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बहुधा: एक समग्र दृष्टिकोण

जब अमेरिका में 9/11 की विनाशकारी घटना हुई, उस समय मैं वाशिंगटन डीसी में ही विश्व बैंक के कार्यकारी निदेशक के तौर पर कार्यरत था। इस विनाशकारी घटना के तुरंत बाद से ही वहां के हर थिंक टैंक के लिए दो प्रश्न एक प्रकार से फैशन बन गए थे-‘ऐसी क्या गलती हो गई?’ और‘क्यों लोग हमसे (अमेरिकियों से) घृणा करते हैं?’
दुनिया के विभिन्न धर्मों के प्रतीक चिह्न

मैंने उसी सितंबर के दौरान ऐसे ही एक बैठक में भाग लिया था। उस बैठक में जो अतिथि वक्ता थे उन सबके भाषणों का निष्कर्ष था कि आतंकवाद के खिलाफ सभी राष्ट्रों को एक गठबंधन के निर्माण की जरूरत है। उन सभी वक्ताओं ने इस्लाम की कट्टरता, धार्मिक बहुलवाद के मूल्यों और सहिष्णुता की जरूरत पर बल दिया। इस बैठक में अध्यक्षा ने सबके भाषणों की समाप्ति के बाद इस पर टिप्पणी के लिए मेरी ओर देखा-साथ ही उन्होंने कहा कि भारत की बहुलवाद और स्वाभाविक मौलिकता की विरासत को देखते हुए भारत के पास इसके सही उत्तर हो सकते हैं। हालांकि मैं इसके लिए तैयार नहीं था लेकिन मुझे याद है कि मैंने बैठक में क्या कहा- भारत के पास इसके जवाब क्यों हो सकते हैं, मैं नहीं जानता, और भारत में आतंकवाद से निपटने में अपने अनुभवों को बयान करने लगा। मुझे अपनी प्रतिक्रिया की अपर्याप्तता के बारे में पता था। असली सवाल यह था-अब तक राष्ट्रों के बीच इतनी विषमता, आपसी अविश्वास, भय और आतंक के सबसे खराब दौर में हम एक ग्लोबलाइज दुनिया में सद्भाव के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए क्या कर सकते हैं?

तब से मैं एक वैश्विक सार्वजनिक नीति के लिए एक स्थायी ढांचे की खोज के इस विषय पर विचार कर रहा था। 9/11 के बाद दुनिया में विभिन्न लोगों और समाज के बीच सद्भाव के लिए एक नीति के रूप में भारतीय सभ्यता के अनुभव को एक माध्यम के रूप में देखा गया। दुनिया के सामने एक मौलिक मुद्दे की चुनौती है जिसका वह सामना कर रही है कि आखिर हम कैसे जी सकते हैं?’ हम कैसे उस मानवीय स्वभाव को नियंत्रित कर सकते हैं जो कि हिंसक संघर्षों में संलग्न है और शांति के लिए खतरा बन गया है? कैसे हम लोगों के बीच सद्भाव के लिए काम करने के लिए सांप्रदायिक और जातीय प्रतिबद्धताओं के अधीनस्थ है? दमन और शोषण से अधिक प्रबंध बने लोगों को हम कैसे प्यार और करुणा के साथ अपना बना सकेंगे? कैसे अलग-अलग देशों में लोगों को अपनी नियति का स्वामी बनाया जा सकता है? कैसे हम एक निरंतरता के आधार पर संवाद बनाए रख सकते हैं?  

