नए को मिले मौका
इस समय देश भर की सारी निगाहें बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव पर टिकी हुई हैं। पिछले तीस-पैंतीस साल में बिहार का जैसा विकास होना था वह नहीं हुआ। कुछ स्वार्थी नेताओं ने बिहार को जात-पांत और ऊंच-नीच की राजनीति में बांट दिया। यही कारण रहा कि बिहार देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शामिल हो गया। धीरे-धीरे यह राज्य गुंडागर्दी, हत्याओं, अपहरण और डकैती का पर्याय बन गया। लेकिन अब धीरे-धीरे राज्य पटरी पर आ रहा है। मौजूदा चुनाव राज्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जरूरत है नीतीश-लालू जैसे नेताओं को हटा कर किसी नई पार्टी को मौका दिया जाए। बिहार के लोगों की यह कोशिश ही राज्य में खुशहाली ला सकेगी। पुरानी पार्टियां अभी भी बिहार के विकास के बजाय अपनी शर्तों पर क्षेत्रीय दलों के साथ सत्ता सूत्र अपने हाथ में रखना चाहती हैं। (10 नवंबर, ‘वर्चस्व बचाने की जद्दोजहद’)
अरविंद रावल | झाबुआ, मध्य प्रदेश
सूझबूझ से वोट
आउटलुक के 10 नवंबर अंक में, आवरण कथा ‘वर्चस्व बचाने की जद्दोजहद’ पढ़कर लगा कि रोटी और रोजगार की नारेबारी करने वाले नेता चुनाव जीतने के बाद इस दिशा में क्या कोई सार्थक कदम उठा सकेंगे, या इस बार भी बिहार के नौजवानों को नाउम्मीदी ही हाथ लगेगी। इस बार मतदाताओं को सूझबूझ से मतदान करना होगा। इसी अंक में, आरएसएस पर प्रकाशित लेख, ‘तलाश करने हैं कई सवालों के जवाब’ अच्छा लगा। लेकिन इस मौके पर जो सिक्का जारी किया गया है उसकी कीमत बहुत ज्यादा है।
शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश
बनेगा कारवां
10 नवंबर के अंक में, ‘वजूद की जंग में सब अकेले’, बिहार के चुनावी परिदृश्य का बहुत अच्छा खाका खींचती है। इस लेख में सही लिखा है कि मंडल-कमंडल की राजनीति के दौर का शायद यह पहला चुनाव है, जिसमें मुद्दों पर बात हो रही है। बिहार की दिक्कत यही रही है कि वहां चुनाव से पहले कभी मुद्दों की किसी ने बात नहीं की। नेता तो ऐसा करना नहीं चाहते थे, मतदाताओं को भी इसकी कोई फिक्र नहीं थी। इसका पूरा श्रेय प्रशांत किशोर को दिया जाए, तो गलत नहीं होगा। शायद यह पहली बार है कि कोई व्यक्ति बिहार जैसी जगह में कुछ सुधार लाने के बारे में सोच रहा है और इस पर बात कर रहा है। हालांकि वह भी इस लड़ाई में अकेले ही दिख रहे हैं। लेकिन सच्ची जंग में पहले भले ही लोग खड़े दिखाई न दें, लेकिन बाद में कारवां बन ही जाता है।
सुधांशु कुमार | पटना, बिहार
रुके पलायन
बिहार चुनाव सिर पर हैं। उससे पहले आउटलुक ने 10 नवंबर के अंक में, ‘वजूद की जंग में सब अकेले’ लेख देकर वहां की पृष्ठभूमि को बहुत अच्छे ढंग से समझाया है। इस बार चुनाव में जागरूकता दिखाई दे रही है। चुनाव जीतने के बाद कौन सी पार्टी क्या करती है, यह बाद का विषय है लेकिन अभी तो यह देख कर अच्छा लग रहा है कि लोग प्रशांत किशोर की बात कर रहे हैं, उनकी बात सुन रहे हैं। वरना पहले यह होता था कि जाति का नहीं है, तो तवज्जो नहीं। राजनीति में यह बदलाव सुखद है। अगर प्रशांत