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डेटावार की राजनीति

सत्ता हासिल करने के लिए निजी सूचनाओं में सेंधमारी और जनमत बनाने-बिगाड़ने के खेल में सोशल मीडिया और आइटी कंपनियां बनीं राजनीतिक पार्टियों की औजार
डिजिटल दुनिया में बढ़ती दखलंदाजी

आज से 14 साल पहले 2004 में जब देश में मुश्किल से पांच फीसदी लोगों के हाथ में मोबाइल फोन थे। एक फोन कॉल ने लोगों को चौंका दिया था। फोन उठाते ही आवाज आई थी,

“नमस्कार! मैं अटल बिहारी वाजपेयी बोल रहा हूं।”

इससे पहले कि लोग जवाब दे पाते, रिकॉर्डेड संदेश बजता रहा और सेवा का मौका देने के लिए “धन्यवाद” देकर खत्म हुआ। प्रचार के इस तरीके की तब खूब चर्चा हुई, लेकिन एक बात पर शायद ही किसी ने गौर किया। इस संदेश को करोड़ लोगों तक भेजने के लिए फोन नंबर किसने और कैसे जुटाए? राजनीतिक प्रचार में तकनीक और डेटाबेस के इस्तेमाल का देश में यह शुरुआती प्रयोग था, जो आगे चलकर नेताओं को खूब भाया। थोक के भाव एसएमएस या रिकॉर्डेड मैसेज भेजने का धंधा चमकने लगा। छोटी-मोटी टेली मार्केटिंग कंपनियां भी चुनाव के समय इलेक्शन मैनेजमेंट में हाथ आजमाने लगीं। नए प्रचार तंत्र के बूते चुनाव का रुख पलटने के दावे किए जाने लगे। खांटी नेता इसे नए दौर की शोशेबाजी समझकर खारिज करते रहे। लेकिन राजनीतिक दलों के दफ्तरों में “लैपटॉप ब्रिगेड” का रुतबा बढ़ता गया।

दूसरी तरफ प्रचार और जनमत बनाने-बिगाड़ने के खेल में लगी ताकतों को डेटा की अहमियत समझ आने लगी थी। दुकानों, बैंकों, स्कूल-कॉलेजों, क्लबों, सरकारी विभागों वगैरह से लोगों के नाम, पते, फोन नंबर जुटाए जाने लगे। निजी जानकारियां प्रोडक्ट बन गईं। धड़ल्ले से इसकी खरीद-फरोख्त होने लगी। लेकिन तब न प्राइवेसी का मुद्दा उठा और न ही डेटा चोरी और इसके दुरुपयोग को लेकर खास चिंताएं दिखीं। इस बीच, इंटरनेट टेलीफोन से जुड़ा, मोबाइल फोन स्मार्ट हुआ और सोशल मीडिया जिंदगी का हिस्सा बन गया। फिर भी दखलंदाजी, निजता और सोशल मीडिया के दुरुपयोग के सवाल गौण ही रहे।

अब 2018 में हम अचानक नींद से जागे हैं, जब पता चला कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रचार अभियान से जुड़ी क्रैंबिज एनालिटिका नाम की एक फर्म ने फेसबुक के पांच करोड़ यूजर्स के डेटा में सेंध लगाई थी। इस खुलासे से दुनिया की 8वीं सबसे बड़ी कंपनी फेसबुक की साख को बट्टा लगा ही, सत्ता और डिजिटल कंपनियों की साठगांठ से निजता और लोकतंत्र को खतरा महसूस किया जाने लगा। अमेरिका और यूरोप में निजता की सुरक्षा और सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने के उपाय खोजे जा रहे हैं। जबकि भारत में बहस इसी मुद्दे पर अटकी है कि यहां कैंब्रिज एनालिटिका की सहायक कंपनियों ने किस पार्टी के लिए काम किया, किसके साथ नहीं, किसे प्रपोजल भेजा, किससे मीटिंग की। मामला आरोप-प्रत्यारोपों से आगे नहीं बढ़ पाया। जबकि सूचना तकनीक खासकर सोशल मीडिया ने लोगों की पसंद-नापसंद, व्यवहार-विचार और आदतों को प्रभावित करने की जो क्षमता जुटा ली, उसका दुरुपयोग रोकना बड़ी चुनौती बन गया है। राजनीतिक और कारोबारी हितों को साधने के लिए डेटा और सोशल मीडिया का दुरुपयोग काबू से बाहर होता जा रहा है।

