अप्रैल 2000 की पहली तारीख को मैं हैदराबाद के आसपास कहीं ट्रेन में कलकत्ता मेल की शूटिंग कर रहा था। पूरी यूनिट एक ही टॉयलेट का इस्तेमाल कर रही थी। वह बहुत गंदा हो गया था। इसलिए जैसे ही ट्रेन रुकी मैं हल्का होने के लिए दौड़ पड़ा। मैं फिसल गया और पटरी के पास बने एक ढलान से मेरा पैर टकराया और मेरे टखने की हड्डी अपनी जगह से सरक गई। मुझे अस्पताल ले जाया गया, वहां एक्सरे के बाद डॉक्टर ने कहा कि वे मुझे एनेस्थेसिया देंगे ताकि मेरी हड्डी को दोबारा बैठाया जा सके।
मुझे याद है, एनेस्थेसिया मास्क मेरे चेहरे तक लाया जा रहा था कि तभी मेरा फोन बज उठा। यह विनोद (फिल्ममेकर और प्रोड्यूसर विधु विनोद चोपड़ा) का फोन था। उसने मुझे बताया कि रेणु को कैंसर होने का पता चला है।
मैंने डॉक्टर से कहा कि थोड़ी देर बाद एनेस्थेसिया दें। मैंने फिल्म में लीड रोल कर रहे अनिल कपूर को बुलाया। अनिल जैसे ही कमरे में घुसे मैंने जल्दी से कहा, “रेणु को कैंसर है, जल्दी वापस लौटना है।”
जब मैं एनेस्थेसिया के प्रभाव से बाहर आया, मेरी हड्डी दोबारा ठीक जगह पर आ गई थी। शूटिंग कैंसल की गई और अगली सुबह मैंने मुंबई वापसी की फ्लाइट पकड़ ली।
जो दोस्त मुझे एयरपोर्ट पर लेने आए थे, उन लोगों ने बुरी खबर के साथ मेरा स्वागत किया। मैंने फ्लाइट में बैठने से पहले रेणु से बात की थी। वह कैंसर का पता चलने वाली बात पर हंसी थी और मुझसे कहा था कि मैं जरा भी चिंता न करूं। डॉक्टर ने उससे कहा था कि बीमारी पकड़ में आ गई है इसलिए वह ठीक होकर जल्दी ही एडिटिंग रूम में वापसी करेगी।
मेरे दोस्त अतुल तिवारी ने मुझे रास्ते में बताया कि उसे सच नहीं बताया गया है। बाद में जब मैं अपने दोस्त रेडिएशन ऑन्कोलॉजिस्ट डॉ. नागराज हुईलगोल से मिला तो रिपोर्ट पर एक नजर डालते ही उनके मुंह से सिर्फ यही निकला, “हे भगवान।” जब मैं अस्पताल में रेणु के सुईट की तरह के कमरे में घुसा तो वहां पार्टी जैसा माहौल था। शबाना के साथ जावेद साहब मौजूद थे, उसके पूर्व पति विनोद चोपड़ा और कई लोग वहां थे। रेणु ने दांत निपोरते हुए कहा, “तुम्हें पता है मुझे लिम्फोमा...” तब तक मैं जान गया था कि उसकी स्थिति कितनी खराब है और वह इसके बारे में नहीं जानती थी। मैं उसे सिर्फ देखता रह गया। मुझे समझ ही नहीं आया कि उससे क्या कहूं।
जब सब लोग चले गए तो हम दोनों के बीच एक आत्मीय माहौल पसर गया। संभव था वह बहादुरी दिखाना बंद करती और उस व्यक्ति के सामने टूट जाती जिसके साथ वह रिश्ते में थी, मेरा मतलब मुझसे है, उस वक्त हम दोनों रिश्ते में थे। उसने मेरी तरफ देखा और कहा कि उसे कुछ हो जाए तो मैं दोबारा शादी कर लूं। मैंने उसे डपटा, “क्या बकवास है।” लेकिन फिर बाद में हम ऐसी काल्पनिक महिला के बारे में बात करने लगे जिससे बाद में मैं शादी कर सकता हूं। जाहिर है, काल्पनिक इसलिए कि वह ऐसी किसी महिला के बारे में बात करना नहीं चाहती थी जो वास्तव में हमारे आसपास थी! इसलिए हम कभी ‘ऐसी’ तो कभी ‘उसके जैसी’ महिला के बारे में बात करने लगे। लेकिन रेणु जैसे गुणों वाली दूसरी कोई कैसे खोज पाएगा? वह गुणों की खान थी। क्या मैं दोबारा उसके जैसी कोई खोज पाऊंगा?