मैं यहां बहुधा के दृष्टिकोण का सुझाव देना चाहता हूं। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है, जिसने भारत में बहुत सामंजस्यपूर्ण जीवन के संवर्धन में योगदान दिया है और इससे मेरा व्यक्तिगत लगाव है-आशा और विश्वास के साथ सत्य का दर्शन एक दूसरे के प्रति सम्मानहै, जो पुरुष और महिलाओं दोनों के लिए सटीक है। ऋग्वेद की ऋचाओं में इसे बेहतर तरीके से वर्णित किया गया है, जिसे हम तीन सहस्रत्राब्दियों से पढ़ते आ रहे है:-एकम् सद् विप्र बहुधा वदन्ती

 

बहुधा दृष्टिकोण बहु समाज और बहुलवाद के बीच के अंतर को पहचानता है। बहुलवाद लोकतांत्रिक समाजों का एक अनिवार्य घटक है। धर्म, भाषा, और जातीयता की भूमिका बहुलवादी समाज में बहुत महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में बहुलवाद विकसित और विकासशील दोनों समाजों के लिए ही अनिवार्य है।

बहुलवादी समाज के लिए बहु-जातीय, बहुधार्मिक और बहुभाषी समाज जरूरी हैं। ऐसे समाज में बहुत सारी सीमाएं होती हैं-जातीय, भाषायी, धार्मिक और कई बार तो वैचारिक भी। बहुधा दृष्टिकोण किसी के विलय या सीमाओं का अतिक्रमण या पहचान को नष्ट करना तथा दुनिया को साधारण तरीके से देखने के प्रचार पर कभी विश्वास नहीं करता। यह महज संवाद और सामूहिक अच्छाई की समझ को बढ़ावा देता है। लोगों की उनकी पहचान को बनाए रखने की सीमा को स्थायी रखते हुए, ठीक साथ-साथ सद्भाव की एक सार्वजनिक नीति बनाने के लिए दूसरों की पहचान को समझने में मदद करती है। बहुधा दृष्टिकोण इस तथ्य को लेकर एकदम से जागरूक है कि बगैर सीमा के कोई भी समाज संभव नहीं है।

बहुधा संस्कृति की गहराई बहुत पहले से इस विशेष दृष्टिकोण के उपदेश में निहित है। बहुधा दृष्टिकोण विविधता का उत्सव और एक दृष्टिकोण दोनों है जो दूसरे के सम्मान की बात करता है। लोकतंत्र और संवाद इसके केंद्र में है।विविधता के अंतर्गत विभिन्न धर्मों, देवी-देवताओं और विश्वास प्रणालियों का जश्न मनाया जाता है। यह इस भावना को बढ़ावा देता है कि अगर केवल एक धर्म, एक भगवान, एक भाषा, एक लोकगीत और एक लोककथा होती तो दुनिया एकदम सुस्त और दकियानूसी होती। मानव प्रजाति एक विश्वास या आस्था या प्रणाली के नहीं हो सकता-मानवता विविधता है- जो हम अकसर भूल जाते हैं।

मेरे विचार से, समस्या यह है कि विभिन्न धर्मों को मानने वालों के बीच आमतौर पर साझा विश्वास केवल एक सत्यनहीं है, इसे हमें समझना होगा। इतने लंबे समय में सत्य की खोज से संबंधित दृष्टिकोण का समर्थन करने में कोई समस्या नहीं हो सकती। हालांकि, समस्याएं अपने व्यवहार और प्रथाओं में उत्पन्न होती हैं। बहुत सारे धर्म एक ईश्वर और एक वेद को मानते हैं। इसे मानने वाले धर्मों के लोगों की सोच है कि उनका ईश्वरही श्रेष्ठ है और उनके वेद में ही सभी सत्य निहित है। कट्टरपंथी समूह नकारा हो चुके सदियों पुरानी मान्यताओं और नुस्खे को, नई खोजों के आधार पर जमीनी हकीकत में भारी परिवर्तन होते हुए भी वे उन्हीं पुराने शास्त्र में उल्लेखित हर सिद्धांत का ईमानदारी से पालन पर जोर देते और चलते हैं। हर शास्त्र या वेद मानव निर्मित दस्तावेज होते हैं, जो तत्कालीन समय के बुद्धत्व प्राप्त संत द्वारा तैयार की गई होती है। ऐसे दस्तावेज या ग्रंथ हर समय और हर व्यक्ति के अनुकूल नहीं हो सकता। इसमें एक अन्योयाश्रित दुनिया की सभी मानवीय समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता।