सूचना के अधिकार से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता रीतिका खेड़ा कहती हैं कि हाल के दिनों तक ‘आधार’ डेटा की सुरक्षा पर उठने वाले सवालों को यह कहकर खारिज कर दिया जाता था कि ‘आधार’ से ज्यादा सूचनाएं तो हम फेसबुक, गूगल के साथ साझा कर देते हैं। फिर ‘आधार’ में क्या दिक्कत है! मगर फेसबुक लीक प्रकरण से स्पष्ट हो गया है कि जैसे-जैसे हमारी सूचनाएं सरकार या किसी कंपनी के हाथ लगती हैं, निगरानी और निजता के हनन का खतरा बढ़ जाता है। हमें पता ही नहीं चलता कब हमारी निजता का हनन हो रहा है। आधार के मामले में तो सरकार ने निजता के अधिकार को ही नकारने की कोशिश की। अगर सोशल मीडिया के जरिए लोगों की निजता हनन गलत है तो सरकार द्वारा निगरानी पर भी ऐसे ही सवाल उठने चाहिए। समय आ गया है कि जब निजता और निजी सूचनाओं की सुरक्षा के मुद्दे को गंभीरता से लिया जाए।

डेटा सियासी हथियार

2009 में कांग्रेस के नेताओं, कार्यकर्ताओं और कई पेशेवर लोगों की एक टीम दिल्ली के गुरुद्वारा रकाबगंज रोड स्थित एक सरकारी बंगले पर कांग्रेस के वार रूम के तौर सक्रिय हुई। वहां नेताओं के चुनावी भाषण लिखे जाते, प्रचार अभियान की रणनीति तैयार होती, प्रवक्ताओं को खोज-खोजकर कर मुद्दे सुझाए जाते। परंपरागत चुनावी प्रबंधन को पेशेवर अंदाज में अंजाम देने की कोशिश की गई। उधर, भाजपा में भी आइआइएम और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़े प्रोद्युत वोरा के नेतृत्व में आइटी सेल की नींव पड़ चुकी थी। यह चुनावी प्रबंधन के तौर-तरीकों में बदलाव का आगाज था। राजनीतिक फलक पर वार रूम और आइटी सेल दस्तक दे चुके थे। 2009 का चुनाव जीतने के बावजूद आइटी और सोशल मीडिया को लेकर कांग्रेस उदासीन रही तो भाजपा का आइटी सेल आक्रामक होता गया। 2014 आते-आते आइटी उद्यमी राजेश जैन की कंपनी की मदद से नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान में सोशल मीडिया और सूचना तकनीक का ऐसा इस्तेमाल हुआ कि पूरी हवा ही बदल गई।

याद कीजिए, कैसे सोशल मीडिया पर मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और यूपीए के कथित घोटालों का मजाक उड़ाने, तंज कसने वाले संदेशों, कार्टूनों की बाढ़ आ गई थी। भाजपा के डिजिटल प्रचार अभियान को करीब से देखने वाले जेएनयू और आइआइटी के पूर्व छात्र अमित श्रीवास्तव बताते हैं कि फेसबुक के लोकप्रिय होने से पहले गूगल और याहू ग्रुप के जरिए डिजिटल मैदान मारने की कोशिशें भाजपा ने शुरू कर दी थीं। डेटाबेस की अहमियत तभी समझ आ गई थी। बाद में बिग डेटा के इस्तेमाल के उन्नत टूल विकसित हुए, स्मार्टफोन और इंटरनेट की पहुंच बढ़ी और राजनीति में सोशल मीडिया की भूमिका लगातार बढ़ती गई। इसके खतरे बहुत बाद में दिखाई पड़ने शुरू हुए।   