किशोर जीतते हैं और उनकी सरकार बनती है, तो उन्हें सबसे पहले बिहार वासियों के रोजी-रोटी के संकट को सुलझाना चाहिए। वहां रोजगार के अवसर होंगे, पलायन अपने आप रुकेगा। एक और बात जिस पर कम लोग ध्यान दे रहे हैं। रोजगार तो अभी भी है लेकिन लोग बिहार में काम इसलिए नहीं करना चाहते कि यहां हद दर्जे की गुंडई है। दबंग गरीबों का जीना मुहाल किए रहते हैं। इसलिए लोग दूसरी जगह चले जाते हैं ताकि सुकून से रोटी खा सकें। अगर कानून व्यवस्था नहीं सुधरी, तो बिहार का पलायन कभी नहीं रुकेगा।
संगीता भारद्वाज | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
रूढ़ छवियों को तोड़ा
10 नवंबर के अंक में, ‘दृढ़, शांत और अमिट रेखा’, उनके फिल्मी जीवन के बहुत से पहलुओं को उजागर करता है। रेखा आज भी अपने आसपास रहस्यमयी वातावरण बनाए हुए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि वे हिंदी सिनेमा की सबसे लोकप्रिय अभिनेत्री रह चुकी हैं। परदे पर उनकी उपस्थिति ही इतनी मजबूत होती थी कि उनके किरदार खुद खुलते चलते थे। वे फिल्म में कभी भी महज शो पीस की तरह नहीं रहीं। उन्होंने अपने किरदारों को हमेशा मानवीय भावनाओं के करीब रखा। रेखा की फिल्मोग्राफी बताती है कि अभिनेत्रियां लीक पर चलना छोड़ दें, तो वे उन रूढ़ छवियों को भी तोड़ पाएंगी, जिसके बारे में लिखा जाता है कि अभिनेत्रियां वर्सेटाइल नहीं होतीं। रेखा ने इस बात को गलत साबित किया है। उन्होंने खुद को बहने दिया, इस वजह से ही उन्हें किसी खांचे में बांधना असंभव है। रेखा ने परदे पर तवायफ के कई रंगों से लेकर पारंपरिक, आदर्श गृहिणी तक हर रूप जिया। रेखा को किसी एक श्रेणी में रखना संभव नहीं, वे अपने समय से आगे रही हैं।
कीर्ति मधुकर | मुंबई, महाराष्ट्र
संवेदनशील अभिनेत्री
रेखा पर लेख उनकी अभिनय यात्रा और उनकी क्षमता दोनों को बहुत अच्छे से बयां करता है। सिलसिला और इजाजत उनकी महत्वपूर्ण फिल्में रही हैं। दोनों ही फिल्मों में उन्होंने जिस गंभीरता से अभिनय किया, वह किसी और अभिनेत्री के वश में नहीं था। उनकी खास बात यही है कि वे किसी एक रूप में बंध कर नहीं रहीं। उन्होंने ग्लैमरस रोल भी किए और पारंपरिक भी। उमराव जान में वे बिलकुल अपने किरदार में ढल गईं। निजी जिंदगी में भी वे बहुत गरिमा के साथ रहती हैं। अमिताभ बच्चन को लेकर उनके बारे में इतनी बातें की जाती हैं लेकिन उन्होंने कभी इस विषय पर कुछ नहीं कहा। आज भी जब वे किसी कार्यक्रम में दिखाई देती हैं, तो रेखा के सिवा किसी और को देखने का मन ही नहीं करता। उनकी खामोशी वाकई बहुत कुछ कहती है।
अमित बड़जात्या | अकोला, महाराष्ट्र
हिंदी की बदली दुनिया
अपनी रचनाधर्मिता के लिए प्रसिद्ध वरिष्ठ लेखक विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी इतने वर्षों बाद फिर चर्चा में आया, यह किसी भी लेखक के लिए सुखद है। आर्थिक रूप से विपन्न रहने वाले हिंदी के लेखकों के लिए यह महज सनसनीखेज घटना नहीं है, बल्कि संदेश है कि हिंदी की दुनिया के प्रकाशक ईमानदारी और पारदर्शिता से पेशेवर परिचय दें, तो न केवल लेखकों की रचनात्मकता सुरक्षित रहेगी बल्कि उन्हें स्थायी गरिमा भी मिलेगी। हकीकत के आईने में देखें तो हिंदी की दुनिया के पाठक (19 अक्टूबर, ‘एक कलम, दो बाजार’) हर दिन बढ़ रहे हैं। बस जरूरत है, तो पुस्तकों के इन तक पहुंचने की।
