दोपहर के एक बजे गोरखपुर स्थित भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में अभिनेता से नेता बने रवि किशन का इंतजार हो रहा है। कार्यकर्ता अमन अपने साथी से पूछ रहे हैं कि रवि किशन भाजपा के प्रत्याशी हैं, लेकिन क्या वे यहां टिकेंगे? दूसरे साथी सुनील उन्हें टोकते हैं कि हम अनुशासित सिपाही हैं, पार्टी ने जिसे टिकट दिया है, उसे हम जिताएंगे। दोनों कार्यकर्ताओं के सवाल-जवाब से ही गोरखपुर की चुनावी तस्वीर साफ हो जाती है। दरअसल, पूरे गोरखपुर में कहीं भी जाइए, हर जबान पर यही सवाल है, योगी आदित्यनाथ के गढ़ में बाहरी उम्मीदवार की जरूरत क्यों पड़ी? करीब 19.50 लाख मतदाता वाली गोरखपुर संसदीय सीट इस समय देश की सबसे हॉट सीटों में से एक है।
असल में सपा-बसपा का गठबंधन संभव है और वह काम कर सकता है, इसका पहला प्रयोग समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने 2017 में गोरखपुर और फूलपुर के संसदीय उपचुनाव में ही किया था। तब गोरखपुर में गठबंधन के उम्मीदवार प्रवीण निषाद (अब भाजपा में शामिल) ने भाजपा के उम्मीदवार उपेंद्र शुक्ला को हराया था। भाजपा ने अपने गढ़ में गठबंधन में सेंध के मद्देनजर पूर्व मंत्री यमुना निषाद के बेटे अमरेंद्र और उनकी मां राजमती को पार्टी में शामिल करके संभालने की कोशिश की। लेकिन निषाद पार्टी से गठबंधन होते ही मात्र सवा महीने में एक बार फिर से अमरेंद्र और उनकी मां राजमती सपा में शामिल हो गईं। उनकी नाराजगी की वजह भाजपा और निषाद पार्टी का गठबंधन बन गया।
साफ है कि भाजपा और महागठबंधन दोनों निषाद वोट बैंक को साधने में लगे हुए हैं। इस गणित को देखते हुए भाजपा को उम्मीदवार तय करने में काफी माथापच्ची करनी पड़ी। पार्टी ने भोजपुरी स्टार रवि किशन शुक्ला को मैदान में उतार कर फिर ब्राह्मण कार्ड खेला है। अहम बात यह है कि पार्टी ने उपचुनाव में भाजपा को मात देने वाले प्रवीण निषाद को भाजपा में शामिल तो कर लिया लेकिन टिकट उन्हें गोरखपुर से नहीं, संत कबीर नगर से दिया। वरिष्ठ पत्रकार मनीष सामंत का कहना है, “योगी आदित्यनाथ के लखनऊ चले जाने के बाद से पार्टी में गुटबाजी बढ़ी है। भाजपा ने रवि किशन को टिकट देकर ब्राह्मण और ठाकुर के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की है। हालांकि इससे निषाद समीकरण जरूर बिगड़ गया है। क्षेत्र में करीब 3.5 लाख निषाद, 2-2 लाख यादव और मुसलमान मतदाता हैं। इसके अलावा 1.5 लाख ब्राह्मण और 2.5 लाख सैंथवार मतदाता हैं।”
इसी समीकरण के आधार पर सपा और बसपा गठबंधन से चुनाव लड़ रहे सपा प्रत्याशी राम भुआल निषाद कहते हैं, “भाजपा ने जनता का भरोसा खो दिया है। फर्टिलाइजर फैक्टरी की रिपेयरिंग पांच साल से हो रही है। जिस एम्स की बात योगी सरकार करती है, उसकी जमीन मुफ्त में अखिलेश सरकार ने दी थी। स्थानीय लोगों को फैक्टरियों में नौकरियां नहीं मिल रही है। जलभराव की भारी समस्या है।”