अमेरिका में फेसबुक डेटा लीक से जुड़ा कैंब्रिज एनालिटिका मामला सामने आने के बाद सोशल मीडिया और डेटा के दुरुपयोग की तरफ लोगों का ध्यान गया है। जबकि सोशल मीडिया और डेटा के जरिए आंदोलनों, अभियानों और चुनाव प्रचार को प्रभावित करने का सिलसिला करीब एक दशक से भी ज्यादा पुराना है। खासकर मिस्र में अरब वसंत आंदोलन और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के चुनाव में सोशल मीडिया लोगों तक संदेश पहुंचाने और उन्हें लामबंद करने का बड़ा साधन बना था। फिर अपने देश में 2011-12 में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन और बाद में आम आदमी पार्टी ने आइटी में दक्ष अपने वालंटियर्स के जरिए सोशल मीडिया पर राजनीतिक संदेश पहुंचाना शुरू किया। फिर अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी को मिली चुनावी सफलताओं ने सोशल मीडिया की ताकत का लोहा मनवा दिया। लेकिन तब तक भी सोशल मीडिया को अभिव्यक्ति की आजादी दिलाने वाला महत्वपूर्ण माध्यम समझा जाता रहा। इसी बीच, आंकड़ों की समझ और विश्लेषण की विद्या डेटा में सेंधमारी के जरिए चुनाव जिताने के हथकंडे में तब्दील होने लगी।

एक राष्ट्रीय दल के वार रूम में काम कर चुके रिसर्च प्रोफेशनल बताते हैं कि कई साल से ऐसे लोग और फर्म नेताओं के आसपास घूम रहे हैं जो डेटा के बूते चुनावी हवा बदलने का दावा करते थे। लोगों के फोन नंबर चुराने, डेटा जुटाने समेत सोशल मीडिया के हथकंडों ने बड़े सियासी हथियार की शक्ल अख्तियार कर ली। 2014 की हार से सबक लेते हुए कांग्रेस ने भी अपने पुराने तौर-तरीकों के बजाय प्रशांत किशोर जैसे चुनावी प्रबंधकों के कौशल पर भरोसा करना शुरू कर दिया। हालांकि, ये बातें सिर्फ कयासों, दावों और कानाफूसी तक सीमित थीं, लेकिन बीते 21 मार्च को तब लोगों ने गौर किया जब देश के आइटी मिनिस्टर रविशंकर प्रसाद ने प्रेस कांफ्रेंस कर संदेह जताया कि कांग्रेस ने भी अमेरिका में बदनाम हुई कैंब्रिज एनालिटिका की सेवाएं ली हैं। पिछले कुछ महीनों में सोशल मीडिया पर कांग्रेस के बढ़ते दबदबे और तीखे तेवरों से भी इन आरोपों को बल मिला।

फेसबुक लीक का मामला तूल पकड़ा तो पता चला कि कैंब्रिज एनालिटिका से जुड़ी कंपनियां भारत में कई साल से सक्रिय थीं। जदयू के प्रवक्ता केसी त्यागी के बेटे अंबरीश त्यागी कैंब्रिज एनालिटिका की मूल कंपनी स्ट्रैटजिक कम्यूनिकेशन लैबोरेटरीज से जुड़ी एससीएल इंडिया के डायरेक्टर हैं। 2011 में बनी इस कंपनी में कैंब्रिज एनालिटिका के सीईओ रहे अलेक्जेंडर निक्स और इलेक्‍शन कंसल्‍टेंट अवनीश राय भी डायरेक्टर है। ओलविनो बिजनेस इंटेलिजेंस (ओबीआइ) नाम की एक अन्य कंपनी भी इस दौरान सुर्खियों में आई। ओबीआइ को भी अंबरीश त्यागी चलाते हैं। हालांकि, अंबरीश त्यागी ने ओबीआइ का कैंब्रिज एनालिटिका के साथ किसी तरह का संबंध होने से इनकार किया है। हालांकि, विवाद से पहले ओबीआइ की वेबसाइट पर भाजपा, कांग्रेस और जदयू के लिए काम करने का दावा किया गया था। विवाद बढ़ा तो यह वेबसाइट बंद कर दी गई। उधर, कैंब्रिज एनालिटिका की वेबसाइट आज भी दावा करती है कि 2010 के बिहार चुनाव के लिए उसे एक दल ने मतदाताओं के विश्लेषण का ठेका दिया था। इसके अलावा उसके पास गांव-गांव में पार्टी के जनाधार को संगठित करने का जिम्मा भी था। कंपनी की मदद से उस चुनाव में शानदार जीत मिली।