हर्ष वर्द्धन कुमार | पटना, बिहार
टूटा मिथक
आउटलुक ने हिंदी प्रकाशन की दुनिया में, साहित्य की रॉयल्टी लेकर जो सार्थक बहस चलाई वह काबिले तारीफ है। 19 अक्टूबर की आवरण कथा, ‘एक कलम, दो बाजार’ रॉयल्टी के हर पहलू पर बात करती है। हिंद युग्म प्रकाशन ने ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी के लिए तीस लाख रुपये की रायल्टी देकर हिंदी प्रकाशन जगत में धूम मचा दी है। लेकिन इससे हुआ यह कि हिंदी के लेखकों में यह भावना आ गई कि अब वे भी लेखन से जीवन यापन कर सकते हैं। इस कदम ने हिंदी साहित्य को अंग्रेजी साहित्य के समकक्ष ला खड़ा किया है। अभी तक रॉयल्टी के नाम पर हम अमीष त्रिपाठी, चेतन भगत आदि का नाम ही लेते थे। लेकिन अब गर्व से हम विनोद कुमार शुक्ल का नाम भी ले पाएंगे। हिंद युग्म प्रकाशन ने अन्य स्थापित प्रकाशकों के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। हिंद युग्म ने यह मिथक भी तोड़ा है कि हिंदी लेखक की पुस्तकें नहीं बिकती, जबकि चर्चित उपन्यास पेचीदा है।
यशवन्त पाल सिंह | वाराणसी, उत्तर प्रदेश
गौरवशाली क्षण
आउटलुक की 19 अक्टूबर की आवरण कथा, ‘एक कलम, दो बाजार’ पढ़कर काफी ज्ञानवर्धन हुआ। यह रोचक भी लगी। हिंदी साहित्य ने हमेशा हमारी संस्कृति, भावनाओं और सामाजिक यथार्थ को जीवंत रखा है। डिजिटल युग में भी उसके पाठक बढ़ रहे हैं। ब्लॉग, ई-बुक्स, डिजिटल पत्रिकाएं, साहित्यिक ऐप्स और सोशल मीडिया समूह इसके लोकप्रिय होने का संकेत देते हैं। हिंदी साहित्य का इतिहास गौरवशाली रहा है। ऐसे में दीवार में एक खिड़की रहती थी के लेखक विनोद शुक्ल को 30 लाख रुपये की रॉयल्टी मिलती है, तो यह हिंदी साहित्य के लिए वाकई गौरवशाली क्षण है। अंग्रेजी साहित्यकार वैश्विक पाठक वर्ग, मीडिया कवरेज और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के कारण अधिक रॉयल्टी अवसर पाते हैं।
विजय सिंह अधिकारी | नैनीताल, उत्तराखंड
पुरस्कृत पत्र: जाति कहीं नहीं जाती
10 नवंबर के अंक में, ‘वर्चस्व बचाने की जद्दोजहद’ बहुत अच्छा लेख है। यह बिहार की पूरी राजनीति को समझने के लिए जरूरी है। बिहार पूरे भारत में अलग तरह का प्रदेश है। यहां की जनता तरक्की, नौकरी, सुरक्षा के साथ-साथ अपनी जाति गोलबंदी बचाने के लिए वोट करती है। थोड़ा बहुत जाति फैक्टर तो हर प्रदेश में चलता है। लेकिन बिहार इस मामले में अनूठा है। अपने समुदाय को देख कर वोट करने से ही कई बार अच्छा उम्मीदवार पिछड़ जाता है और इस कदम से तरक्की भी पिछड़ती है। लेकिन जब सभी लोग जाति में बंटे होने को ही सामान्य मानने लगें, तो क्या किया जा सकता है। अपने खांचे में बंटे हुए लोग यह नहीं सोचते कि ऐसे लोग राजनीति में आएं, जो वाकई कुछ करना चाहते हैं। वरना बिहार जैसा है हमेशा वैसा ही रहेगा।
दीप्ति चौरसिया|लखनऊ, उत्तर प्रदेश