पुराने लखनऊ के व्यस्ततम इलाके चौक से करीब दो किमी अंदर गंदगी और बदबू से भरपूर नाले के ऊपर बनी पटरियों पर बने छोटे मकानों और कमरों में प्रवेश करने से पहले कल्पना करना मुश्किल होता है कि इतने गंदे माहौल को पार करके इन तंग कमरों में आपको नायाब कसीदाकारी देखने को मिलेगी। जहां-तहां कारीगरों के अधबने और तैयार वस्त्रों पर आरी जरदोजी देखते ही बनती है। आप खूबसूरत आरी जरदोजी से सजे वस्त्रों को देखते ही रह जाएंगे और सोचने लगेंगे कि निश्चित ही आरी जरदोजी के कारीगर खुशहाल होंगे और उन्हें अपने हुनर से खूब पैसा मिलता होगा। लेकिन दुर्भाग्य से यह अनुमान सही साबित नहीं होगा। भले ही इन कारीगरों के हाथों का हुनर बेमिसाल है, लेकिन उनकी माली हालत ऐसी खूबसूरत नहीं है। अहाता सूरज सिंह चौपटिया के दस फुट लंबे और आठ फुट चौड़े तंग कमरे में बैठे कारीगर यों तो गप-शप करते खुश नजर आ रहे हैं लेकिन उनके चेहरे की यह खुशी चंद मिनटों की है। क्षण भर में ही उनके चेहरे मलिन पड़ जाते हैं और उनकी दुर्दशा झलकने लगती है। जरदोजी के काम में करीब आठ दशकों से लगे 95 वर्षीय माशूक अली पुरानी यादों में खो जाते हैं। वह बताते हैं कि 16 साल की उम्र में जब उन्होंने कारीगरी करना शुरू किया था, तब जरदोजी के काम में लगने वाले मेटीरियल की कीमत बहुत कम थी। जबकि तैयार वस्त्रों की कीमत अच्छी मिल जाती थी। ऐसे में घर का खर्च चल जाता था। लेकिन बाद में धीरे-धीरे हालात खराब होने लगे। जरदोजी का काम फायदेमंद न रहने के कारण कारीगरों को दूसरे काम की ओर रुख करना पड़ा। माशूक अली के चार लड़के हैं, लेकिन सिर्फ एक लड़के मोहम्मद अनीस ने ही आरी जरदोजी का काम शुरू किया। आमदनी कम होने के कारण अनीस भी बहुत खुश नहीं हैं। 65 साल के अनीस बताते हैं कि वे बिना मशीन की मदद के हाथों से जरी का काम करके वस्त्र तैयार कर सकते हैं लेकिन उसकी पूरी कीमत उन्हें नहीं मिल पाएगी। इसी वजह से वह अब यह काम नहीं करते हैं। उन्होंने सऊदी अरब में भी आरी जरदोजी का काम किया। बाद में घर वापस आकर उन्होंने कारखाना भी लगाया, लेकिन पर्याप्त काम और कीमत न मिलने के कारण उन्हें कारखाना बंद करना पड़ा। अब उन्होंने छोटी सी दुकान खोल ली है।
आरी जरदोजी की बदहाली पर मरियम जरी आर्ट के मो. उसमान बताते हैं कि राजा-महाराजाओं के जमाने से आरी जरदोजी का काम हो रहा है। एक दौर था, जब कारीगरों ने अपने हुनर का लोहा मनवाया। उस दौर में कमाई भी खूब हुई। लेकिन अब ग्राहकों की कमी होने के कारण काम नहीं मिल पाता है। पूरी कीमत न मिल पाने के कारण कारीगरों का मोहभंग हो रहा है। यही वजह है कि नए जरदोजी कारीगर दूसरे कारोबार करने लगे या मजदूरी करने लगे। वह बताते हैं कि एक साड़ी तैयार करने में 10 दिन लगते हैं। अपना मेटीरियल लगाने पर भी इसकी कीमत बमुश्किल 2,500 रुपये मिल पाती है। इस कीमत से तो खर्चा भी नहीं निकल पाता है। मेटीरियल की कीमत के अलावा दुकान का किराया, बिजली और मजदूरी का भी खर्चा होता है। चुनाव के समय नेता वोट मांगने आते हैं, लेकिन कभी किसी सरकार ने हमारे बारे में नहीं सोचा। 28 वर्षीय मोहम्मद शारिक ने करीब 12 साल जरदोजी का काम किया लेकिन आमदनी कम होने के कारण डेढ़ वर्ष पहले पंजाब चले गए। लखनऊ में अपने घर आए शारिक का कहना है कि आरी जरदोजी में 13 घंटे काम करने पर 300 रुपये मिल पाते थे, ऐसे को कोई दूसरा काम करना बेहतर लगा। इसी वजह से वह जरदोजी का काम छोड़कर पंजाब चले गए।