अंबरीश सबसे पहले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इलेक्शन मैनेजमेंट में अपनी भूमिका को लेकर चर्चाओं में आए थे। सूत्रों का कहना है कि सोशल मीडिया और प्रचार अभियान में त्यागी पिछले एक दशक से जुड़े हैं। उनकी वेबसाइट पर कांग्रेस, भाजपा और जदयू के लिए काम करने के दावे मिले जो भारतीय राजनीति और फेसबुक लीक के बीच कड़ी के तौर पर देखे गए। हालांकि, केसी त्यागी ने बेटे अंबरीश के फेसबुक लीक में किसी प्रकार की भूमिका होने से साफ इनकार किया है। दिल्ली के सियासी गलियारों में गहरी पैठ रखने वाले सूत्रों का कहना है कि 2012 के यूपी चुनाव में अंबरीश त्यागी की कंपनी को एक राष्ट्रीय दल से सोशल मीडिया और रिसर्च संबंधी काम मिला था जो करीब तीन करोड़ रुपये का था।   

कैंब्रिज एनालिटिका की सेवाएं लेने के आरोप-प्रत्यारोपों के बीच एक बात बिलकुल साफ हो गई कि भाजपा, कांग्रेस समेत देश के कई क्षेत्रीय दलों का इस डेटा बाजीगरी से जुड़ाव रहा है। फेसबुक लीक की पोल खोलने वाले क्रिस्टोफर विली ने ब्रिटिश संसदीय समिति के सामने माना कि कांग्रेस भी क्लाइंट थी। इसके बाद उन्होंने ट्वीट कर एससीएल के भारत में तमाम प्रोजेक्ट की जानकारी उजागर कर दी, जिसके मुताबिक, एससीएल को 2012 के यूपी चुनाव में एक राष्ट्रीय पार्टी की ओर से जाति गणना का काम मिला था। इसके अलावा कंपनी को पार्टी के पक्के समर्थकों और संभावित वोटरों की पहचान भी करनी थी। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाला दावा यह है कि कंपनी के पास भारत के छह सौ जिलों और सात लाख गांवों का डेटा है जो लगातार अपडेट हो रहा है। जाति के आंकड़े जुटाने पर खास जोर है और घर-घर की जानकारी उनके पास है। इन सूचनाओं के जरिए राजनैतिक दलों को सही रणनीति बनाने और मतदाताओं के सही समूह तक संदेश पहुंचाने में मदद मिलती है। विली के मुताबिक, 2011 में एससीएल इंडिया ने घर-घर जाकर मतदाताओं की जाति पता करने का अभियान चलाया था। कंपनी ने 2007 से लेकर 2012 तक उत्तर प्रदेश में हुए विभिन्न चुनावों में राष्ट्रीय दलों और नेताओं के लिए कार्य किया। इससे यह जाहिर नहीं हो पा रहा है कि यूपी में भी 2007 से लेकर 2012 तक लोगों की निजी सूचनाओं का प्रयोग चुनावों में किया गया है। फिलहाल, विली के खुलासे के बाद राजनीतिक दलों और नेताओं में सन्नाटा है। यूपी में एससीएल इंडिया ने किन दलों और नेताओं के लिए काम किया, इस बारे में ज्यादातर राजनीतिक दल और नेता चुप्पी साधे हुए हैं। मिली जानकारी के मुताबिक, देश के बड़े नेताओं से जुड़े होने के कारण एससीएल इंडिया की कार्यशैली काफी गोपनीय थी। मसलन, नेताओं से वन-टू-वन मुलाकात होती थी। फोन पर काफी कम बातें होती थीं। कंपनी का ज्यादातर काम नगद होता था। राजनीतिक दलों से औपचारिक एग्रीमेंट साइन नहीं किए जाते थे।

