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समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के दखल के बाद कुनबे में मचे घमासान पर अंकुश लगा है
मुलायम और शिवपाल के साथ अखिलेश यादव

विधानसभा चुनाव की दहलीज पर खड़े उत्तर प्रदेश में वैसे तो सभी पार्टियों में भीतर-भीतर बहुत कुछ पक रहा है लेकिन सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) के पिछले स्वतंत्रता दिवस के पहले उभरे अंदरूनी मतभेदों व विवादों को आसानी से सुलझा लिए जाने और हम साथ-साथ हैंके मोड में पार्टी के एक बार फिर सक्रिय होने से राजनीतिक हलकों में अचरज है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कार्यकाल को साढ़े चार मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल कहकर ताना कसने वालों को स्वत: अखिलेश ने यह कह कर जवाब दिया कि ताना कसने वालों के पास तो मुख्यमंत्री के लिए एक भी चेहरा नहीं है। वहीं स्वतंत्रता दिवस पर सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने अपने छोटे भाई और कैबिनेट मंत्री शिवपाल यादव को पार्टी की अनमोल धरोहर बताते हुए शिवपाल की कथित नाराजगी को धो डाला।

चुनाव के ऐन मौके पर सपा सुप्रीमो और उनके परिवार में उठे विवादों को लेकर पार्टी में मची खलबली को मुलायम सिंह यादव के इस बयान और इस पर अखिलेश यादव के अमल से शिवपाल की नाराजगी दूर हो जाने का दावा पार्टी और यादव परिवार के स्तर पर किए जाने के साथ ही इसके परिणाम भी दिखाई पड़ने लगे हैं। सपा में नाराजगी और पार्टी छोड़ने की धमकी देने वालों में शिवपाल ही नहीं, आजम खां और हाल में पार्टी में लौटे अमर सिंह भी रहे हैं। शिवपाल प्रकरण से ऐसे नाराज लोगों को मौका मिलता तो पार्टी पर एक आफत आ सकती थी। संभवत: इसे ही भांप कर मुलायम सिंह ने अखिलेश से दो टूक कहा- शिवपाल के विरुद्ध षड़यंत्र चल रहा है। मैंने उन्हें इस्तीफा देने से मना किया। शिवपाल ही एक ऐसे मंत्री हैं, जो जमीनी काम कर रहे हैं। अखिलेश जी, सरकार में ऐसे अनेक मंत्री हैं, जो काम नहीं करना चाहते। वे एयर कंडीशन बंगलों से बाहर ही नहीं निकले। ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई कीजिए।

सपा के अंदर रामगोपाल यादव की वरिष्ठता को नजरअंदाज किए जाने से वह भी उदासीन होकर काम कर रहे थे पर शिवपाल प्रकरण के साथ ही उनकी भी नाराजगी को दूर करने के सपा मुखिया के प्रयासों के सकारात्मक परिणाम सामने आए। अभिनेत्री जयाप्रदा को किनारे कर दिए जाने और 92 वर्षीय गीतकार नीरज को राज्य की फिल्म संस्था का अध्यक्ष बनाए जाने से क्षुब्ध अमर सिंह को भी ठीक करनेके प्रयास जारी हैं। शिवपाल की नाराजगी का बड़ा कारण मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का सपा में विलय न होना है। बताते हैं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस पर बहुत बड़ा स्टैंड लिया और शिवपाल के विलय संबंधी निर्णय को गहरा धक्का लगा। कौमी एकता दल के सपा में विलय के मुद्दे पर और पार्टी में बिखराव और बगावत के सुर उठे पर ये धुआं उठने के साथ-साथ ही काफूर हो गए। इससे पहले 2003 से 2007 तक की सपा सरकार के दौरान कभी भी अखिलेश का अपने पिता और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह जो तत्कालीन सरकार के मुख्यमंत्री थे, कभी भी किसी प्रकरण में हस्तक्षेप नहीं सुना या देखा गया। अखिलेश ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालते ही बेहतर-कानून व्यवस्था देने व अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासन में रखने का वादा किया। जिसकी सर्वाधिक चर्चा और प्रशंसा हुई पर अव्यवस्था पैदा कर लाभ उठाने वाले पार्टी के अंदर के कुछ लोगों को यह नागवार गुजरा।