बहुत सारे सवाल उठ सकते हैं। बहुधा दृष्टिकोण मानने वाले और न मानने वाले दोनों के लिए लागू होगी या नहीं? क्या बहुधा की भूमिका अलग-अलग धर्मों के बीच सद्भाव का केवल एक साधन होने तक ही सीमित है? मैंने बहुधा दृष्टिकोण की प्रासंगिकता को दोनों ही मतावलंबियों के बीच देखा है। दरअसल, मैंने देखा है कि कैसे यह धार्मिक संघर्षों को भी धर्मनिरपेक्षता के दायरे में लाता है। इस दृष्टिकोण से विभिन्न धर्मों के विभिन्न संप्रदायों के अलग-अलग राय के साथ सामंजस्य बैठाया गया है। हाल के 21वीं सदी के इस्लाम के शिया और सुन्नी के बीच के मतभेद को देखा है। क्षेत्रीय विवाद या यहां तक कि भू-राजनीतिक जैसे मुद्दों, नागरिकों के मामलों में राज्य की भूमिका के बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से संबंधित विचारों के मतभेदों को हल करने के लिए संवाद आवश्यक है।

बहुधा को सार्वजनिक नीति का एक तंत्र बनाया जाना चाहिए, मैं इसके दो पहलुओं पर जोर देना चाहूंगा। पहला, सहिष्णुता सभी महान सभ्यताओं (ईसाई, हिंदू-बौद्ध, इस्लाम और यहूदी) में एक खास गुण है, और दूसरा, हमें एक वास्तविक और परस्पर सहानुभूतिपूर्वक आपसी संवाद की जरूरत है। हमारा उद्देश्य है कि हम मतभेदों और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के आधार को समझें। इससे संकेत मिलता है कि सार्वजनिक बहस से धर्म को छोड़ना एक गंभीर गलती होगी, हमें हमारे सामाजिक सद्भाव और आपसी समझ को स्थापित करने के एक महत्वपूर्ण स्रोत से वंचित रहना पड़ेगा। बहुधा शिक्षा, राष्ट्रीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में एक मार्गदर्शक सिद्धांत बन सकता है। एक धर्मनिरपेक्ष समाज में धार्मिक गतिविधियों की अनुमति मिलनी चाहिए, क्योंकि यह बहुत सारे देशों में हो भी रहा है। तदनुसार, बहुधा दृष्टिकोण के साथ-साथ समाज में एक धार्मिक आदेश में सत्य की खोज और धर्मनिरपेक्ष व्यवहार की सुविधा हो सकती है। यह समझने की जरूरत है कि ऐसे समय में कानून का राज रखने के लिए सभी धर्मों का सम्मान रखना होगा। बहुधा दृष्टिकोण का विश्ष रूप से धार्मिक सद्भाव, शैक्षिक कार्यक्रम, अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक सुदृढ़ीकरण-संयुक्त राष्ट्र और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के तहत सेना का उपयोग के माध्यम से सुरक्षित किया जा सकता है।

मुझे विश्वास है कि बहुधा दृष्टिकोण वैश्विक आबादी के एक बड़े वर्ग में शामिल सत्य और नैतिक लोगों (आस्तिक व नास्तिक) के समर्थन से पनपेगा। बहुधा दृष्टिकोण, उन सभी लोगों के लिए प्रासंगिक है, जो मानते हैं कि एक अच्छा व्यक्ति एक अच्छा नागरिक हो सकता है, चाहे वह किसी धर्म का मानने वाला हो। बहुत सारे लोग हैं जो बहुधा में संघर्ष के समाधान के लिए अवसरों की एक शृंखला खोलने और एक सामंजस्यपूर्ण समाज और सभ्यताओं के टकराव को व्यापक रूप से प्रचार के सिद्धांत के खिलाफ के रूप में बढ़ती वैश्विक व्यवस्था के निर्माण के लिए एक संभावित दृष्टिकोण मानते हैं।

(लेखक विश्व बैंक में कार्यकारी निदेशक और पूर्व राज्यपाल रहे हैं)

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