बुनियाद में ही खोट

इसमें कोई दो राय नहीं कि सूचना क्रांति ने ऑनलाइन गतिविधियों को हमारे जीवन का अहम हिस्सा बना दिया है। लेकिन राजनीतिक दल के जनाधार को संभालने-संवारने का काम भी ऐसी ही आइटी कंपनियों के जरिए होगा, यह अंदाज शायद ही किसी को रहा होगा।

सिर्फ मनोरंजन, खबरों, शॉपिंग और संवाद के लिए ही नहीं बल्कि दाखिले, इलाज, नौकरी, बैंकिंग जैसे कामों के लिए भी हमें साइबर संसार से होकर गुजरना पड़ता है। हर पल हम अपनी गतिवि‌धियों के जरिए किसी न किसी ऑनलाइन मंच पर अपनी सूचनाएं जमा कर रहे हैं। फेसबुक लीक और इसके राजनीतिक दुरुपयोग ने इस खतरे की ओर हमारा ध्यान बहुत बाद में दिलाया जबकि यह सिलसिला कई साल से चला आ रहा था। गौर कीजिए, अगर हमारी लोकेशन तक किसी ऐप की पहुंच नहीं होती तो ओला या उबर की टैक्सी हम तक कैसे पहुंचती। फेसबुक पर स्कूल का कोई पुराना दोस्त मिलते ही हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। पता है यह कैसे होता था। फेसबुक को हम अपने स्कूल का नाम नहीं बताते या फोन डायरेक्टरी तक पहुंचने नहीं देते तो यह कैसे संभव था। यह सब मुफ्त में हो रहा था, जाहिर है हम उपभोक्ता नहीं उत्पाद बन चुके थे। हमारी पल-पल की सूचनाओं और गतिविधियों के आईने में हमारे विचार, व्यवहार, पंसद और आदतों का अक्स देखा जाने लगा। साइबर मामलों के वकील पवन दुग्गल कहते हैं, “फेसबुक और गूगल जैसे प्लेटफॉर्म हमें हमसे ज्यादा जानते हैं। कभी अपने फेसबुक डेटा को डाउनलोड करके देखिए, आप हैरान हो जाएंगे कि आपकी हर हरकत फेसबुक पर दर्ज है।” इस बीच, बिग डेटा से उपयोगी निष्कर्ष निकालने वाले तमाम उन्नत तकनीकी औजार भी पैदा हो चुके थे। सूचनाओं को निचोड़ना और उनका इस्तेमाल करना और भी आसान हो गया।

अब हमारी जानकारियां हमारे ऊपर ही इस्तेमाल होने लगी। हमारे मोबाइल और कंप्यूटर स्क्रीन सुझावों और सिफारिशों से भर गईं। क्या पढ़ना चाहिए, कहां घूमना चाहिए, क्या खरीदना चाहिए, किसे सुनना चाहिए सब कुछ हमें बताया जाने लगा। यहां तक भी सब ठीक था लेकिन सत्ता और मुनाफे के लालच में तकनीक के इस चमत्कार को निजता और लोकतंत्र के बड़े खतरे में बदल दिया। मिसाल के तौर पर, किसी टैक्सी ऐप के लिए यह पता लगाना चुटकी बजाने जितना आसान काम है कि उसके कितने ग्राहक पिछले एक महीने में किसी राजनैतिक महत्व की जगह गए। इस जानकारी के आधार पर कोई तीसरा पक्ष इन लोगों के विचार और आदतों को भांपने की कोशिश कर सकते हैं। अपने मतलब के लिए इन लोगों को लक्ष्य बना सकता है। सोशल मीडिया में विज्ञापन का पूरा धंधा यूजर की इस तरह प्रोफाइलिंग और विज्ञापनदाताओं को उन तक पहुंचाने के फार्मूले पर टिका है। इसी बिजनेस मॉडल के बूते फेसबुक आज करीब 490 अरब डॉलर की कंपनी है।  