डीपी यादव के कारनामों से कहीं ज्यादा लंबी फेहरिस्त माफिया डॉन मुख्तार अंसारी की है। उसके भाइयों के समाजवादी पार्टी ज्वाइन करते ही माफिया डॉन की जेल बदलने का फरमान जारी कर दिया गया। इस प्रकरण में कड़ा रुख अख्तियार करने वाले आईपीएस अधिकारी और तत्कालीन एडीजी जेल देवेंद्र सिंह चौहान ने जब मुख्तार अंसारी की जेल बदलकर आगरा से राजधानी लखनऊ या उसके गृह जनपद गाजीपुर करने की सिफारिश को खारिज कर दिया तो उनका तबादला आदेश कुछ ही घंटों में उनकी मेज पर था।

विरोध और बगावत की बातें करने वाले भी मानते हैं कि आज पार्टी जहां है वहां तक पहुंचाने में अखिलेश का करिश्मा रहा है। बात वर्ष 2012 की है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव घोषित हो चुके थे, प्रदेश में सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी तमाम विवादों में घिरी होने के बावजूद अपने पांच सालों के कार्यकाल के दौरान कानून व्यवस्था व अपराधियों पर सख्त कार्रवाई किए जाने का दावा करती हुई दोबारा पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने को तैयार सी बैठी थी। तत्कालीन प्रदेश सरकार के खिलाफ अपने हर भाषण में राहुल गांधी बांहें चढ़ाए उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में हुए घोटाले और इससे जुड़े पहलुओं को लेकर बसपा पर हमला करते थे। लखनऊ के सीएमओ की हत्या और तमाम अपराधियों के बसपा में विधायक सांसद होने और पार्टी से जुड़े होने की बात हर रैली में कर रहे थे। भट्टा पारसौल में उन्होंने किसानों के भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर धरना भी दिया। यह सब उत्तर प्रदेश में चुनाव से पहले था।

भाजपा के तमाम बड़े नेता जो आज केंद्र सरकार का हिस्सा हैं या किसी प्रदेश के राजभवन पहुंच चुके हैं, भाजपा को उत्तर प्रदेश में विकास और सुशासन का पर्याय बता रहे थे। ऐसे माहौल की राजनीतिक गर्मी और ऊंचे तापमान के माहौल में तत्कालीन समाजवादी पार्टी के सांसद और सपा सुप्रीमो के बेटे अखिलेश यादव ने जब समाजवादी पार्टी के प्रचार की कमान संभाली तब उन्हें राजनीतिक गलियारों में बिलकुल गंभीरता से नहीं लिया गया था। अखिलेश की धर्मपत्नी डिंपल फिरोजाबाद से लोकसभा चुनाव भी हार चुकी थीं।

अखिलेश ने चंडीगढ़ से एक बस को रथ बनवाया और सभी 403 विधानसभा क्षेत्रों का गहन दौरा किया। इसके साल भर पहले से ही यात्राओं पर निकले अखिलेश अपनी मित्शुबिशी मोंटेरो से लगभग पांच लाख किलोमीटर की दूरी सिर्फ उत्तर प्रदेश में नाप चुके थे। उनकी दिल्ली से 22 अक्टूबर, 2011 को शुरू हुई आगरा तक की साइकिल यात्रा में लोगों का रेला उमड़ पड़ा था। वैसे तत्कालीन सरकार ने एक्सप्रेस वे पर अखिलेश को साइकिल चलाने की अनुमति नहीं दी थी। सर्विस रोड पर साइकिल चलाते अखिलेश दो दिनों की यात्रा पूरी कर 24 अक्टूबर, 2011 को आगरा पहुंचे थे। लखनऊ से उन्नाव तक की अखिलेख की पहली रथयात्रा में पुराने नेता या सीनियर लीडर झांकने भी नहीं गए। कोई मानता ही नहीं था कि सरकार बनेगी और अखिलेश मुख्यमंत्री भी बनेंगे। पार्टी में अपनी पहली धमक अखिलेश ने अपने कड़े निर्णय से महसूस करा दी। यह पहला कड़ा निर्णय था बाहुबली डीपी यादव को पार्टी में नहीं लेना। यहीं से अखिलेश की इमेज एक प्रशासक ओर नई सोच के मजबूत नेता की बनी।

अखिलेश ने चुनाव में छात्र-छात्राओं को लैपटॉप देने के वादे किए और पूरा भी किया। उम्मीद की साइकिल नाम से साइकिल अभियान चलाया। अब शिवपाल यादव के सुर भी बदले हुए हैं, ‘अखिलेश की अगुवाई में बहुत अच्छा काम हो रहा है। हम चाचा-भतीजे हैं पर पार्टी और हमारी सरकार में लोकतंत्र ही चलता है। हमारे दल को एक माई-बापवाला दल मत समझिए। हम साथ-साथ हैं और रहेंगे चुनाव और चुनाव के बाद भी।

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