वह मुझसे पांच या छह साल बड़ी थी। यह गुण खोजना सबसे कठिन है। काम में वह मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर थी। वह शानदार संपादन करती थी। एक व्यक्ति के रूप में वह अतिशय दयालु थी। वह ज्यादातर हर बात में सकारात्मक पहलू देखती थी। केवल कुछ लोगों के बारे में ही ऐसा कहा जा सकता है कि वे अलग तरह के होते हैं, रेणु उन्हीं में से थी। मैंने सोचा, क्या कोई रेणु को भी नापसंद करता होगा। बहुत कोशिश के बाद भी मेरे जेहन में ऐसा एक भी नाम नहीं आया। चाहे जो हो वह हर किसी को प्रभावित कर लेती थी। वह जिन लोगों के साथ होती थी, उन्हीं का हिस्सा हो जाती थी। घूम फिर कर मेरा विचार फिर मुझ पर आकर टिक गया। “हे भगवान उसके बिना मेरा क्या होगा?” वह किसी की होती थी और नहीं भी, यह उसकी अद्भुत क्षमता थी। आपके साथ होते हुए भी यदि उसे लगे कि आप गलत हैं तो वह सच्चाई के पक्ष में खड़ी हो जाती थी। इस तरह वह आपको कई मूर्खताओं से बचा ले जाती थी। उसके साथ रहना किसी को नागवार गुजर सकता था क्योंकि वह समझौता करने वाली समर्पित गर्लफ्रेंड, बीवी की पारंपरिक भूमिका से कोसों दूर थी। उसके साथ रहने का यह सबसे रोमांचक हिस्सा था।
रेणु का यह बढ़िया गुण आपको भी स्वतंत्र रखता था। फिर वह ठीक वैसी ही स्वतंत्रता की मांग कर डालती थी। उदाहरण के लिए, मुझे कभी पता नहीं चला कि उसके बैंक में कितने पैसे हैं और उसने भी मुझसे यह सब कभी नहीं पूछा। मुझे आश्चर्य होता है कि हम कैसे एक साथ रहते थे। जब भी हमें कोई बिल चुकाना होता था तो जिसके पास बिल पहले आ जाता था वह भुगतान कर देता था। दोनों में से जो भी छुट्टी का आइडिया लेकर आता, वही टिकट भी ले लेता था। हम जब भी बाहर जाते थे, जो भी पहले पर्स निकाल लेता वह बिल चुका देता था। हमने कभी अपने फाइनेंस को ‘मैनेज’ करने की कोशिश नहीं की। मुझे हल्का सा अंदाजा था कि वह मुझ से ज्यादा कमाती है पर हमने इस बारे में कभी बात नहीं की।
उसने कभी मुझसे नहीं पूछा कि मैं कहां जा रहा हूं और कब वापस आऊंगा। जब भी मैंने काम से संबंधित कोई फैसला लिया उससे कभी नहीं पूछा। क्योंकि मुझे पता था वह समझ जाएगी। यदि मैं बाहर शूटिंग कर रहा होता था और शेड्यूल 20 दिन आगे बढ़ जाता था तो मैं बढ़ा देता था। वह जानती थी यह हमारी डील का हिस्सा है। ठीक इसी तरह वह भी कभी अपने काम के बारे में मुझसे नहीं पूछती थी। शुरुआत में पुरुष होने के नाते यह स्वीकार करना मेरे लिए कठिन था। लेकिन धीरे-धीरे आप व्यवस्था के आदी हो जाते हैं। यह वह व्यवस्था थी जिस पर उसने बाकायदा बातचीत की थी। संदेश स्पष्ट था, या तो मान लो या भाड़ में जाओ। उसने कोई और विकल्प छोड़ा ही नहीं था। मैंने इस व्यवस्था को अपनाया क्योंकि मैं जानता था कि मैं उसकी तरह कोई और नहीं ढूंढ़ पाऊंगा। यह सच नहीं है कि मैंने उसका विरोध नहीं किया, मैंने बिलकुल विरोध किया। जैसे यदि उसने मेरी फिल्म का संपादन किया तो मैंने ऐसे दर्शाया जैसे, “संपादन बहुत अच्छा नहीं हुआ।” लेकिन सच्चाई यह है कि उसने मुझसे भी बढ़िया संपादन करके दिया था। अच्छे संपादन की तरह ही उसने मेरी जिंदगी को भी अच्छे ढंग से मार्गदर्शित किया। मैं शायद ऐसा कभी न कर पाता। मैं सोचता रहता था, उसके बिना मेरी जिंदगी कैसी होगी।