समय बदलने के साथ जरदोजी के सामने भी नई-नई दिक्कतें पैदा हो गईं। 60 वर्षीय मोहम्मद आफाक कुरैशी का कहना है कि पहले जरदोजी के वस्त्रों का कोई विकल्प नहीं होता था। लेकिन आज मशीनों ने उनके हुनर पर गहरा आघात किया है। आज कंप्यूटर से डिजाइन तैयार करके मशीनों से डिजाइनर वस्त्र तैयार कर दिए जाते हैं। इसमें समय कम लगता है और लागत भी घट जाती है। सबसे गलत बात यह है कि ग्राहकों को मशीनों से बने डिजाइनर वस्त्रों को जरदोजी बताकर ठगा जा रहा है। ग्राहक कीमत कम होने के कारण आसानी से खरीद लेते हैं और उत्पादक तथा व्यापारी फायदा उठा लेते हैं। झूठ पर टिके इस पूरे कारोबार में नुकसान सिर्फ कारीगरों को ही उठाना पड़ता है, जो हाथ से ही जरी का काम करते हैं। इन हुनरमंदों के नाम पर दूसरे लोग फायदा उठा रहे हैं। जरदोजी से रोजी-रोटी का जुगाड़ न होने के कारण कुरैशी ने दो साल पहले काम छोड़ दिया था। जबकि बचपन में ही काम शुरू करने वाले कुरैशी ने कई दशकों तक काम किया। उनके बेटे मो. आतिफ ने भी यह काम छोड़कर बर्गर की दुकान पर काम शुरू कर दिया। कुरैशी कहते हैं कि एक सूट तैयार करने में दो कारीगरों को 10 दिन लगते हैं। इसकी बिक्री मुश्किल 5,000 रुपये में ही हो पाती है। दरअसल, कंप्यूटर और मशीनों के दौर में कारीगरी हार गई है। एक अनुमान के अनुसार मशीन से बने डिजाइन वस्त्रों की लागत जरदोजी वस्त्रों के मुकाबले एक चौथाई ही रहती है। घरेलू बाजार में मशीन से बने इन कपड़ों की बिक्री ज्यादा है। विदेशों में भी कुछ निर्यातक इन वस्त्रों की सप्लाई करते हैं। ऐसे में कारीगरों पर लागत घटाने का लगातार दबाव रहता है। तो जरदोजी में इस्तेमाल होने वाले मेटीरियल की लागत घटाने का ही विकल्प बचता है। पहले सोने, चांदी के तारों से भी काम किया जाता था। लेकिन अब जरकन, कटदाना, सादी, नक्शी, रेशम और कोरा आदि का इस्तेमाल किया जाता है। इसके बावजूद हाल के वर्षों में इनकी भी कीमत बढ़ती चली गई। पहले 2,500 कीमत वाले जरदोजी वस्त्र में 50 रुपये का मेटीरियल लगता था, लेकिन अब करीब 250 रुपये इसमें खर्च हो जाते हैं। वैसे मांग होने पर कारीगर सोने व चांदी के तारों का काम भी करते हैं। लेकिन इनकी मांग ही बेहद कम रहती है। कीमत कम मिलने के कारण महीन और श्रमसाध्य जरदोजी का मेहनताना लगातार घट रहा है। यही वजह है कि कारीगरों को दूसरे काम-धंधों की ओर रुख करना पड़ रहा है। जरदोजी के काम से रोजी-रोटी चलाना भी असंभव हो गया है।
जरदोजी से ज्यादातर पार्टी वियर तैयार होते हैं, जिनके खरीदार धनाढ्य और मध्यम वर्ग के ग्राहक होते हैं। आमतौर पर लेडीज सूट, गरारे, लहंगे, साड़ी, गाउन और शेरवानी पर जरदोजी की जाती है। एक समस्या यह भी है कि कारीगरों को उनकी मेहनत का पूरा पैसा इसलिए नहीं मिल पाता है, क्योंकि ग्राहकों तक वस्त्र पहुंचाने वाले थोक और फुटकर व्यापारियों का मार्जिन काफी ज्यादा रहता है। मो. उसमान बताते हैं कि ग्राहक को अगर कोई जरदोजी वस्त्र 5,000 रुपये में बिक रहा है तो कारीगर को बमुश्किल 2,500 रुपये ही मिल पाते हैं। 30 फीसदी मुनाफा थोक विक्रेता लेता है जबकि बाकी 70 फीसदी मुनाफा फुटकर विक्रेता लेता है। चूंकि कारीगरों को तुरंत भुगतान की दरकार रहती है, इसी आधार पर थोक और फुटकर व्यापारी ज्यादा मार्जिन को वाजिब ठहराने की कोशिश करते हैं।