लेकिन 19 मई को होने वाले मतदान में गोरखपुर में आम लोगों की राय से कुछ धुंधली-सी तसवीर ही उभरती है। राजेंद्रनगर की डॉ. प्रियंका त्रिपाठी कहती हैं, “सभी वर्गों के लिए काम हुआ है। गरीब तबके को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर मिला है। मेरे खुद के स्टॉफ में लोगों को घर और गैस चूल्हे मिले हैं।” सरकारी कर्मचारी आशुतोष श्रीवास्तव भी कहते हैं, “उपचुनाव में लोगों में वोट देने का उत्साह नहीं था लेकिन इस बार मोदी को जिताना है।” लेकिन रसूलपुर निवासी अबराल का कहना है, “मैं मैकेनिकल इंजीनियर हूं, लेकिन गोरखपुर में कंपनियां होने के बावजूद नौकरी नहीं मिल रही है। स्थानीय लोगों की जगह बाहर के लोगों को नौकरियां दी जाती हैं।” पुराने गोरखपुर के निवासी सलाउद्दीन का कहना है, “एक समय मेरे पास 11 हथकरघे हुआ करते थे। लेकिन अब झोले सिलाई कर पेट पाल रहा हूं।”
जातिगत समीकरण किस तरह हावी है, वह भाजपा प्रत्याशी रवि किशन की बातों में भी दिखता है। वे जोर देकर कहते हैं, “मैं मामखोर का शुक्ला हूं। गोरखपुर से पहले मोदी, फिर योगी और उसके बाद तीसरे नंबर पर रविकिशन चुनाव लड़ रहे हैं। गठबंधन पूरी तरह फ्लॉप शो है। पिछले 15 साल से भोजपुरी फिल्में गोरखपुर में बना रहा हूं। एक-एक गांव को जानता हूं। मतदान तक 300 से ज्यादा पब्लिक मीटिंग करूंगा, फिल्म सिटी बनाने का भी प्लान है।”
गोरखपुर की तरह ही पूर्वी उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ भी हॉट सीट है। यहां सीधी टक्कर समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव और भाजपा से चुनाव लड़ रहे भोजपुरी गायक तथा अभिनेता निरहुआ उर्फ दिनेश लाल यादव के बीच है। गोरखपुर की तरह यहां भी जातिगत समीकरण काफी अहम हैं। इसके आधार पर ही 1996 से समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी का परचम यहां लहराता रहा है। केवल एक बार 2009 में भाजपा ने यह सीट जीती थी। 2014 में मुलायम सिंह यादव यहां से जीते थे। क्षेत्र में कुल 23 लाख मतदाता हैं। चार लाख यादव, तीन लाख मुस्लिम और 2.75 लाख दलित वोटर हैं। चौक स्थित कारोबारी मोहम्मद इदरीस का कहना है कि यहां तो “लाठी, हाथी और ...” चलना है। मोदी ने देश को बर्बाद कर दिया है। सिधारी इलाके के रामआसरे का कहना है, “मुलायम सिंह ने बहुत काम किया है। पीजीआइ खुल गया है, चीनी मिल शुरू करा दी है। इसके अलावा हर चौराहे पर काम दिखता है। ऐसे में अखिलेश ही जीतेंगे।” हालांकि रामबचन प्रजापति इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनका कहना है कि मोदी ने बहुत काम किया है। किसानों के खाते में 2,000 रुपये आए हैं। घर मिला है। सबसे बड़ा काम पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देकर किया है। इसी तरह जीयनपुर निवासी डी.सी.गोंड का कहना है कि हम तो भाजपा वाले हैं, निरहुआ बहुत मेहनत कर रहे हैं।
जीयनपुर के पास ही अजमतगढ़ में भाजपा प्रत्याशी निरहुआ उर्फ दिनेश लाल यादव की चुनावी रैली चल रही है। समर्थन देने के लिए उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य खुद पहुंचे हैं। रैली में केवल मोदी की ही बात हो रही है। मौर्य कहते हैं, “12 मई तक सब कुछ जाइए भूल, बस याद रखिए कमल का फूल।” निरहुआ भी कहते हैं कि मोदी को मजबूत करने के लिए मुझे वोट दीजिए। निरहुआ छोटी-छोटी सभाएं कर राष्ट्रवाद और अपनी लोकप्रियता के आधार पर मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। नामांकन करने भी रिक्शा चलाते हुए पहुंचे थे। उनका एलबम निरहुआ रिक्शावाला काफी फेमस रहा था। सभाओं में उनके लोकप्रिय गाने भी खूब सुनाए जा रहे हैं।