भारत जैसे देशों में डेटा और निजता की पुख्ता कानूनी सुरक्षा न होने से स्थिति और भी खतरनाक हो जाती है। राज्यसभा टीवी के रिसर्च हेड रहे प्रेम बहुखंडी बताते हैं कि डेटा लीक के अलावा ऑनलाइन दुनिया का यह डिजाइन भी कम खतरनाक नहीं है जहां आपको मालूम ही नहीं होता कि आपकी जानकारियां किन हाथों में पहुंच सकती हैं। मिसाल के तौर पर, 2013 में फेसबुक यूजर्स के लिए अकादमिक मकसद से एक ऐप बनाया गया। इस पर 2.70 लाख लोगों ने सवालों के जवाब दिए लेकिन इनसे जुड़े पांच करोड़ दोस्तों का लीक होकर क्रैंबिज एनालिटिका तक पहुंच गया। आरोप हैं कि इस डेटा का इस्तेमाल अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों को प्रभावित करने के लिए हुआ। भरोसे के संकट से जूझ रहे फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने हाल ही में दिए गए एक इंटरव्यू में कहा कि फेसबुक को यह समस्या सुलझाने में ‘कई साल’ लग सकते हैं।

डिलीट फेसबुक काफी नहीं

एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए कैंब्रिज एनालिटिका द्वारा फेसबुक डेटा में सेंधमारी का खुलासा होने के बाद दुनिया भर में इस नामी सोशल मीडिया कंपनी के खिलाफ आक्रोश दिख रहा है। आम लोगों के अलावा अमेरिका में कॉरपोरेट जगत के दिग्गजों ने भी मुनाफे के लालच में फेसबुक यूजर्स की निजता के उल्लंघन और डेटा लीक को लेकर सवाल खड़े किए हैं। एपल कंपनी के सीईओ टिम कुक ने आरोप लगाया कि फेसबुक की तकनीक और बिजनेस मॉडल में ही खामियां हैं, जिसके तहत यूजर्स की निजी जानकारियां जुटाई जाती हैं और विज्ञापनदाताओं को बेचा जाता है। कुक ने फेसबुक पर तंज कसा कि हम भी अपने उपभोक्ताओं की जानकारियां भुनाने लगें तो बहुत पैसा कमा सकते हैं, लेकिन कभी ऐसा नहीं करेंगे। अरबपति उद्यमी एलॉन मस्क ने टेस्ला और अपने आधिकारिक पेज ही फेसबुक से डिलीट कर दिए। हालांकि, डेटा लीक मामले को लेकर फेसबुक के सीईओ ने कंपनी की गलती स्वीकार करते हुए माफी मांग ली है। कंपनी दुनिया भर के अखबारों में विज्ञापन देकर अपनी सेवाओं को सुरक्षित बनाने और थर्ड पार्टी ऐप के जरिए डेटा लीक रोकने का वादा कर रही है।

लेकिन फेसबुक की साख पर बट्टा लग चुका है। इस मामले से आहत कुछ लोग फेसबुक का विकल्प तैयार करने की कवायद में जुट गए हैं। महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने स्वदेशी सोशल नेटवर्क तैयार करने का सुझाव रखा है जिसे पेशेवर तरीके और समझदारी से चलाया जाए। समूह के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट जसप्रीत बिंद्रा के नेतृत्व में एक टीम फेसबुक के विकल्प खोजने में जुटी है। बिंद्रा का कहना है कि ब्लॉकचेन तकनीक से सोशल नेटवर्किंग को सुरक्षित बनाया जा सकता है।

हालांकि, पवन दुग्गल मानते हैं कि सवाल सिर्फ फेसबुक के डेटा लीक होने का नहीं है। इस पूरे ईको-सिस्टम को समझना जरूरी है, जिसमें लोगों की निजता और निजी जानकारियां दांव पर लगी है। सोशल मीडिया एकमात्र प्लेटफॉर्म नहीं है जिसके जरिए डेटा लीक हो सकता है। बल्कि इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर, टेलीकॉम ऑपरेटर, जीपीए ट्रेकर और यहां तक कि वेब या सिस्टम सिक्योरिटी के लिए इस्तेमाल होने वाली सेवाएं भी आपकी जासूसी कर सकती हैं। इसलिए डेटा सुरक्षा और निजी सूचनाओं का दुरुपयोग रोकने के पुख्ता इंतजाम जरूरी हैं। 

(साथ में लखनऊ से शशिकांत) 

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