जरी के वस्त्रों का कारोबार करने वाली फर्म सोनी डिजाइनर स्टूडियो के सुमित गुप्ता बताते हैं कि भारतीय हस्तशिल्प की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मांग ऐसी कम नहीं है, लेकिन कारीगरों के दिलकश उत्पादों की पहुंच वहां तक नहीं हो पाती है। विदेशी बाजारों में पहुंच बनाने के लिए कारीगरों को सरकार की ओर से कोई सहायता नहीं मिलती है। सरकार की ओर से न तो जरदोजी कारीगरों के लिए क्लस्टर विकसित किया गया और न ही कोई कॉमन फैसेलिटी सेंटर (सीएफसी) बनाया गया। सरकार की ओर से कोई मदद न मिलने के कारण कारीगरों के साथ जरदोजी से जुड़ा कारोबार भी प्रभावित हो रहा है। जानकारों का कहना है कि जरदोजी के निर्यात पर भी इसका बुरा असर पड़ रहा है।
जानकार बताते हैं कि वाजिब पैसा न मिलने और रोजी-रोटी चला पाने में दिक्कत आने के कारण जरदोजी के कारीगरों की संख्या लगातार कम हो रही है। कुछ वर्षों में इनकी संख्या घटकर महज एक चौथाई रह गई है। चिकन और जरदोजी के कारोबारी मो.नदीम कहते हैं कि जरदोजी का काम प्रदेश में लखनऊ, बरेली, बदायूं, चंदौली, उन्नाव, कासगंज, ललितपुर, शाहजहांपुर तक फैला हुआ है। जबकि एक धागे से होने वाली चिकनकारी के कारीगर लखनऊ, लखीमपुर, सीतापुर, बाराबंकी, उन्नाव, फैजाबाद और रायबरेली में हैं। इन दोनों के कारीगरों में महिलाओं की भी बड़ी संख्या है। महिलाओं को प्रति पीस के हिसाब से मेहनताना मिलता है। उन्हें महीने में बमुश्किल ढाई से तीन हजार रुपये की कमाई हो पाती है।
जरदोजी कारीगरों के प्रति सरकार की उदासीनता से इन्कार करते हुए उद्योग विभाग के संयुक्त निदेशक सुनील कुमार बताते हैं कि कारीगरों के लिए आठ में से दो जिलों उन्नाव और बरेली में कॉमन फैसेलिटी सेंटर स्थापित किए जा रहे हैं। इनकी इमारतें बन गई हैं। मशीनों का टेंडर चुनाव के बाद होगा। बाकी छह जिलों में भी सीएफसी स्थापित होंगे। वह बताते हैं कि जरी, जरदोजी का काम वैल्यू एडीशन का है। उन्नाव में एक कंपनी जूतों पर जरी का काम करवा कर निर्यात करती है। हमारा ध्यान जॉब वर्क करने वाले कारीगरों पर है। उन्हें एक जिला, एक उत्पाद (ओडीओपी) स्कीम के तहत वित्त पोषण सहायता योजना के माध्यम से पिछले 24 सितंबर से इस साल मार्च तक 30 करोड़ रुपये के कर्ज दिए गए। इसमें उन्हें साढ़े चार करोड़ सब्सिडी भी दी गई। कैंप लगाकर मुद्रा योजना के तहत भी लोन की व्यवस्था कराई गई।
मार्केटिंग में सहायता के बारे में उन्होंने बताया कि उद्योग विभाग ने अमेरिकी ई-कॉमर्स कंपनी अमेजन से एमओयू पर हस्ताक्षर किए हैं। इस पहल से करीब 350 विक्रेता अमेजन के जरिए अपने 11,000 उत्पाद बेच रहे हैं। इसके अलावा जिला स्तर पर मेले लगाकर मार्केटिंग में सहायता देने के प्रयास हो रहे हैं। कच्चे माल के लिए हर जिले में रॉ मेटीरियल बैंक बनेगा। इससे कारीगरों को जिले में ही कच्चा माल मिल सकेगा। उद्योग विभाग के आयुक्त के. रवींद्र नाईक का कहना है कि जरी जरजोदी को बढ़ावा देने के लिए हम सुप्रसिद्ध डिजाइनरों के साथ समझौता करके सीएफसी में उनकी सेवाएं लेंगे। इसका लाभ कारीगरों को मिलेगा। इसके अलावा देश-विदेश में लगने वाले मेलों में कारीगरों को अपने उत्पाद दिखाने और बेचने के लिए सब्सिडी दी जा रही है।