आजमगढ़ से सटी घोसी सीट इस समय ‘कटप्पा और बाहुबली’ की लड़ाई के रूप में चर्चित हो रही है। दरअसल, कभी भाजपा की सहयोगी रही सुहलेदेव भारतीय समाज पार्टी ने मैदान में महेंद्र राजभर को उतारा है, जिन्हें मोदी ने कभी ‘कटप्पा’ कहा था। उनको इस बार भाजपा के मौजूदा सांसद हरिनारायण राजभर टक्कर दे रहे हैं, जिन्हें स्थानीय बाहुबली कहा जाता है। यहां अब लड़ाई दिलचस्प हो गई है। दो राजभर उम्मीदवारों के उतरने से वोट बंटने का फायदा कांग्रेस के उम्मीदवार बालकृष्ण चौहान देख रहे हैं। उनका कहना है, “मोदी से भारी नाराजगी है। किसान परेशान हैं। गरीबों की कहीं सुनवाई नहीं हो रही है। कांग्रेस पर जनता को भरोसा है।” गठबंधन के उम्मीदवार अतुल राय हैं।
घोसी में करीब चार लाख चौहान, चार लाख यादव, चार लाख अनुसूचित जाति और तीन लाख राजभर समुदाय के लोग हैं। चौहान का कहना है कि गठबंधन उम्मीदवार बाहरी है, मुझे यहां गांव-गांव में लोग जानते हैं। घोसी के मधुबन इलाके के किसान रामसबद का कहना है कि मोदी ने खाते में 2,000 रुपया भेजा है। काम भी किया है लेकिन वोट किसे देंगे अभी कुछ तय नहीं किया है। वहीं, देवरती कहती हैं, पैर से लाचार हूं, पिछली बार मोदी को वोट दिया था, पर कुछ किया नहीं। अबकी बार कांग्रेस को देंगे। सुतरही गांव के मुन्ना का कहना है कि मोदी ने काम तो किया है, सड़कें बनी हैं, शौचालय बना है, घर मिला है, लेकिन वोट तो अपनी बिरादरी वाले को ही देंगे। उनका कहना है “सब लोग पहले से ही मानकर चलते हैं कि हरिजन हैं तो हाथी को ही दिया होगा। अपने घर में ही इज्जत है।” गठबंधन की तरफ से बसपा उम्मीदवार अतुल राय का कहना है, “आप उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाति को नकार नहीं सकते हैं। इस समय सपा-बसपा गठबंधन से बेहतर सोशल इंजीनियरिंग नहीं हो सकती है। मुझे पूरा भरोसा है कि मैं प्रदेश में सबसे ज्यादा मतों से जीतने वाले उम्मीदवारों में से एक बनूंगा।” अतुल राय को मऊ के बाहुबली मुख्तार अंसारी का करीबी भी माना जाता है।
मऊ के बाद कभी समाजवादियों का गढ़ रही सलेमपुर सीट में भी इस बार काफी रोचक लड़ाई है। भाजपा ने मौजूदा सांसद रवींद्र कुशवाहा पर फिर भरोसा जताया है। हालांकि स्थानीय स्तर पर उनको लेकर नाराजगी भी है। दवा का कारोबार कर रहे
गुड्डू का कहना है, “सलेमपुर क्षेत्र में स्कूल और अच्छे अस्पताल की समस्या है। सांसद ने कोई काम नहीं किया है। लेकिन हमारे पास मोदी को वोट देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।” वहीं, रिटायर्ड नायब तहसीलदार शब्बीर अहमद का कहना है, “विकल्प की समस्या है। मोदी काम अच्छा कर रहे हैं, पर जमीन पर भ्रष्टाचार की वजह से असर नहीं हो रहा है।” गठबंधन की ओर से बसपा ने प्रदेश अध्यक्ष आर.