर खिलाड़ी समझ रहे हैं। लेकिन वे गेमचेंजर साबित हो सकते हैं। थोड़ा बहुत हुआ, तो तेजस्वी उनका मुकाबला कर पाएंगे, लेकिन राहुल से तो किसी तरह की उम्मीद नहीं है। वैसे भाजपा को अभी से प्रशांत किशोर को साध लेना चाहिए। 

 प्रेम उपाध्याय | बड़वाह, मध्य प्रदेश

 

पुरस्कृत पत्र: कितना बोझ सहेंगे

आउटलुक हमेशा से ही हर जरूरी मुद्दे पर लिखता रहा है। 29 सितंबर की आवरण कथा, ‘बादल रौद्र राग’ हर जगह आने वाली बाढ़ की त्रासदी को दिखाती है। विकास के नाम पर कच्चे पहाड़ों पर होटल, मकान बनाना किसी भी कीमत पर समझदारी नहीं कही जा सकती है। पिछले कुछ साल से पहाड़ों पर पर्यटन बढ़ा है और निश्चित तौर पर लोगों के आने का बोझ पहाड़ों पर पड़ रहा है। इसके साथ ही वहां सड़कें बनाना, उन जगहों को हाइवे से जोड़ना भी स्थानीय लोगों के लिए मुसीबत साबित हो रहा है। हर साल बारिश में लाखों लोगों को बेघर होना पड़ता है। हर राज्य सरकार को चाहिए कि इस मामले का स्थायी समाधान खोजा जाए। लोगों को अस्थायी रूप से किसी शेल्टर होम में रखना गलत है।

कृष्ण हरिहर|नासिक, महाराष्ट्र

 

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