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जमीन घोटाले के दलदल में फंसे सभी दल

झारखंड में जमीन खरीद-फरोख्त का खेल खूब फल-फूल रहा है
राज्य में आदिवासियों की जमीन पर कब्जे का चल रहा है गंदा खेल

सोलह साल पहले बने झारखंड में इन दिनों हर जगह जमीन घोटाले की चर्चा है। आदिवासियों की जमीन के हस्तांतरण से लेकर सरकारी जमीन की खरीद-बिक्री के मामले लगातार सामने आ रहे हैं। झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और अभी झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने 2002 में सार्वजनिक रूप से बयान दिया था कि उनकी कैबिनेट के एक मंत्री ने भूमि राजस्व विभाग हासिल करने के लिए हर महीने दो सौ करोड़ रुपये देने की पेशकश की थी। उनके इस बयान पर काफी विवाद हुआ था और तभी पता चल गया था कि झारखंड में यह विभाग कितना मलाईदार है।

बिहार से अलग होकर झारखंड बनने के बाद राज्य में रियल एस्टेट का कारोबार इतनी तेजी से परवान चढ़ा कि लोग भौंचक रह गए। झारखंड के हर बड़े शहर में पक्के मकान बनने के दौर में कभी अहसास तक नहीं हुआ कि इस व्यवसाय की तह में कितनी बड़ी गड़बड़ी छुपी हुई है। अब डेढ़ दशक बाद जब इस  कारोबार की परतें खुल रही हैं, तब पता चल रहा है कि इसमें सभी दलों के नेताओं से लेकर अधिकारी और जमीन दलाल तक शामिल हैं। पिछले महीने विधानसभा के मानसून सत्र में जब छोटा नागपुर-संताल परगना काश्तकारी अधिनियममें संशोधन के अध्यादेश पर विवाद शुरू हुआ तो यह बात सामने आई कि लगभग हर दल के नेताओं ने बहती गंगा में हाथ धोया है। इन दोनों कानून में प्रावधान है कि आदिवासियों की जमीन की खरीद-बिक्री नहीं हो सकती है। आदिवासी व्यक्ति भी किसी दूसरे आदिवासी की जमीन तभी खरीद सकता है, जब वह उसी थाना क्षेत्र का निवासी हो। राज्य के अधिकांश नेताओं ने इस कानून को ठेंगा दिखा कर राज्य के हर हिस्से में बेनामी जमीन खरीदी। जमीन खरीदने के लिए पैसा कहां से आया यह जांच का अलग विषय है। इस खेल में सभी दल बराबर के भागीदार हैं। इसके बाद अफसरों और जमीन दलालों का नाम है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता ने कुछ नेताओं और अधिकारियों की सूची जारी की जिसमें कई नेताओं के नाम थे। बदले में भाजपा ने भी जवाबी सूची जारी कर दी। जब नेताओं के नाम आने लगे तो यह मुद्दा अचानक राजनीतिक हो गया। इसके बाद झामुमो और दूसरे विपक्षी दलों ने कानून में संशोधन के लिए जारी होने वाले अध्यादेश को मंजूरी न देने का मुद्दा गरम कर दिया।

इससे पहले देवघर, हजारीबाग, चाईबासा, बोकारो, दुमका, रांची और दूसरे बड़े शहरों में सरकारी जमीन के अवैध हस्तांतरण की खबरें यदा-कदा उड़ती रहती थीं। इन सब के बीच जमीन अधिग्रहण के मुआवजे में कमीशनखोरी और भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आए हैं। इस खेल में अरबों रुपये के लेन-देन के आरोपों की जांच हो रही है। कई सरकारी अधिकारी इसमें फंस चुके हैं। रांची के नामकुम में सेना की जमीन बेचने का मामला, रांची-कोडरमा रेल लाइन के लिए जमीन अधिग्रहण का मुआवजा देने के मामले सहित कई भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों के मामले भी सामने आए हैं। सरकारी दस्तावेज में छेड़छाड़ कर जमीन के सौदे के मामले भी सामने आए। इसके अतिरिक्त कानून के प्रावधान की आड़ में आदिवासियों की जमीन खरीदने के भी मामले खुलने लगे।

झारखंड में जमीन खरीद-बिक्री एक संगठित उद्योग बन चुका है। यह उद्योग इतना फैल चुका है कि इसमें हर साल अरबों रुपये का लेन-देन हो रहा है। पिछले 15 साल में सिर्फ रांची में ही जमीन विवाद को लेकर करीब डेढ़ सौ लोगों की हत्या हो चुकी है। इनमें से अधिकांश लोग या तो जमीन के सौदे की दलाली से जुड़े थे या फिर कमीशनखोरी में। अधिकांश मामलों में पुलिस न तो कातिलों को पकड़ सकी, न सही तरीके से जांच हुई। हालत यह हो गई है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को निचले स्तर के पुलिस अधिकारियों को जमीन दलाली से अलग रहने की हिदायत तक देनी पड़ी। भू-राजस्व विभाग से जुड़े अफसर और कर्मचारी जमीन के अवैध हस्तांतरण में फंसने लगे। कई लोग जेल गए, कई के यहां छापा पड़ा और मुकदमे दर्ज किए गए।

जमीन के झमेले का राजनीतिक पहलू चाहे कुछ भी हो, लेकिन इन मामलों ने झारखंड में भ्रष्टाचार को बेकाबू कर दिया है। समाजशास्त्री डॉ. अरविंद प्रसाद कहते हैं, ‘झारखंड में जमीन आदिवासियों के अस्तित्व से जुड़ी है। इसलिए झारखंड में यह तेजी से फैला है।इस खेल में राजनेताओं और नौकरशाहों के शामिल होने से यह कारोबार बदरंग हो गया है। इससे समाज को एकजुट रखना मुश्किल हो गया है। राजनीतिक विश्लेषक सच्चिदानंद शर्मा के अनुसार झारखंड की इस हालत के लिए जमीन के अवैध कारोबार को सर्वाधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। पूर्व नौकरशाह एके मिश्रा कहते हैं, राज्य में नक्सल समस्या का यह एक बड़ा कारण है। अब इसमें कार्रवाई हो रही है, यह अच्छा संकेत है।

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