एस. कुशवाहा को उतारकर कुशवाहा वोट में सेंध लगाने की कोशिश की है, जबकि कांग्रेस ने डॉ. राजेश मिश्र को चुनाव में उतारा है। अशोक श्रीवास्तव कहते हैं, “राजेश ब्राह्मण वोटों में सेंध लगाएंगे। कुशवाहा जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं।” गोरखपुर से लगी संत कबीर नगर सीट पर भी मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। मनीष सामंत का कहना है, “जब तक मुकाबला भाजपा के प्रवीण निषाद और महागठबंधन के कुशल तिवारी में था, तब तक कुशल का पलड़ा भारी था। लेकिन कांग्रेस ने पूर्व सांसद भालचंद यादव को टिकट देकर समीकरण बदल दिया है। ऐसे में यादव वोट बंटेंगे। हालांकि क्षेत्र में ब्राह्मण और ठाकुर वोटरों का दबदबा है, जो अभी गठबंधन को जाता दिख रहा है।
हर जगह की तरह इस बार गाजीपुर की लड़ाई भी दिलचस्प हो गई है। करीब 15 साल बाद एक बार फिर भाजपा से केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा और मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल अंसारी आमने-सामने हैं। मनोज सिन्हा यहां से तीन बार जीत दर्ज कर चुके हैं। वे इस बार मंत्री रहते पांच साल के अपने काम के आधार पर वोट मांग रहे हैं, जबकि गठबंधन के उम्मीदवार अफजाल अंसारी को जाति समीकरण का भरोसा है। गाजीपुर में पिछड़ी जातियों में यादव, कुशवाहा, बिन्द, चौहान और राजभर की संख्या ज्यादा है। सवर्ण मतदाताओं की बात करें तो राजपूत, ब्राह्मण और भूमिहार मतदाता परिणाम तय करने में अहम भूमिका निभाएंगे।
यूसुफपुर मोहम्मदाबाद निवासी राजीव के अनुसार सीट बसपा के खाते में जाने से यादव वर्ग में खास तौर से नाराजगी है, ऐसे में सबसे बड़ी चुनौती यही है कि सपा का मतदाता क्या बसपा प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करेगा। देश के सबसे पिछड़े जिलों में से एक गाजीपुर में रोजगार और किसानों की समस्या हावी है लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक के बाद राष्ट्रवाद की भी लहर है। पूर्वांचल की एक और अहम सीट जौनपुर में भी इस बार जातिगत समीकरण ही हावी है। जौनपुर लोकसभा सीट से 2014 में के.पी. सिंह भाजपा के टिकट से सांसद बने थे और भाजपा ने उन्हें यहां फिर मैदान में उतारा है। बसपा (गठबंधन) से श्याम सिंह यादव और कांग्रेस से देवव्रत मिश्र हैं। जौनपुर के हुसैनाबाद निवासी सचिन मिश्रा कहते हैं कि इस बार यहां बाहुबली नेता धनंजय सिंह चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, इससे सवर्णों का ज्यादातर वोट भाजपा के पक्ष में जाने की संभावना है। इसलिए लड़ाई यहां भाजपा बनाम गठबंधन के बीच हो गई है। जौनपुर के लोग अभी भी सड़कें, ओवरब्रिज, रोजगार जैसे अहम मुद्दों से जूझ रहे हैं।
कुल मिलकार पूर्वांचल की लड़ाई इस बार 2014 जैसी नहीं है। जब मोदी लहर में भाजपा ने 27 में से 26 सीटों पर जीत हासिल कर ली थी। इस बार हर सीट पर जातिगत समीकरण काफी मायने रखते हैं जिसके आधार पर ही जीत और हार तय होनी है। ऐसे में यह साफ है कि जिस पक्ष की वोटिंग ज्यादा होगी, उसी के नाम पर सेहरा बंधेगा।
(साथ में लखनऊ से शशिकांत)