उसके गुजर जाने के बाद मुझे इस पर विश्वास करने में लंबा समय लगा कि आप दो लोगों के बीच तुलना नहीं कर सकते। किसी एक के व्यवहार की अपेक्षा दूसरे से नहीं की जा सकती। एक तरह से यह अनुचित भी है। पर यह समझना कठिन था। रेणु बस रेणु थी। मजबूत, होशियार, खुशमिजाज, आत्मविश्वासी, दयालु, जिससे हर सहकर्मी, सहयोगी, घरेलू सहायिका, उसकी बहन, माता-पिता और मैं प्रेम करते थे। मेरे लिए तकलीफदेह था, वह जीवन की डोर छोड़ती जा रही थी। वह बीमारी से लड़ने के प्रति कमजोर पड़ने लगी थी। वह हमेशा खुश रहती थी, कभी गुस्से या तनाव में नहीं रही, तब भी नहीं जब वह बहुत मेहनत करती थी। सभी उससे प्यार करते थे, फिर उसे ही पेट का कैंसर क्यों हुआ जबकि दूसरे लोग भी सिगरेट-शराब पीते हैं। जिस वक्त उसने दुनिया छोड़ी वह मात्र 48 साल की थी। यह सरासर अन्याय है। मृत्यु से पहले उसने खुद को दूसरों से अलग करना शुरू कर दिया था। उसने घर आना बंद कर दिया और फिर एक दिन उसने तय किया कि वह अपने माता-पिता के घर जाकर रहेगी।
मैं अपनी ओर से भरपूर कोशिश कर रहा था, पर अंतर यह था मैं जिंदा रहने वाला था, वह नहीं। हम दोनों में से किसी के लिए यह पहला रिश्ता नहीं था। उसका भी एक अतीत था मेरा भी, लेकिन इस बात ने हम दोनों के बीच कभी घुसपैठ नहीं की थी। लेकिन उसने अपने अतीत की ओर देखना शुरू कर दिया था। वह अपने चुनाव पर प्रश्न करने लगी थी। यह तकलीफदेह था। उसने मुझे खुद से दूर धकेलना शुरू कर दिया था। मुझे लगता है यही परीक्षा की घड़ी थी, जब वह व्यक्ति जिसे आप प्यार करते हैं आपसे दूर जाने की कोशिश करे और खुद से सवाल करे। लेकिन ऐसे व्यक्ति जब जीवन की इस अवस्था में होते हैं तो वे खुद में नहीं होते, वे सोचने-समझने की शक्ति खो देते हैं। उस क्षण वे लोगों से नफरत करने लगते हैं। क्या आप ऐसे लोगों के साथ खड़े हो सकते हैं? दरअसल, यह जीवन का कठिन हिस्सा है और दो महीने के लिए लगभग हर दिन मेरी जिंदगी ऐसी रही। मैंने कोशिश की, उसकी प्रतिक्रिया जानने की, उससे बातचीत करने की ताकि उसका हर असमंजस दूर हो सके। मैंने उसे अपनी बहन, माता-पिता के करीब और करीब जाने दिया। मैंने उसे यह सोचने के लिए भी स्वतंत्रता दी कि आखिर उसने अपने पहले पति को क्यों छोड़ा। उसकी अंतिम सांस तक मैंने उसे अतीत की गलियों में जाने से नहीं रोका। यह सब मेरे लिए परीक्षा की घड़ी थी, मेरे प्यार की परीक्षा क्योंकि उसने मुझे खुशनुमा जिंदगी दी थी। क्या आप ऐसे किसी व्यक्ति के साथ रह सकते हैं जो अपने आसपास आपकी मौजूदगी तक न चाहता हो? जरूर रह सकते हैं क्योंकि उस व्यक्ति को आपकी जरूरत होती है, इसलिए आप बस उनके लिए वहां होते हैं।
अंत में, जब वह बेहोशी की हालत में थी, लगभग जीवन छोड़ कर चली गई थी तब वह सोचती थी, वह किसी और से बात कर रही है। वह मुझसे मेरे ही बारे में बात करती थी, यह मानते हुए कि वह विनोद से बात कर रही है। उसने कहा कि (विनोद) उसका खयाल रखना चाहिए। यह बहुत ही निजी मगर अजीब मसला था। उसका निधन होने के बाद विनोद भी अंत्येष्टि में आया। मैंने उसे पास बुलाया और हम दोनों ने मिल कर उसका अंतिम संस्कार किया। इस तरह सब खत्म हो गया।